-विनोद सिल्ला
सपने में नित
देता है दिखाई
समाज का उधड़ता
ताना-बाना
घुलता फिजां में
जहर

साम्प्रदायिक कहर
दलितों की रुकती
घुड़चढ़ी
खाप-पंचायतों की
ललकार
ऑनर कीलिंग की
चीख-पुकार
ढलता
नैतिक मूल्यों का सूरज
लुप्त होती संवेदना
नित-नया भयावह सपना
लगा डर लगने
सोने से
भयावह सपनों से