(महासमर का तीसरा दिन)
महासमर के तीसरे दिन पितामह गरुड़ व्यूह की रचना के साथ और हम अर्द्धचन्द्राकार व्यूह के साथ कुरुक्षेत्र में थे। गत रात्रि युद्ध-बैठक में मुझपर पितामह और गुरु द्रोण के साथ मृदुयुद्ध करने का आरोप लगाया गया। आरोप लगाने वाले भ्राता भीम या अग्रज युधिष्ठिर नहीं थे। वे थे मेरे परम सखा और मार्गदर्शक मेरे अपने श्रीकृष्ण।
मैं विवश था। मेरा मोह नष्ट करने के लिए श्रीकृष्ण ने गीता के अट्ठारह अध्याय सुनाए थे, अपना विराट स्वरूप भी दिखाया था। मेरी बुद्धि स्थिर हुई थी, कर्त्तव्य का भान हुआ था। मैं युद्ध के लिए तैयार हुआ था और युद्ध कर भी रहा था। लेकिन क्या मैं पूर्णरूपेण मोहमुक्त हो पाया था? संभवतः नहीं। मेरे हृदय का कोई कोना अब भी मोहग्रस्त था। जब भी युद्धभूमि में पितामह और गुरु द्रोण सामने आते, सुप्त मोह की निद्रा भंग हो जाती। मैं चाहकर भी उनपर कठोर प्रहार नहीं कर पाता था। मैं उनके आक्रमण को रोक देता था, छिन्न-भिन्न कर देता था लेकिन प्राणघातक प्रहार की कल्पना भी नहीं कर सकता था। मैं अपने युद्ध-कौशल से उन्हें भ्रमित कर दूसरी ओर बढ़ जाता था। कई बार उनपर निर्णायक प्रहार करने की स्थितियां प्राप्त हुईं लेकिन मैंने उनका सदुपयोग नहीं किया। यह मेरी विवशता थी या दुर्बलता, मैं निर्धारित नहीं कर पा रहा था। श्रीकृष्ण मेरे सारथि थे। उनकी पैनी दृष्टि से ये मनोभाव कबतक छिपते? उन्होंने मुझे उलाहना दी –
“पार्थ! शत्रुओं के प्रति यदि कोमल भाव रखकर तुम इसी तरह युद्ध करते रहे तो निश्चित मानो कि यह महासमर कुछ ही दिनों में समाप्त हो जाएगा और तुम्हारे पक्ष को पराजय का सामना करना पड़ेगा। उस पराजय के साक्षी रहेंगे सिर्फ मैं और तुम। भीष्म रोष और अमर्ष में भरकर नित्य ही तुम्हारी एक अक्षौहिणी सेना का संहार करते हैं। उनके मन में तो कभी तुम्हारे लिए कोमल भाव नहीं आते। महारथी श्वेत उनकी बराबरी का योद्धा नहीं था। वह किशोर पहली बार युद्धभूमि में आया था लेकिन उन्होंने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर उसका वध किया। तुमने अबतक कितने दिव्यास्त्रों का प्रयोग किया है? युद्धभूमि में पूरी क्षमता से युद्ध किया जाता है – प्रदर्शन नहीं। विजय के लिए रणकौशल का व्यवहारिक उपयोग आवश्यक है। तुम्हारा लक्ष्य शत्रुओं का वध कर निर्णायक विजय प्राप्त करना है, न कि उन्हें घायल कर छोड़ देना। तुम लोगों की पराजय का अर्थ है – सत्य की पराजय, धर्म की पराजय, न्याय की पराजय। मैं इसे सहन नहीं कर सकता। कही विवश होकर मुझे ही शस्त्र धारण न करना पड़े। मेरी प्रतिज्ञा भंग के उत्तरदायी तुम होगे।”
युद्ध आरंभ होने के पूर्व श्रीकृष्ण के चरणों में मैंने अपना प्रणाम निवेदित किया। उन्हें आश्वस्त किया कि मैं पूरी क्षमता और प्राणपण से युद्ध करूंगा। उन्हें असंतुष्टि का कोई अवसर प्रदान नहीं करूंगा।
युद्ध के आरंभ में ही मैंने कौरव सेना के पैर उखाड़ दिए। मेरे प्रहार से लक्ष-लक्ष सैनिक हताहत हुए और बची सेना विषाद और भय से कांपती हुई पलायन करने लगी। आचार्य द्रोण और पितामह ने उन्हें रोकने की पूरी चेष्टा की, पर वे असफल रहे। तिलमिलाता हुआ दुर्योधन पितामह के पास पहुंचा। उसके संयम का बांध टूट चुका था। ऊंचे स्वर में लगभग चिल्लाता हुआ बोला –
“पितामह! आप और द्रोण के जीवित रहते हमारी सेना का इस तरह पलायन करना लज्जा की बात है। कोई भी पाण्डव आप दोनों की समता नहीं कर सकता। लेकिन समस्या यह है कि युद्ध करते समय भी आप उनपर कृपादृष्टि रखते हैं। मेरी सेना मारी जा रही है और आप हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। आप ही के कारण आज कर्ण युद्ध से विरत है और दर्शक की भूमिका निभाने के लिए वाध्य है। आप कृपाकर अपने यश और पराक्रम के अनुसार युद्ध करें।”
दुर्योधन की इस ललकार का पितामह पर स्पष्ट प्रभाव पड़ा। क्रोध से उनका मुखमण्डल आरक्त हो उठा। हमारी सेना पर विषधर सर्पों की भांति बाण-वर्षा करने लगे। वृद्धावस्था में भी उनकी चपलता देखते बनती थी। जिन लोगों ने उन्हें पूरब में देखा, उन्हीं लोगों ने उन्हें पलक झपकते पश्चिम में देखा। एक ही क्षण में वे उत्तर और दक्खिन में दिखाई पड़े। युद्धभूमि में हजारों रूपों में वे ही दिखाई पड़ रहे थे। उनके असंख्य बाणों के प्रहार से सर्वत्र हाहाकार मच गया।
श्रीकृष्ण से हमारी सेना की दुर्दशा देखी नहीं गई। रथ रोककर मुझे संबोधित किया –
“हे सव्यसाची! तुम्हारा बहुत दिनों से अभिलषित समय सामने उपस्थित है। शक्तिशाली और निर्णायक प्रहार करो, नहीं तो मोहवश प्राणों से हाथ धो बैठोगे।”
“:ऐसा ही होगा केशव! मेरे रथ को पितामह के सम्मुख ले चलिए।” मैंने कहा।
मेरा रथ पितामह की ओर सरपट दौड़ रहा था। सेना में उत्साह का संचार हुआ। भागती हुई सेना लौट आई। पितामह के पास पहुंचते ही मैंने तीन अचूक बाणों से उनके धनुष की प्रत्यंचा काट डाली। उन्होंने दूसरा धनुष उठया, मैंने उसकी भी प्रत्यंचा काट डाली। मेरे बाण एक-एक कर उनके शरीर को बींधने लगे। मेरी योजना को द्रोणाचार्य ने विफल कर दिया। पलक झपकते उनके चारो ओर विकर्ण, जयद्रथ, भूरिश्रवा, कृतवर्मा, कृपाचार्य आदि महारथियों ने सुरक्षात्मक घेरा बना लिया। पितामह मेरी पहुंच से बाहर हो गए। उनकी आज्ञा ले द्रोणाचार्य समेत सभी महारथी मुझ पर एकसाथ टूट पड़े। सात्यकि मेरी सहायता के लिए आ चुके थे। हम दोनों ने मुहतोड़ प्रत्युत्तर दिया। पितामह ने इस बीच स्वयं को स्थिर किया और पुनः अग्रभाग में आकर बाणों की बौछार करना आरंभ कर दिया। मैं पन्द्रह महारथियों का एकसाथ सामना कर रहा था। श्रीकृष्ण की दृष्टि में मैं कुछ हल्का पड़ रहा था। वे इसे सहन कैसे कर सकते थे?
उन्होंने वल्गाएं छोड़ दी, रथ से कूद पड़े। रणभूमि में पड़े एक रथचक्र को उठाकर दोनों हथेलियों पर आवेश से घुमाया। रथचक्र सुदर्शन चक्र का रूप ले चुका था। उसकी चमक से पूरा युद्धक्षेत्र विद्युतकान्ति से भर गया। सबकी आंखें चौंधिया गईं। युद्ध रुक गया। वे पितामह की ओर अग्रसर हुए, सुदर्शन चक्र प्रक्षेपित करने ही वाले थे कि मैं छलांग लगाकर उनके चरणों से लिपट गया। मैंने प्रार्थना की –
“:हे अच्युत! हे केशव! मत चलाइये इस चक्र को। प्रतिज्ञा भंग के दोषी मत बनिए। अपना क्रोध शान्त कीजिए। मैं अपने सभी भ्राताओं और पुत्रों की शपथ खाकर कहता हूं कि अपने कर्त्तव्य में किसी प्रकार की शिथिलता नहीं आने दूंगा, प्रतिज्ञा के अनुसार पूर्ण क्षमता से युद्ध करूंगा।”
श्रीकृष्ण मेरे रथ पर लौट आए। उधर पितामह रथ से उतर, हाथ जोड़कर मुस्कुरा रहे थे।
तृतीय दिवस के युद्ध के अन्तिम चरण के लिए हमने पुनः शंख फूंके। मैं और पितामह फिर आमने-सामने थे। भूरिश्रवा, दुर्योधन, शल्य और पितामह ने मुझपर एकसाथ आक्रमण किया। गाण्डीव की प्रत्यंचा कान तक खींचकर मैंने महेन्द्रास्त्र प्रक्षेपित किया। शत्रु पक्ष के सैनिकों की गति अवरुद्ध हो गई। उसके भयानक और संहारक प्रहार से शत्रुओं में कोलाहल मच गया। पितामह और द्रोण कुछ संभलते, इसके पूर्व मैंने ऐन्द्रास्त्र का प्रयोग किया। उसका प्रहार सबके लिए असह्य था। सारी दिशाएं, उपदिशाएं बाणों से आच्छादित हो गईं। रक्त की नदी बहने लगी। कौरव पक्ष के प्रमुख वीर काल के गाल में समाने लगे। मैं युद्ध को उसी दिन समाप्त कर देना चाहता था लेकिन सूर्यदेव ने अवसर छीन लिया। वे मुस्कुराते हुए अपनी किरणें समेटने लगे।
तीसरे दिन का युद्ध समाप्त हुआ। श्रीकृष्ण प्रसन्न थे।
क्रमशः