माली ख़फ़ा ना हो कहीं ये सोचता रहा,
लुटता हुआ मैं अपना चमन देखता रहा।
दुश्मन की ज़द से खुद को बचाना था इसलिये,
मैं अपने रक्षकों की तरफ़ देखता रहा।
हसरत भरी निगाह से मौक़ा दिया मगर,
अफ़सोस कुछ किया नहीं वो देखता रहा।
जब इल्म की भी रोश्नी मिलने लगी मुझे,
जा पहुंचा चांद पर मैं जिसे पूजता रहा।
सत्ता की ध्ूाप लेने तो सब लोग आ गये,
बारिश में खून की मैं तन्हा भीगता रहा।
दुश्मन को जाके तेरे गले से लगायेगा,
फिर भी उसी को चुन लिया मैं चीख़ता रहा।
मेरी बुलंदियों का फ़क़त इतना राज़ है,
नाकामियों से अपनी सदा सीखता रहा।
हर धर्म के मिले मुझे हर ज़ात के मिले,
इंसां कहीं मिला नहीं मैं ढूंढता रहा।।
नोट-ज़दः निशाना, हसरतः अभिलाषा, इल्मः शिक्षा, तन्हाः अकेला
कितना सही कहा आपने,
“हर धर्म के मिले मुझे हर ज़ात के मिले,
इंसां कहीं मिला नहीं मैं ढूंढता रहा।।”
पर आपकी बुलंदी का कारण यह है या नहीं कि आप अपनी गलतियों से सीखते रहे,पर यहीं मार खा गया इंडिया बनाम भारत बनाम हिन्दुस्तान कि हम गलतियों पर गलतियाँ करते रहे,पर उन गलतियों से सीखा कुछ भी नहीं.