वैश्विक शांति और वर्तमान युद्ध परिप्रेक्ष्य

विवेक रंजन श्रीवास्तव

शीत युद्ध की समाप्ति के पश्चात् एक नए शांतिपूर्ण विश्व व्यवस्था के उदय की आशा थी परन्तु इक्कीसवीं सदी का तीसरा दशक में दुनियां एक विडंबनापूर्ण वास्तविकता के समक्ष आ खडी हुई है । ऐसा युग जहाँ अंतर्संबंध और तकनीकी प्रगति की अभूतपूर्व ऊँचाइयों के बावजूद, युद्ध और संघर्ष पहले से कहीं अधिक व्यापक हैं। रूस यूक्रेन में चार साल से युद्ध, इजराइल और फिलिस्तीन के बीच अत्यधिक हिंसक और जटिल संघर्ष, अफ्रीका के विभिन्न क्षेत्रों में जारी गृहयुद्ध, एशिया में तनावपूर्ण सीमा विवाद, और सीरिया, यमन जैसे देशों में अभी भी चल रहे संकट के बीच ईरान इजराइल युद्ध में अमेरिका की एंट्री से विश्व शांति पर प्रश्न चिन्ह लग गया है।

भारत पाकिस्तान तनाव, चीन ताइवान , कोरिया तथा ऐसे ही अन्य विवाद एक ऐसी कठोर वास्तविकता की ओर इंगित करते हैं जहाँ स्थाई वैश्विक शांति एक दूर का, अस्पष्ट सा लगने वाला लक्ष्य प्रतीत होता है। वर्तमान युद्ध परिप्रेक्ष्य की जटिलताओं और उसके सामूहिक प्रयासों से वैश्विक शांति की ओर बढ़ने की चुनौतियों पर विचार और गंभीर काम करना अत्यंत प्रासंगिक है।

आज के युद्धों की प्रकृति पारंपरिक सीमाओं को लांघ चुकी है। वे केवल दो राष्ट्रों के बीच सीमित संघर्ष नहीं रहे। इनमें प्रॉक्सी युद्धों का बोलबाला है जहाँ महाशक्तियाँ अन्य देशों या समूहों के माध्यम से अपने हित साधती हैं जैसा सीरिया या यमन में देखा गया। युद्ध तकनीक का प्रयोग बढ़ा है, जहाँ छोटे समूह या गैर-राज्य बड़ी सेनाओं के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध और आतंकवादी हमलों का सहारा लेते हैं।

साइबर युद्ध एक नया और खतरनाक मोर्चा खोल चुका है जिसमें बुनियादी ढांचे पर हमले, विघटनकारी प्रचार और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा शामिल है। सूचना युद्ध, झूठी खबरों और प्रोपेगैंडा के माध्यम से जनमत को प्रभावित करने और विभाजित करने का प्रयास करता है। ये सभी पहलू युद्ध को और अधिक विनाशकारी, टिकाऊ और समाधान के लिए दुर्गम बना देते हैं।

इन संघर्षों के मूल में अनेक जटिल और अक्सर गुंथे हुए कई कारण निहित हैं। भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता, विशेष रूप से अमेरिका और चीन के बीच तथा रूस की पश्चिम के साथ बढ़ती टकराहट, अंतरराष्ट्रीय तनाव के प्रमुख स्रोत है। ये प्रतिस्पर्धाएँ व्यापार, प्रौद्योगिकी और क्षेत्रीय प्रभाव के लिए हैं जो अक्सर अन्य देशों में संघर्षों को हवा देती हैं। संसाधनों पर नियंत्रण चाहे वह तेल, गैस, खनिज हों या पानी जैसी मूलभूत आवश्यकताएँ, भीषण संघर्षों को जन्म देते रहे हैं।

पहचान की राजनीति, जातीय, धार्मिक या सांस्कृतिक पहचान पर आधारित गहरे विभाजन और वैमनस्य अक्सर हिंसा को ईंधन देते हैं, जैसा म्यांमार में रोहिंग्या संकट या अफ्रीका के कई हिस्सों में देखा जा सकता है। आंतरिक राजनीतिक अस्थिरता, कमजोर संस्थान, भ्रष्टाचार और आर्थिक असमानता गृहयुद्धों और राज्य-विफलता को जन्म देते हैं। इसके अतिरिक्त, जलवायु परिवर्तन एक और खतरे के रूप में उभरा है, जो संसाधनों की कमी पैदा करके और पलायन को बढ़ावा देकर मौजूदा तनावों को बढ़ाता है और नए संघर्षों का कारण बनता है।

इस चुनौतीपूर्ण परिदृश्य में वैश्विक शांति की अवधारणा और उसकी प्राप्ति एक कठिन कार्य है। शांति का अर्थ अब केवल गोलाबारी का बंद होना नहीं रह गया है। एक सकारात्मक, गतिशील और न्यायपूर्ण स्थिति आवश्यक है जिसमें संघर्षों को शांतिपूर्ण तरीकों से हल करने की व्यवस्थाएँ हों, मानवाधिकारों का सम्मान हो, सामाजिक न्याय हो और टिकाऊ विकास के अवसर हों। हालाँकि, वर्तमान व्यवस्था इस दिशा में गंभीर बाधाएँ प्रस्तुत करती है। बहुपक्षीय संस्थान, विशेषकर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, अक्सर महाशक्तियों के वीटो के कारण गतिरोध का शिकार हो जाते हैं और प्रमुख संकटों में कारगर हस्तक्षेप करने में अक्षम साबित होते हैं। शस्त्रों की दौड़, विशेषकर परमाणु हथियारों का प्रसार, विनाश का एक स्थायी खतरा पैदा करता है। आर्थिक असमानता और विकास का असंतुलन, वैश्विक असंतोष और अस्थिरता को बढ़ावा देते हैं। कट्टर धार्मिकता, राष्ट्रवाद और अलगाववाद की बढ़ती प्रवृत्तियाँ अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को कमजोर करती हैं।

निराशा के इस माहौल में भी, वैश्विक शांति की दिशा में आगे बढ़ने के मार्ग हैं। सबसे पहले, बहुपक्षवाद को पुनर्जीवित और सुधारने की तत्काल आवश्यकता है। संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं को अधिक प्रतिनिधित्वपूर्ण, लोकतांत्रिक और कार्यक्षम बनाना होगा, जहाँ शक्ति का संतुलन वास्तविक वैश्विक जरूरतों को दर्शाता हो। क्षेत्रीय संगठनों जैसे अफ्रीकी संघ, यूरोपीय संघ, आसियान की भूमिका को मजबूत करना चाहिए, क्योंकि वे स्थानीय संदर्भ को बेहतर ढंग से समझते हैं। दूसरा, संघर्षों की रोकथाम पर जोर देना अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसके लिए तनाव के प्रारंभिक संकेतों की पहचान करना, राजनयिक संवाद को निरंतर बनाए रखना, आर्थिक और राजनीतिक दबाव के शांतिपूर्ण उपायों का प्रयोग करना और गहरे जड़ जमाए कारणों असमानता, लोकतांत्रिक शासन की कमी को सुधार करना शामिल है। तीसरा, आर्थिक विकास , अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सहायता को शांति के साधन के रूप में बढ़ावा देना चाहिए। जब देश व्यापार, निवेश और विकास परियोजनाओं के माध्यम से एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं, तो युद्ध की लागत बहुत अधिक हो जाती है।

संघर्ष समाधान और शांति निर्माण के लिए दीर्घकालिक प्रतिबद्धता आवश्यक है। युद्धविराम के बाद राष्ट्रीय पुनर्निर्माण, न्यायिक प्रक्रियाओं सत्य एवं सुलह आयोग, लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत करने और आर्थिक पुनर्वास में निवेश करना होगा। अंततः, जलवायु परिवर्तन जैसे अस्तित्व गत खतरों से निपटने के लिए वैश्विक सहयोग अनिवार्य है, क्योंकि ये खतरे सभी राष्ट्रों के सामान्य भविष्य को प्रभावित करते हैं और संघर्ष के नए स्रोत पैदा कर सकते हैं।

वर्तमान युद्ध परिप्रेक्ष्य निश्चित रूप से गंभीर चिंता का विषय है। यह एक ऐसी दुनिया को दर्शाता है जो अभी भी शक्ति, भय और विभाजन की प्राचीन प्रवृत्तियों से ग्रस्त है। यद्यपि इतिहास यह भी सिखाता है कि सहयोग, संवाद और साझा मानवता की भावना के माध्यम से ही शांति संभव है। वैश्विक शांति कोई सहज प्राप्य उपलब्धि नहीं है, यह एक सतत प्रक्रिया है, जिसके लिए दृढ़ इच्छाशक्ति, रचनात्मक राजनय, संस्थागत सुधार और प्रत्येक स्तर पर न्याय के प्रति प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है। युद्ध की भयावह लागत , जीवन की हानि, मानवीय पीड़ा, आर्थिक विनाश और पर्यावरणीय क्षति हमें याद दिलाती है कि शांति के लिए प्रयास करना कोई नैतिक विलासिता नहीं, बल्कि मानव सभ्यता के अस्तित्व और समृद्धि के लिए एक परम आवश्यकता है।

वर्तमान चुनौतियाँ कितनी भी गहरी क्यों न प्रतीत हों, शांति की आकांक्षा को निरंतर बनाए रखना और उसके लिए सक्रिय रूप से कार्य करना ही एकमात्र मानवीय विकल्प है। गांधीजी के शब्दों में, “यदि हम दुनिया में वास्तविक शांति चाहते हैं, तो हमें बच्चों के साथ शुरुआत करनी होगी।” भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक शांतिपूर्ण विश्व बनाने का संकल्प ही वर्तमान अंधेरे में आशा की किरण जलाए रख सकता है।

विवेक रंजन श्रीवास्तव

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