
कोई भी आतंकी हमला कहीं भी हुआ हो, सिंध में, बलूचिस्तान में, पख्तूनख्वाह में या पंजाब में, उसका सारा दोष भारत के मत्थे मढ़ दिया जाता था। नेता नहीं मढ़ते थे तो फौज मढ़ देती थी लेकिन अब दोनों का रवैया काफी जिम्मेदाराना दिखाई पड़ रहा है। इस हमले में तीनों बलूच आतंकवादी मारे गए। इस हमले का मुकाबला करने में पुलिस के दो जवान भी शहीद हुए लेकिन महिला पुलिस अफसर सुहाई अजीज तालपुर की बहादुरी तारीफ के लायक है। फिदायीन मजीद ब्रिगेड के आतंकियों का कहना है कि वे चीन की रेशम महापथ (ओबोर) की योजना के बिल्कुल खिलाफ हैं, क्योंकि यह सिंक्यांग से ग्वादर के बंदरगाह तक जो सड़क बन रही है, यह बलूचों को इस्लामाबाद का गुलाम बना देगी। यह आजाद बलूचिस्तान की कब्रगाह बन जाएगी। बलूचिस्तान पर यह चीन का शिकंजा कस देगी। भारत भी चीनी रेशम महापथ का समर्थन नहीं करता है लेकिन उसका कारण यह है कि वह पाकिस्तान कब्जे के कश्मीर में से होकर जाता है। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि भारत ने इस मतभेद के बावजूद इस हमले की भर्त्सना की है। भारत किसी भी प्रकार के आतंकवाद और हिंसा के खिलाफ है। क्या पाकिस्तान की सरकारें भी इसी नीति को नहीं अपना सकतीं ? इधर जबकि चीनी दूतावास पर बलूच हमला हो रहा था, उधर चीन में भारत के सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल और चीनी नेता सीमा-समस्या को सुलझाने के लिए द्विपक्षीय वार्ता का 21 वां दौर चला रहे थे। यह शुभ-संयोग है कि इस मौके पर इन तीनों पड़ौसी देशों के बीच कोई तू-तू–मैं-मैं नहीं हुई। डेरा बाबा नानक से करतारपुर तक नानक बरामदे का भी उद्घाटन हो रहा है। क्या ही अच्छा हो कि इन तीनों देशों के बीच यह रचनात्मक प्रवृत्ति बढ़ती चली जाए ! पाकिस्तान की संकटपूर्ण आर्थिक स्थिति में चीन का प्रभाव वहां दिनों-दिन बढ़ता चला जा रहा है। चीन चाहे तो भारत-चीन सीमा के साथ-साथ कश्मीर की समस्या को सुलझाने में भी रचनात्मक भूमिका अदा कर सकता है।