पर्यावरण चेतना जगाती भारतीय संस्कृति 

डा. विनोद बब्बर 

पिछले दिनों भारत के प्रदेश तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद की उस शर्मनाक और आत्मघाती कृत्य की सोशल मीडिया पर बहुत चर्चा रही जिसमें हैदराबाद के फेफड़े कहे जाने वाली कांचागाची बोवली गांव से सटी वन भूमि पर उन 40, 000 से अधिक वृक्षों को काट दिया गया जो न केवल पूरे क्षेत्र को प्राणवायु दे रहे थे बल्कि लाखों जीव जंतुओं का आश्रय स्थल भी थे। राष्ट्रीय पक्षी मोर सहित हजारों पशु-पक्षियों का काल बनी इस घटना की व्यापक निंदा आलोचना हुई। अनेक ऐसे वीडियो भी सामने आए जिसमें मासूम खरगोश हिरण आंसू बहा रहे थे। द्रवित कर देने वाले इन दृश्यों का वहां की सरकार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि उसे वह जमीन बेचकर बहुत बड़ी धनराशि प्राप्त होने वाली थी। उसने उच्चतम न्यायालय में बेरोजगारी का तर्क प्रस्तुत करते हुए उस भूमि पर उद्योग तथा व्यापारिक केंद्र स्थापित करने की दुहाई दी।

 यह संतोष की बात है कि माननीय उच्चतम न्यायालय ने उस कुतर्क को अस्वीकार करते हुए कहा कि संपूर्ण देश रोजगार और विकास चाहता है लेकिन पर्यावरण की कीमत पर ऐसे अपराध की अनुमति नहीं दी जा सकती। वास्तव में तेलंगाना सरकार और उसके अधिकारियों की असंवेदनहीनता इस बात का प्रमाण है कि हम अपनी संस्कृति और उसमें समाहित जीवन मूल्यों से कट रहे हैं। इसलिए यह आज की परम आवश्यकता है भारतीय संस्कृति में जिस पर्यावरण चेतना को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है उसे स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल कर देश के हर बच्चे के हृदय में स्थापित किया जाए। 

भारतीय संस्कृति इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड को एक कुटुम्ब मानती है, जहाँ किसी का अलग अस्तित्व नहीं है। यह विचार पर्यावरण-सुरक्षा का सूत्र समेटे हुए है। जब हम अपनी सांस्कृतिक परम्परा की बात करते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि हम आधुनिकता को पूरी तरह से नकार रहे है। हमारा उद्देश्य आधुनिकता के नाम पर प्रकृति के सम्मान की परंपरा को दुत्कारते हुए अपने ही परिवेश को असंतुलित बनाने की बढ़ती प्रवृत्ति के विरुद्ध जनजागरण है। वर्तमान का सत्य यह है कि आज आधुनिकता और विकास के नाम पर हो रही अंधी दौड़ प्रकृति का दोहन कर रही है जिससे भविष्य अनिश्चित दिखाई देने लगा है। 

भारतीय दर्शन में समस्त संसार को जड़ और चेतन में विभाजित किया गया है। हर छोटे- बड़े जीव से पेड़ -पौधों तक चेतना है। इस चेतना को साकार बनाये रखने के लिए ‘आवरण’ चाहिए। ये आवरण पंचतत्वों से निर्मित है जिसे हम मिट्टी, जल, वायु, आकाश, अग्नि भी कहते हैं। इन तत्वों की संतुलित उपस्थिति का बने रहना प्राणी-जगत् के अस्तित्व की अनिवार्य शर्त है। बस यही है पर्यावरण-संरक्षण। जब यह संतुलन बिगड़ जाए तो स्वाभाविक है कि जैविक समीकरण भी सलामत नहीं रहता। इससे प्रकृति का चक्र भी प्रभावित होता है जो अनेक प्रकार के विनाशों का कारण बनता है। बस यही है प्रदूषण।

प्रदूषण सबसे पहले हमारे मन-मस्तिष्क में प्रवेश कर हमारी चेतना को बंदी बनाता है। जब मस्तिष्क आत्म केंद्रित और स्वार्थी होकर केवल निज सुख का ही चिंतन करता है तो वहीं से आरंभ होता है प्रदूषण।  हम लेना तो सब कुछ चाहते हैं लेकिन कुछ भी देने की सोच नहीं रखते। जबकि पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रकृति से सामंजस्य आवश्यक है। हमारे ज्ञान के स्रोत वेदों में इन दोनों तत्वों की चर्चा है जिसके अनुसार हमें प्रकृति से उतना ग्रहण करने का अधिकार जिससे प्रकृति की पूर्णता को क्षति न पहुंचे। परिवारों में माँ-दादी-नानी इसी भाव से तुलसी की पत्तियां तोड़ती थी।

प्राचीन भारतीय वाङ्मय-वैदिक-साहित्य ,पुराणों, धर्मशास्त्रों, रामायण, महाभारत, संस्कृत -साहित्य के अन्यान्य ग्रन्थों, पालि-प्राकृत साहित्य आदि की छानबीन करने पर पुरातन भारत की अरण्य-संस्कृति के मनोहर स्वरूप का साक्षात्कार होता है।

कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में अनेक रमणीय उद्यानों का संकेत मिलता है। ‘अग्निपुराण’ में कहा गया है कि जो मनुष्य एक भी वृक्ष की स्थापना करता है, वह तीस हज़ार इन्द्रों के काल तक स्वर्ग में बसता है । जितने ही वृक्षों का रोपण करता है, अपने पहले और पीछे की उतनी ही पीढ़ियों को वह तार देता है । ‘मत्स्यपुराण’ में वृक्ष-महिमा प्रसंग में कहा गया है कि दस कुओं के समान एक बावड़ी, दस बावड़ियों के समान एक एक तालाब, दस तालाबों के समान एक पुत्र का महत्त्व है जबकि दस पुत्रों के समान महत्त्व एक वृक्ष का अकेले है।

पर्यावरण और जीवन का एक-दूसरे से घनिष्ठ संबंध है कि पर्यावरण के बिना जीवन नहीं हो सकता और जीवन के बिना पर्यावरण नहीं हो सकता। भारतीयता का अर्थ ही है-हरी-भरी वसुंधरा और उसमें लहलहाते फूल, गरजते बादल, नाचते मोर और कल-कल बहती नदियां। यहां तक कि भारतीय संस्कृति में वृक्षों और लताओं का देव-तुल्य माना गया है। जहां अनादिकाल से इस प्रार्थना की गूंज होती रही है- ‘हे पृथ्वी माता तुम्हारे वन हमें आनंद और उत्साह से भर दें।’ पेड़-पौधों को सजीव और जीवंत मानने का प्रमाण भारतीय वाङ्मय में विद्यमान है।

वेदों में पर्यावरण को अनेक तरह से बताया गया है, जैसे- जल, वायु, ध्वनि, वर्षा, खाद्य, मिट्टी, वनस्पति, वनसंपदा, पशु-पक्षी आदि। जीवित प्राणी के लिए वायु अत्यंत आवश्यक है। प्राणी जगत के लिए संपूर्ण पृथ्वी के चारों ओर वायु का सागर फैला हुआ है। 

ऋग्वेद में वायु के गुण बताते हुए कहा गया है- ‘वात आ वातु भेषजं मयोभु नो हृदे, प्रण आयूंषि तारिषत’ शुद्ध ताजा वायु अमूल्य औषधि है, जो हमारे हृदय के लिए दवा के समान उपयोगी है, आनंददायक है। वह उसे प्राप्त कर हमारी आयु को बढ़ाता है। वृक्षों से ही हमें खाद्य सामग्री प्राप्त होती है, जैसे फल, सब्जियां, अन्न तथा इसके अलावा औषधियां भी प्राप्त होती हैं और यह सब सामग्री पृथ्वी पर ही हमें प्राप्त होती हैं। 

अथर्ववेद में कहा है- ‘भोजन और स्वास्थ्य देने वाली सभी वनस्पतियां इस भूमि पर ही उत्पन्न होती हैं। पृथ्वी सभी वनस्पतियों की माता और मेघ पिता हैं, क्योंकि वर्षा के रूप में पानी बहाकर यह पृथ्वी में गर्भाधान करता है। वेदों में इसी तरह पर्यावरण का स्वरूप तथा स्थिति बताई गई है और यह भी बताया गया है कि प्रकृति और पुरुष का संबंध एक-दूसरे पर आधारित होता है।

नीम-पीपल आदि वृक्षों को घर-आँगन या आसपास लगाना हमारी परम्परा का विस्तार  है। वृक्ष हमारे जीवन में रचे-बसे हैं इसीलिए तो हमारी लोक-गाथाओं, लोकगीतों में  शुद्ध सुगंध शीतल समीर, खुला आकाश, निर्मल जलधारा को पर्याप्त सम्मान प्राप्त है।  पीपल जैसे पर्यावरण-रक्षक वृक्ष के महत्व की चर्चा जन-जन के हृदय में है। गौतम बुद्ध के ज्ञान का साक्षी यही बोधिवृक्ष रहा है तो विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘गीता’ में श्री कृष्ण विराट रूप दिखाते हुए कहते हैं,  ‘अश्वत्थः सर्ववृक्षाणाम्’ अर्थात् हे अर्जुन! मैं वृक्षों में पीपल हूँ। 

हमारे समाज में पेड़ों को देवताओं के प्रतीक रूप में पूजा-अर्चना तथा सुरक्षा की लोक परम्परा हैं, जैसे तुलसी विष्णुप्रिया है, केला वृहस्पति का रूप है, बरगद शिव का निवास है, नीम देवी का वास है, पीपल विष्णु का प्रतिरूप है। जैन तेरापन्थ’ में तो गुरुदीक्षा के नियमों में से एक है, ‘हरे पेड़ को न काटना। 

पृथ्वी, नदियों-सरोवरों, आकाश, वायु आदि को देवत्व प्रदान कर, धरती व नदियों को माता और आकाश को पिता के रूप में अंगीकार कर भारतीय मनीषा ने जलवायु को प्रदूषण-मुक्त रखने के भाव को भी अमूर्त्त प्रेरणा दी है। वैदिक युग के तैंतीस देवता प्राकृतिक शक्तियों का ही प्रतिनिधित्व करते हैं । ऋग्वेद का ‘अप् सूक्त’ और अथर्ववेद का ‘भूमिसूक्त’ क्रमशः जल व ज़मीन पर लिखी विश्व की सम्भवतः प्रथम कविता है। 

पेड़ों की अन्धाधुन्ध कटाई रोकने हेतु देशी तरीके से जन-संघर्ष का यहाँ शानदार इतिहास रहा है । ऐसा कौन जागरूक भारतीय हो सकता है जिसे 1731 की राजस्थान की इस घटना की जानकारी न हो। जोधपुर के समीप स्थित खेजड़ीली गाँव में, खेजड़ी वृक्ष को बचाने के लिए बिश्नोई समूह के 363 नर-नारियों ने अपने प्राणों की बलि दे दी । पेड़ों से चिपक कर उन्होंने उन्हें काटने का विरोध किया। बेशक उस समय अत्याचारी राजा के आदेश पर कुल्हाड़ियों ने उनके प्रतिं बेरहमी दिखाई लेकिन उनका बलिदान व्यर्थ न गया। बाद में कटाई रोक दी गयी थी।

 टिहरी-गढ़वाल का ‘चिपको आन्दोलन जिसके प्रणेता सुन्दरलाल बहुगुणा रहे हैं,  स्वतन्त्र भारत में पेड़ों को बचाने में सफल एवं ऐतिहासिक आन्दोलन था। इसी प्रकार से जल संचय और जल संरक्षण के लिए भी अनेक प्रयास होते हैं। जल पुरुष रूप के नाम से सुविख्यात राजेन्द्र सिंह जी जल बिरादरी के माध्यम से नदियों की निर्मलता और निरन्तरता के लिए अभियान चलाये हुए हैं। उनके प्रयासों की सफलता राजस्थान, गुजरात में अनुभव की जा रही है जहाँ विलुप्त प्राय नदियों को उन्होंने जन चेतना के माध्यम से जीवित करने में सफलता प्राप्त की है।

प्राकृतिक तन्त्रों का संरक्षण और उनके बीच सन्तुलन स्थापित रखने का आशय यह है कि उनका उपयोग इस तरह हो, जिससे उनके मूल रूप में कम-से-कम परिवर्तन हो, जिस से आसान पुनःचक्रण (रि-साइकलिंग) द्वारा आसानी से उनकी क्षति-पूर्त्ति होती रहे और प्राकृतिक संसाधन यथासम्भव अपने मूल रूप में सुरक्षित रहें। यह तब संभव है, जब हम लालच से रहित होकर प्रकृति की उदारता का उपयोग करें,उपभोग नहीं। इसकी प्रेरणा ‘ईशावास्योपनिषद्‘ का प्रथम मन्त्र दे रहा है ‘इस संसार में जो कुछ है, वह सब ईश्वर से व्याप्त या ईश्वर का आवास है, इसलिए उन का उपभोग करना हो तो बिना उन में आसक्ति रखे, त्याग-भाव से उपभोग करें, कारण यह धन है किस का? अर्थात् किसी एक का तो है नहीं।

भारत भूमि में जन्म हमारा सौभाग्य है जहाँ ऋृषियों ने हमें जीवन-दृष्टि दी। पर्यावरण के हर अंग की स्वच्छता तथा सबके बीच सौमनस्य बनाए रखने के लिए सदा सचेष्ट रहने वाली मानसिकता से ही कभी मन्त्र रूपी शांतिपाठ सृजित हुआ होगा, जो सदियों से हमारी नित्य-प्रार्थना का अंग है।

ऋचाओं में पर्यावरण के तत्वों – पृथ्वी, जल, आकाश, वायु के प्रति सभी ऋषि नत्मस्तक होकर प्रणाम करते हैं अर्थात् भारत में नदियों को माँ तुल्य स्थान एवं सम्मान दिया गया है। वृक्षों के प्रति हमारे पूर्वजों की श्रद्धा सर्वविदित है। पीपल, तुलसी ही नहीं हर वृक्ष में प्राण है, यह अवधारणा सर्वप्रथम हमने ही विश्व को दी और संयोग से इसे अपने वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध करने वाले जगदीश चन्द बसु भी हमारे ही थे। 

अन्त में उस प्राचीन परम्परा का उल्लेख करना समीचीन होगा जो कुछ क्षेत्रों में आज भी जीवान्त है।  गाँव में जब भी कोई नया कुआँ बनता था, तो तब तक उसका उपयोग शुरु नहीं होता था, जब तक किसी बरगद-तरु के साथ उसके ब्याह की रस्म पूरी नहीं कर दी जाती थी। इसे अन्धविश्वास घोषित करने वाले नहीं समझ सकते कि इस लोकाचार में पर्यावरण के प्रति हमारी सांस्कृतिक चेतना की प्रतिबद्धता है जो वनस्पति और जल के परस्पर सकारात्मक सम्बन्धों की साकार अभिव्यक्ति है। तथाकथित विकासवादी शायद नहीं जानते हो कि इस मान्यता को आज के पर्यावरणविद भी सराहते हैं। उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में प्रचलित यह सोहाग-गीत वृक्षों संग जन-मन का अटूट रिश्ता की झलकक प्रस्तुत करता है जिसमें विदा होेती बेटी कहती है, ‘बाबा! नीम का पेड़ मत काटना, उस में चिड़ियाँ बसती हैं।’ पेड़ को मायके का प्रतीक मानते हुए बेटी संकेत में कह रही है कि उसे दूर देश भेज तो रहे पर बुलाना मत भूलना, अन्यथा यह देश छूट जाएगा।

आज हम सभी को अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या हमने अपनी अगली पीढ़ियों को पर्यावरण चेतना के इन सूत्रों से परिचित करवाया? क्या हमने अपने और अपने प्रियजनों के जन्म दिवस पर वृक्षारोपण की परंपरा को आत्मसात किया? आधुनिकता के नाम पर पत्थरों के शहर तो हमने अनेकानेक बना डालें, लेकिन उनमें रहने वाले उन पत्थरदिलों को प्राण वायु कहां से मिलेगी, जो दस कदम चलने के लिए भी वाहनों के धुएं से अपने ही परिवेश को दूषित करते हैं? आवश्यक है अपने और अपनो के मन मस्तिष्क को उस मानसिक प्रदूषण से मुक्त करें जो भारतीय संस्कृति में निहित श्रेष्ठ जीवन दर्शन को अवैज्ञानिक और पिछड़ापन कहकर नकारते हैं।

डा. विनोद बब्बर 

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