कोश  परम्परा : सिंहावलोकन

डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री,

0.0  मानव सभ्यता के विकास में भाषा का विशेष स्थान है और भाषा के विकास में कोशों का विशेष स्थान है । कोश परंपरा का सिंहावलोकन करते हुए हिंदी से संबंधित कुछ कोशों का संक्षिप्त इतिहास यहाँ प्रस्तुत है ।

 

0 .1  कोश बनाम कोष :

सबसे पहले इस शब्द की वर्तनी (spelling ) और परिभाषा पर विचार कर लें ।  यह शब्द मूलतः संस्कृत का है ।  स्थूल रूप से संस्कृत के दो भेद किए जाते हैं – वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत ।  वैदिक संस्कृत का प्राचीनतम ग्रन्थ है ऋग्वेद ।  उसमें “ कोष “ शब्द का प्रयोग तो हुआ है, पर वहां इसका अर्थ नितांत भिन्न है ।  लौकिक संस्कृत में  ” कोष ” और ” कोश ” दोनों शब्दों का प्रयोग मिलता है ।  व्युत्पत्ति की दृष्टि से ” कोश ” में ” कुश ” धातु है जिसका अर्थ है मिलना (कुश संश्लेषणे) ;  जबकि ” कोष ” में  ” कुष् ” धातु है जिसका अर्थ है खींचना , निकालना (कुष् निष्कर्षे) ।  प्रयोग की दृष्टि से देखें तो संस्कृत साहित्य में दोनों का अनेक अर्थों में, पर्यायवाची के समान प्रयोग होता रहा है ;  जैसे, म्यान , कलिका,  शरीर,  भण्डार,  शब्द भण्डार,  पुस्तकागार, रेशम का कोया, मधुपात्र आदि ।  आधुनिक विद्वान अंग्रेजी के शब्द  Dictionary  के  लिए ” कोश ” का, और ” Treasure ” ( खजाने) के लिए ” कोष ” का प्रयोग करते हैं ।

 

0.2  ” कोश ” की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि यह शब्दों का ऐसा संग्रह है जिसमें संगृहीत शब्दों के सम्बन्ध में जानने योग्य कुछ बातें एकत्र की गई हों अर्थात जिस संग्रह में शब्द के अर्थ , पर्याय, व्याख्या, उदाहरण आदि हों ( देखिए, हिंदी विश्व कोश , पृष्ठ 221 ) ।

 

1.0 . कोश का उद्गम और विकास :

हमारा देश ज्ञान – विज्ञान के हर क्षेत्र में विश्व का शिरोमणि देश रहा है ।  वेद और वैदिक साहित्य के रूप में ज्ञान के सूर्य का उदय यहीं हुआ और यहीं से उसका प्रकाश पूरे  विश्व में फैला ।  कोश विज्ञान का विकास भी भारत में ही हुआ । सुप्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक डा. भोलानाथ तिवारी ने लिखा है, ” भाषाविज्ञान की अन्य शाखाओं की भांति ही कोश निर्माण भी सबसे पहले अपने प्रारम्भिक रूप में भारतवर्ष में विकसित हुआ (शब्दों का जीवन, पृ. 59 ) । .”

 

1.1   वैदिक संस्कृत कोश परम्परा :

आज विश्व में प्राचीनतम उपलब्ध कोश संस्कृत का ” निघंटु ” है जिसमें वेद के कतिपय कठिन शब्दों की विवेचना की गई है । कहा जाता है कि पहले ऐसे कई निघंटु बने थे, पर आज केवल एक ही निघंटु उपलब्ध है जिसमें पांच अध्याय हैं । इनमें 1768 वैदिक पद संग्रहीत हैं ।  अध्याय 1 से 3  में पृथ्वी, हिरण्य, मेघ , मनुष्य , अन्न , धन , गो , बहु , ह्रस्व , प्रज्ञा,  यज्ञ  आदि से संबंधित 69 समानार्थक शब्दों का संकलन है ।  अध्याय 4 में 279 कठिन पदों की व्याख्या की गई है ।  अध्याय 5 में देवतावाचक 151 शब्द संग्रहीत हैं ।  आधुनिक विद्वान इसका रचनाकाल ईसा से लगभग एक हज़ार वर्ष पूर्व मानते हैं, जबकि यूरोप में कोश संकलन का कार्य इसके लगभग दो हज़ार साल बाद (अर्थात ईसा के लगभग एक हजार साल बाद) शुरू हुआ ।  निघंटु के रचयिता का नाम आज ज्ञात नहीं है ।  कुछ विद्वान इसे अनेक विद्वानों की रचना मानते हैं तो कुछ विद्वान महर्षि यास्क को ” निघंटु ” का रचयिता मानते हैं ।

 

यों महर्षि यास्क के नाम से एक दूसरा ग्रन्थ अधिक प्रसिद्ध है जिसे “ निरुक्त “ कहते हैं ।   यास्क के निरुक्त में इस विषय की चर्चा की गई है कि किसी शब्द का जो अर्थ निश्चित हुआ है, वही क्यों है ।  यह कारण खोजना ही उस शब्द की निरुक्ति या निर्वचन है, और निरुक्ति से संबंधित शास्त्र निरुक्त है ।  संस्कृत के शब्दों के सम्बन्ध में यह मान्यता है कि सभी शब्दों के मूल में कोई न कोई ” धातु ” है । यह सिद्धांत महर्षि यास्क ने ही प्रतिपादित किया था ।  अपने निरुक्त में उन्होंने शब्दों की व्युत्पत्ति धातुओं से दिखाकर उक्त सिद्धांत को पुष्ट किया है ।  विभिन्न स्रोतों से यह जानकारी मिलती है कि उस युग में अनेक प्रकार के निघंटु और निरुक्त बने । यास्क ने स्वयं अपने पूर्ववर्ती 12 निरुक्तकारों (आग्रायण, औपमन्यव, और्णवाभ, गार्ग्य, गालव, वार्ष्यायणि, शाकपूणि आदि ) के मतों का यथास्थान उल्लेख किया है ।    निरुक्त के टीकाकार दुर्गाचार्य ने भी 14 निरुक्तकारों की चर्चा की है, पर उनके ग्रन्थ अब उपलब्ध नहीं हैं ।  हाँ, ” आयुर्वेद ” से संबंधित कुछ निघंटु मिले हैं जिनमें चिकित्सा शास्त्र से संबंधित शब्दों की विवेचना हुई है ।

 

1.2  लौकिक संस्कृत कोश परम्परा :

लौकिक संस्कृत से संबंधित कोशों का इतिहास भी लगभग दो हज़ार वर्ष पुराना है ।  इस अवधि में व्यादि, भागुरि, कात्य, वाचस्पति, पुरुषोत्तम देव, भट्ट हलायुध, यादव प्रकाश, महेश्वर, अजयपाल, तारपाल, धनञ्जय, रन्तिदेव, केशवस्वामी, मेदिनीकार, अप्पय दीक्षित, हेमचन्द्र आदि अनेक विद्वानों ने कोश बनाए, पर इनमें से अनेक कोश काल की भेंट हो गए ।  उपलब्ध कोशों में संस्कृत के विद्वान आज भी जिस कोश का विशेष सम्मान करते हैं, वह है अमर सिंह कृत ” अमर कोश ” जिसका रचनाकाल ईसा की चौथी शताब्दी माना जाता है ।  अमरकोश में पर्यायवाची  शब्दों का संकलन किया गया है ।  संस्कृत में शब्दों का लिंग निर्णय भी थोड़ा कठिन है ।  अमरकोश में नाम पदों के लिंग का भी निर्देश किया गया है ।  इसी कारण इसे ” नामलिंगानुशासन ” भी कहते हैं ।

 

संस्कृत के अनेक कोशों को “नाममाला ” कहते हैं क्योंकि उनमें ” नाम ” के पर्यायवाची दिए गए हैं ।  आप जानते ही हैं कि संस्कृत वैयाकरणों ने शब्दों का विभाजन चार वर्गों (Parts of Speech ) में किया है — नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात ।  संस्कृत में ऐसे कोश बनाए गए जिनमें केवल एक वर्ग से संबंधित शब्दों की विवेचना की गई या उपर्युक्त वर्गों के अनुसार शब्दों का संग्रह किया गया ।  आजकल के कोशों में वर्णक्रमानुसार ( Alphabetically ) शब्द संकलित किए जाते हैं, यह संस्कृत की ( और अंग्रेजी की भी ) प्राचीन परम्परा से भिन्न परम्परा  है ।  आधुनिक युग में आधुनिक ढंग से संस्कृत कोश जहाँ एक ओर विदेशी विद्वानों ने तैयार किए जिनमें डा. विल्सन ( 1819 ) तथा मोनियर  विलियम्स ( 1851 ) को विशेष प्रसिद्धि मिली ; वहीँ दूसरी ओर भारतीय विद्वानों ने भी  नई परिपाटी को अपनाया ।  इनमें राजा राधाकांत देव बहादुर के शब्दकल्पद्रुम ( 1873 ) , तर्कवाचस्पति तारानाथ भट्टाचार्य के वाचस्पत्यम (1873 ) , वामन शिवराम आप्टे के “ स्टुडेंट्स इंग्लिश – संस्कृत डिक्शनरी “ (1884)  एवं   “ द प्रैक्टिकल संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी “ (1890), और चतुर्वेदी द्वारकाप्रसाद शर्मा एवं पं. तारिणीश झा के “ संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ “(1928),   के कोशों का विशेष स्वागत हुआ ।

 

हिंदी कोशों पर संस्कृत कोशों की पुरानी परम्परा का तो काफी प्रभाव पड़ा ही,  साथ ही, अंग्रेजी कोशों ने भी अपना प्रभाव डाला है । अतः हिंदी कोशों की चर्चा करने से पहले अंग्रेजी कोशों के बारे में जान लेना उपयोगी होगा ।

 

2 .0  अंग्रेजी कोश परम्परा :

अंग्रेजी में कोश के लिए आज तो ” Dictionary ” शब्द का ही प्रयोग होता है जो लैटिन के डिक्शनरियम  ( Dictionarium ) और  डिक्शनरियस  ( Dictionarius )  से बना है ;  पर पहले गार्डन ऑफ़ वर्ड्स,  ट्रेज़री ऑफ़ वर्ड्स,  वंडर्स ऑफ़ वर्ड्स,  हैण्डफुल ऑफ़ वोकाबुलस,  द टेबिल अल्फाबेटिकल एक्सपोज़िटर आदि का प्रयोग होता था ।  सन 1623  में प्रकाशित हेनरी कोकेरन ने अपने ग्रन्थ का नाम रखा ” द इंग्लिश डिक्शनरी ” ( The English Dictionarie  or An  Interpreter of  Hard  English  Words )  ; इसके बाद कोश के लिए ” Dictionary  ” शब्द प्रचलित हो गया ( देखिए, एन्साइक्लोपीडिया  ब्रिटैनिका , खंड 5 , पन्द्रहवां संस्करण , 1974 ; पृष्ठ 715 ) ।   अंग्रेजी में ” Dictionary  ” की परिभाषा इस प्रकार दी गई है , ” A  Book explaining  or translating  usually in alphabetical  order , words of a language  or languages  giving their pronunciation , spelling ,  meaning , part of speech  and etymology , or one or more of these ( The  New  Shorter  Oxford English Dictionary  , Edited by  Lesley  Brown  ;  Clarendon press , Oxford ; 1993 ;  Vol . 1 , Page 666 )

 

अंग्रेजी में कोश बनाने की शुरुआत यों तो 16 वीं शताब्दी में हो गई थी, पर वास्तविक कोश 17 वीं शताब्दी में बना ।  कोश बनाने की शुरुआत दो तरह के लोगों ने की ।  एक ओर तो वे लोग थे जो अंग्रेजी की वर्तनी (spelling ) में सुधार करना चाहते थे ; जैसे, विलियम टिंडेल  ( William Tyndale – 1530 )  या जॉन हार्ट ( John Hart )  जिन्होंने  वर्तनी के क्षेत्र में फैली अराजकता से दुखी होकर 1569 में कहा कि ” disorders  and  confusions ”  of spelling were so great that  ” there can be made no perfite dictionarie nor grammer “. ( उस समय की अंग्रेजी की वर्तनी पर भी ध्यान दीजिए) ।  ऐसे लोगों ने अपने कोशों में अपने मतानुसार वर्तनी में संशोधन भी किए ।  दूसरी ओर थे स्कूल मास्टर जो  बच्चों के लिए शिक्षण सामग्री तैयार करना चाहते थे ; जैसे, रिचर्ड मुलकास्टर ( Richard Mulcaster – 1582 ) जिन्होंने बिना परिभाषा आदि के 8000 शब्दों की एक सूची ” द एलिमेंटरी ” ( The Elementarie ) नाम से बनाई ; या एडमंड कूटे   (Edmund Coote -1596 ) जिन्होंने व्युत्पत्ति बताते हुए 1400 शब्दों की सूची तैयार की ।  वस्तुतः इसी सूची के आधार पर आठ वर्ष बाद अंग्रेजी का पहला कोश रॉबर्ट काडरे ( Robert Cawdrey ) ने सन 1604 में बनाया जिसका नाम था ” A Table Alphabeticall  Conteyning and Teaching the True Writing and Understanding of Hard usuall English Words borrowed from Hebrew , Greeke , Latine or French ” और जिसमें लगभग ढाई हज़ार (2,449) शब्द थे । यह कोश वर्णानुक्रम से बनाया गया ।  इसमें भी वर्तनी तथा व्याकरण के दूसरे पक्षों पर विशेष बल था ।  शब्दों के माध्यम से उच्चारण बताने की शुरुआत नाथन बेली ( Nathan Bailey ) ने की ।  इन्होने 1721 में An Universal Etymological English Dictionary  तैयार की जिसमें लगभग 40,000  शब्द थे ।  यह कोश लगभग एक शताब्दी तक बहुत लोकप्रिय रहा ।  केवल उच्चारण के लिए इन्होंने इस कोश का एक पूरक खंड  (सप्लीमेंट) 1721 में ही पृथक से निकाला ।  इसके  बाद तो अलग  से उच्चारण कोश तैयार करने की मानों प्रथा ही  बन गई ।  जेम्स बुकानन ( James Buchanan – 1757 ) , विलियम केनरिक ( William Kenrick – 1773 )  , विलियम पैरी ( William Perry – 1775 ) , टॉमस शेरिदान ( Thomas Sheridan – 1780 ), जॉन वाकर   (John Walker 1791 ) आदि ने उच्चारण कोश तैयार किए ।

 

यह वह समय था जब इंग्लैण्ड  की समृद्धि बढ़ रही थी ।  ईस्ट इंडिया कंपनी सन 1600 में बन चुकी थी ।  अंग्रेजी भाषा भी उसके माध्यम से अन्य देशों में पहुँच रही थी ।  ऐसे समय में कोश और   साहित्य  की  आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए एक कोश तैयार करने की योजना कुछ लोगों ने मिलकर बनाई जिसे कार्यान्वित करने की जिम्मेदारी सुप्रसिद्ध साहित्यकार डा. सैमुअल जॉनसन (1709-1784) को सौंपी ।   जॉनसन ने लगभग नौ वर्ष तक परिश्रम करके जो कोश तैयार किया वह 1755 में ” A Dictionary of the English Language ” नाम से प्रकाशित हुआ ।  कोश बहुत लोकप्रिय हुआ और डा. जॉनसन के जीवनकाल में ही इसके चार संस्करण निकले ।  इसके प्रथम संस्करण में  डा. जॉनसन ने 42,773 शब्द और लगभग 1,14,000 उद्धरण   दिए थे ।  इसमें  शब्दों के अर्थ और प्रयोग समझाने के लिए उन्होंने जो परिश्रम किया उसके कुछ उदाहरण देखिए. “Time ” शब्द की 20 परिभाषाएं दी हैं और 14 उद्धरण दिए हैं ।  ” Put ” का प्रयोग 5,000 शब्दों के साथ बताया गया है ।  “Take ” जैसी क्रिया के सकर्मक रूप में 113, और अकर्मक रूप में 21 ( अर्थात कुल 134 ) अर्थ बताए हैं ।

 

आज अंग्रेजी के जो कोश विश्व में समादृत हैं, उनमें ऑक्सफोर्ड की कोश शृंखला का विशेष महत्व है । अब से लगभग दो सौ वर्ष पूर्व  हर्बर्ट क्राफ्ट ( Herbert Croft ) ने सन 1780 -90 में 200 खण्डों में शब्दावली प्रकाशित करने की योजना बनाई थी जिसका नाम “ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी ” होता ; पर वह योजना सफल नहीं हो पाई । ऑक्सफोर्ड का पहला कोश 1884 में प्रकाशित हुआ था, पर उसके नाम में ” ऑक्सफोर्ड ” शब्द का प्रयोग नहीं किया गया था ।  उसका नाम था, ”  A New English Dictionary on Historical Principles; Founded Mainly on the Materials Collected by The Philological Society. ” इसके बाद  1895  में जो कोश प्रकाशित हुआ उसके शीर्षक में “ ऑक्सफोर्ड “  का प्रयोग किया गया था  “The Oxford English Dictionary  ” ।  आज तो ऑक्सफोर्ड का नाम केवल शब्दकोश ही नहीं, सभी प्रकार के कोशों का पर्याय बन गया है । कैम्ब्रिज, लान्गमैंस आदि भी इस क्षेत्र में अच्छा कार्य कर रहे हैं ।  वेब्स्टर के कोशों की भी एक अच्छी शृंखला है ।  नोह वेब्स्टर ( Noah Webster ; 1758 – 1843 ) ने अमरीका की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए 70 वर्ष की आयु में दो खण्डों में एक कोश An American Dictionary of the English Language सन 1828 में प्रकाशित किया था जिसका संशोधित संस्करण भी उनके जीवनकाल में ही सन 1841 में प्रकाशित हुआ ।  आज वेब्स्टर, ऑक्सफोर्ड आदि प्रतिष्ठान कोश के क्षेत्र में अग्रणी कार्य कर रहे हैं ।  इन्होंने अपने कोशों को अद्यतन करने की स्थायी व्यवस्था की है ।  यही कारण है कि आज समाज की नवीनतम आवश्यकताओं की भी पूर्ति इनके कोश कर रहे हैं ।

 

3.0   हिंदी कोशों की परम्परा :

3.1 सामान्यतया अमीर खुसरो कृत ” खालिकबारी ” ( 1340 ) को हिंदी का पहला कोश  माना जाता है ।  इसकी कई प्रतियाँ मिली हैं जिनमें से अनेक फारसी लिपि में हैं, कुछ देवनागरी लिपि में हैं ।  देवनागरी लिपि में एक प्रति अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर में रखी है ।  खालिकबारी में संस्कृत कोशों की पर्यायवाची या अनेकार्थी शब्द  संग्रह की पद्धति एक भिन्न रूप में अपनाई गई है ।  इसमें हिंदी, फारसी, अरबी आदि के पर्याय शब्द दिए गए हैं ; जैसे, ” खरगोश, खरहा, वाशद, आदू , बूबाद , हिरना ” ।  अतः इसे द्विभाषी / त्रिभाषी  कोश भी कह सकते हैं ।  इसमें संस्कृत के तत्सम शब्द बहुत कम हैं ;  हिंदी और उसकी विभिन्न  बोलियों के तथा अरबी एवं फारसी के शब्द अधिक हैं ।  शब्दों में संज्ञा ही नहीं, क्रिया और अव्यय भी हैं ।  ग्रन्थ छंदबद्ध है, शब्दों के चयन का कोई निश्चित क्रम नहीं है ।

 

3.2   खालिकबारी के बाद लगभग पांच सौ वर्ष तक अनेक कोश बने जिनमें से अधिकांश के शीर्षक में ” नाममाला ” शब्द  है ; जैसे,  डिंगल नाममाला ( 1561 ),  अनेकार्थ नाममाला ( 1646 ), हमीर नाममाला ( 1717 ),  धनजी नाममाला ( 1820 ) आदि ।  प्रारम्भ के कोशों पर ” अमरकोश ” का प्रभाव है ।  सभी कोश पद्य में हैं ।   कुछ कोशों में उच्चारण और वर्तनी भी दी गई है ; जैसे, मिर्ज़ा खाँ कृत ” तुहतुफल “( 1665 ) ।  अधिकांश कोश एकाक्षरी,  अनेकार्थी या पर्यायवाची हैं ।  कुछ कोश वर्णक्रम से बनाए गए हैं ।

 

3.3  यूरोपीय जातियों के आने के बाद  ” नाममाला ” वाली परम्परा में परिवर्तन आया ।  यूरोपीय जातियों का जब इस देश में आना शुरू हुआ तो देश के काफी बड़े भाग पर मुगलों का शासन था जो इस्लाम के अनुयायी थे ।  इस मुग़ल वंश का संस्थापक बाबर (जन्म 1483 ई.; भारत में विजय 1526 ई., देहांत 1530 ई.) तुर्की था ।  भारत में मुस्लिम शासन की शुरुआत महमूद गज़नवी (997 ई.) से मानी जा सकती है जो मोहम्मद गौरी, कुतुबुद्दीन ऐबक, अल्तमिश, अलाउद्दीन खिलजी, मोहम्मद तुगलक, शेरशाह सूरी आदि से होता हुआ मुगलों के हाथ में आया ।  इस सारी अवधि में राजकाज में, विशेषरूप से जनसम्पर्क के कामों में देवनागरी लिपि और संस्कृत / हिंदी भाषा का पर्याप्त प्रयोग होता था क्योंकि ये शासक यह मानते थे कि जनता की भाषा का उपयोग  किए बिना शासन चलाना संभव नहीं ।

 

यों तो अकबर के समय तक यही स्थिति बनी रही, पर मुल्ला- मौलवी और  ” आफाकी ” मुसलमान ( जो अपने को ईराक, ईरान, और तुर्की से आया मानते थे ) राजकाज में भी अरबी भाषा के (जो उनकी धर्मभाषा थी क्योंकि कुरानशरीफ अरबी में है) और फारसी भाषा के ( जो मध्य एशिया की प्रतिष्ठित साहित्यिक भाषा थी) प्रयोग पर बल देते रहे । इसका परिणाम यह हुआ कि  अकबर के बाद जहाँगीर के समय से राजकाज में, और फलस्वरूप सामाजिक जीवन में भी अरबी – फारसी का प्रयोग बढ़ने लगा ।  यही वह समय था जब यूरोपीय लोग इस देश में आए ।  यूरोपीय लोगों ने भारत की भाषायी स्थिति कैसी पाई, उसका एक उदाहरण देते हुए एस. डब्ल्यू. फालेन (1817 – 1880 ) ने लिखा है कि दिल्ली की सडकों पर लगे अनेक पट्टे और तख़्त इस बात के साक्षी हैं कि सड़कों पर भी न्यायालयों और सरकारी कार्यालयों की भाषा फारसी और अरबी का एकछत्र राज्य है । ‘ लाल कुआं ‘  की जगह ” लाल चाह “,  ‘ बड़ा दरीबा ‘ की जगह ” दरीबा-ए-कलां “,  ‘ छोटा दरीबा ‘ की जगह ” दरीबा-ए-खुर्द ” , ‘ जूतेवाला ‘ की जगह ” जुफ्त फरोश ”, टोपी वाला की जगह “ कुला फरोश ”,  सुनार की जगह “ज़र्गर ” , दुनिया की जगह “ नहाफ़”  आदि का प्रयोग हो रहा है ।  अरबी – फारसी बहुल इसी भाषा को यूरोपीय लोगों ने ” हिन्दुस्तानी ” कहा ।

 

यूरोपीय जातियां इस देश में ईसाई धर्म का प्रचार करने और व्यापार के उद्देश्य से आई थीं ।  कालांतर में इन यूरोपीय लोगों ने शासन सत्ता  हथियाने का प्रयास किया, और इस प्रक्रिया में अंग्रेज़, फ्रांसीसी, पुर्तगाली, डच – सभी ने इस देश की ज़मीन पर आपस में युद्ध लड़े जिसमें अंततः विजयश्री अंग्रेजों के हाथ रही ।  धर्म प्रचार, व्यापार और शासन – तीनों ही कामों के लिए यहाँ की भाषा सीखना उनके लिए अनिवार्य था ।  कोश तैयार करना इसी प्रक्रिया की एक कड़ी थी ।

 

3.4  इन विदेशियों ने तीन तरह के कोश तैयार किए :

(क) अंग्रेजी – हिन्दुस्तानी कोश

(ख) हिन्दुस्तानी – अंग्रेजी कोश

(ग) हिन्दुस्तानी – हिन्दुस्तानी कोश

 

प्रत्येक वर्ग के कुछ कोश इस प्रकार हैं :

 

अंग्रेजी – हिन्दुस्तानी कोश :

3.4.1.1  जॉन जेशुआ केटलर डच ईस्ट इंडिया कंपनी में नौकर थे और 1667 में मुग़ल दरबार में डच प्रतिनिधि के रूप में आए ।  उन्होंने व्यावसायिक दृष्टि से डच लोगों को हिन्दुस्तानी सिखाने के लिए हिन्दुस्तानी व्याकरण और कोश तैयार किया ।  इसका वास्तविक रचनाकाल अज्ञात है ।  ग्रियर्सन ने इसका रचनाकाल 1715 माना है ।

 

3.4.1.2.  जे. फर्ग्युसन ईस्ट इंडिया कंपनी में कप्तान थे ।  भारत के अनेक प्रान्तों में रहे ।  इन्होने ईस्ट इंडिया कंपनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के सम्मुख कोश निर्माण की योजना रखकर कोश बनाने की स्वीकृति प्राप्त की ।  कोश की भूमिका में लिखा कि हिंदुस्तान के साथ व्यापारिक संबंध होने से ग्रेट ब्रिटेन को अपार लाभ है ।  इसके लिए हिन्दुस्तानी भाषा से परिचित होना आवश्यक है ।  इन्होने  1773 में “ ए डिक्शनरी ऑफ हिन्दुस्तानी लैंग्वेज इन टू पार्ट्स (1) इंग्लिश एंड हिन्दुस्तानी, (2) हिन्दुस्तानी एंड इंग्लिश में प्रकाशित की ।  पूरे कोश में रोमन लिपि का प्रयोग हुआ है ।

 

3.4.1.3  जॉन गिलक्राइस्ट ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में सन 1783 में असिस्टेंट सर्जन के पद पर, और अगस्त 1800 से फोर्ट विलियम कालेज, कलकत्ता में हिन्दुस्तानी विभाग के अध्यक्ष पद पर नियुक्त हुए ।  इन्होने ‘ ए डिक्शनरी ऑफ इंग्लिश एंड हिन्दुस्तानी “ (दो खण्ड ; 1787 – 1790) प्रकाशित की जिसमें अरबी, फारसी, के शब्द अधिक और संस्कृत के कम हैं।  कोश में तद्भव शब्दों पर अधिक ध्यान दिया गया है ।

 

3.4.2  हिन्दुस्तानी अंग्रेजी कोश :

3.4.2.1   जोसेफ टेलर की नियुक्ति फोर्ट विलियम कालेज में जॉन गिलक्राइस्ट के ही पद पर सन 1804 में की गई थी । इन्होने “ए डिक्शनरी ऑफ हिन्दुस्तानी – इंग्लिश” (1808) के नाम से प्रकाशित की ।  इसमें हिंदी और हिन्दुस्तानी में भेद किया गया है ।  संस्कृत शब्द देवनागरी लिपि में, और अरबी-फारसी शब्द फारसी लिपि में लिखे हैं ।  शब्द अकारादि क्रम से दिए हैं ।  कोश का उद्देश्य विदेशियों को हिंदी-हिन्दुस्तानी से परिचित कराना है ।

 

3.4.2.2  कैप्टेन विलियम प्राइस ने भी फोर्ट विलियम कालेज में हिन्दुस्तानी विभाग के अध्यक्ष पद पर कार्य किया ।  इनका मानना था कि हिंदी के शब्द मुख्य रूप से संस्कृत से और हिन्दुस्तानी के शब्द मुख्य रूप से अरबी-फारसी से लिए जाते हैं ।  इनके कार्यकाल में ही हिन्दुस्तानी विभाग को “ हिंदी विभाग “ कहा जाने लगा ।  प्राइस  ने सन 1814 में “ ए वोकेबुलरी ऑफ द खड़ी बोली एंड इंग्लिश प्रिंसिपल वर्ड्स “ तथा 1815  में “ ए वोकेबुलरी ऑफ द ब्रजभाषा एंड इंग्लिश प्रिंसिपल वर्ड्स ” प्रकाशित की ।

 

3.4.2.3 जॉन शेक्सपियर सन 1792 में हैलेबरी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कं. की मिलिटरी सेमिनरी में प्रोफ़ेसर नियुक्त हुए ।  इन्होने “भारत आने के इच्छुक अंग्रेजों को हिन्दुस्तानी की अनिवार्यता “ बताते हुए सन 1805 में हिन्दुस्तानी व्याकरण, 1817 में डिक्शनरी ऑफ हिन्दुस्तानी-इंग्लिश “ तथा 1845 में एन इंट्रोडक्शन टु द हिन्दुस्तानी ” प्रकाशित किया। कोश में रोमन, फारसी और देवनागरी लिपि का प्रयोग किया गया है तथा लगभग 70,000 शब्द उच्चारण सहित दिए हैं ।

 

3.4.2.4 डंकन फार्ब्स ने अपनी “ हिन्दुस्तानी-इंग्लिश डिक्शनरी “(1848) में पहले शब्द फारसी में, फिर रोमन में और तब देवनागरी में दिए हैं ।  व्याकरणिक संकेत भी दिए हैं । इन्होने हिंदी और उर्दू को हिन्दुस्तानी की दो बोलियां माना है और कहा है कि व्याकरण की दृष्टि से इनमें कोई भेद नहीं ।

 

3.4.2.5  एस डब्ल्यू फालेन बंगाल के शिक्षा विभाग में इन्स्पेक्टर थे । इन्होने 1879  में “ ए न्यु हिन्दुस्तानी इंग्लिश डिक्शनरी “ का संपादन किया ।  इन्होने कोश में साहित्य, लोकगीत, बोलचाल की भाषा – सभी के उदाहरण दिए हैं ।  शब्दों की व्युत्पत्ति देने का भी प्रयास किया है ।  देवनागरी, फारसी और रोमन  लिपियों में उच्चारण भी दिए हैं ।

 

 

फालेन ने दो और कोशों का भी संपादन किया ।  ये क़ानून से संबंधित थे ।  नाम था “ इंग्लिश हिन्दुस्तानी ला एंड कमर्शियल ” (1878), तथा दूसरा कोश था “ हिन्दुस्तानी-इंग्लिश ला एंड कमर्शियल डिक्शनरी”  (1879) ।  भूमिका में लिखा है कि ये कोश उन लोगों के लिए हैं जिन्हें अदालत से नित्य काम पड़ता है । इनमें कचहरियों में प्रयुक्त होने वाले अरबी-फारसी के वाक्यांशों के हिन्दी पर्याय भी दिए हैं ।

 

3.4.2.6  जे. टी. प्लाट्स ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में फारसी के अध्यापक भी रहे और मध्य भारत में स्कूल इन्स्पेक्टर भी रहे ।  वे बहु-भाषाविद थे ।  कंपनी के कर्मचारियों को सरल ढंग से हिन्दुस्तानी सिखाने के उद्देश्य से उन्होंने सन 1884 में एक कोश “ ए डिक्शनरी ऑफ उर्दू, क्लासिकल हिंदी एंड इंग्लिश “ नाम से दो खंडों में संपादित किया ।

 

3.4.3   हिन्दुस्तानी – हिन्दुस्तानी

इस प्रकार के कोश विदेशियों ने कम बनाए ।  जो बनाए उनमें  थाम्पसन ए एडम द्वारा 1829  में प्रकाशित  हिंदी कोश विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।  श्री एडम को लोग पादरी आदम के नाम से जानते थे ।  आदम साहब पहले व्यक्ति थे जिन्होंने आम जनता की बोलचाल के शब्द संकलित किए और उन्हें कोश में स्थान दिया ।  इनके कोश में लगभग 20,000 शब्द थे ।

 

3.5  एक ओर ये विदेशी लोग अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप कोश तैयार कर रहे थे, तो दूसरी ओर कतिपय भारतीय विद्वान भी अपनी दृष्टि से यह कार्य कर रहे थे ।  संस्कृत कोशों की एक दीर्घ एवं संपन्न परम्परा से ये परिचित थे ही ।  अंग्रेजी कोशों से परिचित होने के पश्चात कोश रचना का एक नया रूप भी इनके सामने आ चुका था जिसमें शब्दों की प्रस्तुति संज्ञा, विशेषण, क्रिया, आदि के बजाय अकारादिक्रम से की गई थी और शब्दों की व्युत्पत्ति, उच्चारण, व्याकरण, पर्याय, अनेकार्थ, बोलचाल तथा साहित्य – दोनों स्रोतों से शब्दों का संकलन, समासयुक्त शब्दों, मुहावरों आदि का समावेश किया गया था । अतः हिंदी में भी इस नई विधि से कोश तैयार होने लगे ।

 

3.5.1  हिंदी शब्दों का हिंदी ही में अर्थ बताने वाला पहला कोश राधेलाल माथुर ने सन 1873 में प्रकाशित किया था ।  इसमें 575  पृष्ठ थे ।  इसमें शब्दों की व्युत्पत्ति देने का भी प्रयास किया गया और व्याकरण संबंधी सूचनाएं भी दी गईं ।  शब्दों का प्रयोग स्पष्ट करने के लिए प्राचीन और नवीन साहित्य से उद्धरण भी दिए गए ।

 

 

3.5.2  भारतीयों द्वारा बनाए गए कोशों में कुछ कोश काफी लोकप्रिय हुए ।  सदासुख लाल का “कोश रत्नाकर “ (1876), मंगली लाल का “ मंगल कोश “(1877), देवदत्त तिवारी का “देव कोश” (1883), कैसर बक्षी मिर्ज़ा का “कैसर कोश” (1886), मधुसूदन पंडित का “मधुसूदन निघंटु”(1887), बाबा बैजूदास का “विवेक कोश” (1892), श्रीधर त्रिपाठी का “श्रीधर भाषा कोश” (1899), गौरी दत्त का “गौरी नागरी कोश”(1901) आदि विशेष प्रसिद्ध हुए ।  श्रीधर भाषा कोश तो अब से कुछ दशक पूर्व तक छपता रहा ।  अन्य कोशों में इलाहाबाद से प्रकाशित रमाशंकर शुक्ल ‘ रसाल ’ का “भाषा कोश”, इलाहाबाद से ही प्रकशित द्वारका प्रसाद चतुर्वेदी का “हिंदी शब्दार्थ पारिजात”, वाराणसी से प्रकाशित पं. लालधर त्रिपाठी का “प्रचारक हिंदी कोश”, अलीगढ़ से प्रकाशित “हीरा हिंदी कोश”, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा से प्रकाशित राहुल सांकृत्यायन का “संक्षिप्त राष्ट्रभाषा कोश”, दिल्ली से पाकेट बुक में छपा उदय नारायण तिवारी का “व्यावहारिक हिंदी कोश”, भी प्रसिद्ध हुए ।  उर्दू के प्रसिद्ध शायर और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक रघुपति सहाय ‘फ़िराक गोरखपुरी’ ने भी माध्यमिक कक्षाओं के विद्यार्थियों की दृष्टि से “ उपयोगी हिंदी कोश “ का संपादन किया ।

 

3.5.3  उपर्युक्त सभी कोश किसी एक व्यक्ति के बनाए हुए हैं ।  सन 1907 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने संस्थागत प्रयास करके “ हिंदी शब्द सागर ” के प्रकाशन की योजना बनाई ।  इसका संपादन तो आठ खण्डों में 1910 से 1927 तक हुआ, मुद्रित होकर ये खंड 1912 से 1929  तक सामने आए ।  इस परियोजना में बाबू श्यामसुन्दर दास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य रामचंद्र वर्मा, पं. बालकृष्ण भट्ट, लाला भगवान दीन आदि कई विद्वानों ने सहयोग दिया ।  इसी कोश का एक संक्षिप्त संस्करण “ संक्षिप्त हिंदी शब्द सागर ” नाम से काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने ही 1933 में प्रकाशित किया ।  सन 1965  में हिंदी शब्द सागर का संशोधित –परिवर्धित संस्करण भी प्रकाशित हुआ ।  मूल संस्करण में जहाँ लगभग एक लाख शब्द थे, वहां संशोधित संस्करण में उनकी संख्या दुगुनी से भी अधिक हो गई ।

 

3.5.4  सन 1948  में दो  ऐसे कोश प्रकाशित हुए जिन्हें विशेष प्रसिद्धि मिली ।  एक तो ज्ञान मंडल, वाराणसी से “बृहद ज्ञान कोश” जिसके संपादक कालिका प्रसाद, राजवल्लभ सहाय तथा मुकुन्दीलाल श्रीवास्तव थे ।  इसमें हिंदी में प्रचलित फारसी, अरबी, अंग्रेजी आदि से आगत सभी शब्दों को हिंदी का अंग मानकर स्थान दिया है । शब्दों की व्युत्पत्ति विवादास्पद मान कर नहीं दी है ।  (इसी का एक संक्षिप्त संस्करण “ ज्ञान शब्द कोश ” शीर्षक से सन 1954  में छापा जिसमें लगभग 66,000 शब्द थे।)  दूसरा कोश था, “नालंदा विशाल शब्दसागर “ जिसके संपादक थे नवल किशोर ।  इस कोश में संसद, सचिवालय, न्यायालय, संचार, प्रतिरक्षा आदि विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित शब्द भी दिए हैं और ग्रंथ के अंत में उनके अंग्रेजी पर्याय भी दिए है ।  अतः शब्दों की संख्या लगभग पन्द्रह लाख हो गई है ।

 

3.5.5  आचार्य रामचन्द्र वर्मा नागरी प्रचारिणी सभा, काशी की “हिंदी शब्द सागर” की परियोजना से जुड़े रहे थे, पर उन्हें उस कार्य से पूरा सन्तोष नहीं हुआ. अतः उन्होंने सन 1949 में साहित्यरत्नमाला कार्यालय, वाराणसी से “ प्रामाणिक हिंदी कोश ” प्रकाशित किया जिसमें हिंदी शब्द सागर की कमियों को दूर करने का प्रयास किया ।  इसमें शब्दों की व्युत्पत्ति तथा लिंग निर्णय संबंधी उन्होंने मौलिक विचार भी दिए हैं ।  साथ ही, लगभग पांच हजार शब्दों की अंग्रेजी-हिंदी सूची दी है ताकि यह पता चल सके कि अंग्रेजी के किस शब्द के लिए हिंदी के किस शब्द का प्रयोग किया जाता है ।

 

इसके पश्चात आचार्य रामचंद्र वर्मा ने हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से भी सन 1962 में पांच खण्डों में “ मानक हिंदी कोश ” प्रकाशित किया ।  इसे हिंदी भाषा का “अद्यतन, अर्थप्रधान और सर्वांगपूर्ण शब्दकोश ” कहा गया है ।  इसमें व्याख्याएं अधिक स्पष्ट हैं, उदाहरण भी हैं, मानक वर्तनी दी है, शब्दों की व्युत्पत्ति दी है, मिलते-जुलते शब्दों के अर्थ में अंतर स्पष्ट किया गया है, अर्थ का वर्गीकरण भी किया गया है, और यथास्थान अंग्रेजी पर्याय भी दिए गए हैं ।

 

आचार्य रामचंद्र वर्मा के दो और अत्यंत उपयोगी कोश हैं – “ शब्दार्थक ज्ञानकोश “ और “ शब्दार्थ दर्शन ” (1968)  जिसका संशोधित संस्करण “शब्दार्थ विचार कोश “ (1993) नाम से छपा है ।  इनमें शब्दों की गहन विवेचना की गई है ।  बदरीनाथ कपूर का “ शब्द परिवार कोश “ (1968) और ओमप्रकाश गाबा का “ विवेचनात्मक पर्याय कोश “ (1985) भी इसी प्रकार के अच्छे कोश हैं  जिनमें शब्दों के अर्थ का अच्छा विश्लेषण किया गया है ।

 

3.5.6  सुप्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डा. भोलानाथ तिवारी ने विद्यार्थियों एवं सामान्य व्यक्ति की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए “संक्षिप्त हिंदी कोश” तैयार किया था जो किताब महल, इलाहबाद से प्रकाशित हुआ ।  इसमें चार भाग हैं ।  पहले भाग में लगभग डेढ़ हजार शब्द हैं, दूसरे में लगभग पांच सौ लोकोक्तियाँ हैं, तीसरे में लगभग डेढ़ हजार मुहावरे और चौथे में लगभग एक सौ पर्यायवाची शब्द हैं ।  कोश में दो परिशिष्ट भी हैं जिनमें प्रचलित अंग्रेजी शब्दों के हिंदी पर्याय तथा न्यायालय में प्रचलित अरबी-फारसी शब्दों के हिंदी पर्याय दिए हैं ।

 

4.0  कोश के प्रकार :

भाषा के सन्दर्भ में “कोश” कहने पर सामान्यतया “शब्दकोश” की ओर ही ध्यान जाता है ।  पिछले पृष्ठों में भी शब्दकोशों की चर्चा की गई है जबकि वास्तविकता यह है कि कोश कई प्रकार के होते हैं ।  फिर भी यदि शब्दकोश “ कोश ” का पर्याय बन गए हैं तो उसका एक प्रमुख कारण यह है कि शब्दकोश अन्य कोशों की प्रमुख बातों का अपने कलेवर में ही समावेश करने का प्रयास करते रहते हैं ।  अतः हमारी सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति अच्छे शब्दकोश से ही हो जाती है, पर विशिष्ट आवश्यकताओं के लिए विभिन्न कोशों का विशेष महत्व है ।  प्रमुख प्रकार के कोशों का वर्गीकरण स्थूल रूप से निम्नलिखित शीर्षकों में किया जा सकता है :

1. शब्दकोश

2. विषय कोश

3.  साहित्य कोश

4.  कृति /साहित्यकार कोश

5.  सूक्ति कोश

6.  विश्वकोश

7.  पर्याय –विलोम कोश (Thesaurus)

 

4.1 शब्दकोश : सामान्य प्रचलित अर्थ में शब्दकोश ऐसे कोश को कहते हैं जिससे शब्दार्थ की जानकारी मिल जाए, पर यहाँ हम इसका प्रयोग विस्तृत अर्थ में कर रहे हैं, जिसमें शब्द का उच्चारण, व्युत्पत्ति, प्रयोग, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, पर्याय, विलोम, मुहावरा, कहावत आदि से संबंधित कोशों का भी समावेश किया गया है ।  इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि शब्दकोश कई प्रकार के होते हैं ।

4.1.1 एकलभाषी / द्विभाषी शब्दकोश :

भाषा की दृष्टि से देखें तो शब्दकोश एकलभाषी, द्विभाषी /बहुभाषी हो सकता है ।  एकलभाषी शब्दकोश में शब्दों के अर्थ आदि की विवेचना के लिए स्रोत-भाषा का ही प्रयोग किया जाता है, जबकि द्विभाषी /बहुभाषी शब्दकोशों में लक्ष्य-भाषा / भाषाओँ का भी प्रयोग किया जाता है ।  इस संबंध में अनेक परम्पराएं मिलती हैं ।  जिन शब्दों की व्याख्या अपेक्षित होती है वह किन्हीं शब्दकोशों में स्रोतभाषा में दी गई है और लक्ष्य भाषा में केवल प्रतिशब्द दिया है ; जबकि किन्हीं शब्दकोशों में व्याख्या भी लक्ष्यभाषा में दी गई है ।  किन्हीं द्विभाषी /बहुभाषी शब्दकोशों में शब्द का अर्थ स्रोतभाषा में भी दिया है ।  आज विश्व की लगभग सभी प्रमुख भाषाओँ में एकलभाषी / द्विभाषी /बहुभाषी शब्दकोश मिलते हैं । हिंदी के एकलभाषी शब्दकोशों में नागरी प्रचारिणी सभा काशी का हिंदी शब्द सागर, हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग का मानक हिंदी कोश, ज्ञान मंडल, वाराणसी का बृहद हिंदी कोश, राजपाल एंड संस, दिल्ली का राजपाल हिंदी शब्दकोश आदि, तथा अंग्रेजी में ऑक्सफोर्ड, वेबस्टर, कैम्ब्रिज, कालिंस आदि के शब्दकोश अच्छे माने जाते हैं ।

 

अंग्रेजी -हिंदी के द्विभाषी शब्दकोशों में ज्ञानमंडल, वाराणसी द्वारा प्रकाशित डा. हरदेव बाहरी का बृहद अंग्रेजी-हिंदी कोश (दो खंड), एस चंद एंड कं, दिल्ली द्वारा प्रकाशित डा. कामिल बुल्के का अंग्रेजी-हिंदी कोश, डा. सुरेश अवस्थी एवं इंदु अवस्थी का कैम्ब्रिज अंग्रेजी-हिंदी कोश, हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा प्रकाशित डा. सत्यप्रकाश का अंग्रेजी-हिंदी कोश, राजपाल एंड संस, दिल्ली द्वारा प्रकाशित डा. हरदेव बाहरी का राजपाल अंग्रेजी-हिंदी कोश आदि प्रसिद्ध हैं ।  हिंदी-अंग्रेजी द्विभाषी कोशों में डा. भोलानाथ तिवारी का व्यावहारिक हिंदी-अंग्रेजी कोश (इसका एक संक्षिप्त संस्करण भी उपलब्ध है), डा. हरदेव बाहरी का शिक्षार्थी हिंदी-अंग्रेजी शब्दकोश, गोपीनाथ श्रीवास्तव का राजपाल हिंदी-अंग्रेजी पर्यायवाची कोश, राममूर्ति सिंह का मानक हिंदी-अंग्रेजी कोश, आर सी पाठक का भार्गव हिंदी-अंग्रेजी शब्दकोश आदि लोकप्रिय हैं ।

 

अनुवाद के लिए तो द्विभाषी/बहुभाषी शब्दकोशों की आवश्यकता होती ही है, जीवन के अन्य कार्यकलापों में भी द्विभाषी शब्दकोशों का ही सबसे अधिक उपयोग होता है जो सहज भी है क्योंकि अपनी भाषा की समस्याएँ तो हमें जैसे कोई समस्या लगती ही नहीं, हमें परेशानी होती है दूसरी भाषाओं की समस्याओं से ।  द्विभाषी/बहुभाषी कोश इन समस्याओं को हल करने में सहायक होते हैं ।

 

4.1.2  प्रयोग कोश : इस प्रकार के कोशों में विभिन्न भाषिक इकाइयों का सही प्रयोग बताया जाता है ।  अतः ये कोश अन्य भाषाभाषियों  के लिए तो उपयोगी होते ही हैं, अनेक अवसरों पर उनके लिए भी उपयोगी सिद्ध होते हैं जिनकी यह मातृभाषा है क्योंकि इन कोशों में विभिन्न भाषिक इकाइयों के प्रयोगगत सूक्ष्म अंतर स्पष्ट किए जाते हैं ।  अंग्रेजी  में हेनरी वाटसन फाउलर का प्रयोग कोश “ डिक्शनरी ऑफ माडर्न इंग्लिश यूसेज (1926) “ बहुत लोकप्रिय हुआ है ।  हिंदी में आचार्य रामचंद्र वर्मा  का “ शब्दार्थ विचार कोश ”, ओम प्रकाश गाबा का “ विवेचनात्मक पर्याय कोश  ”, बद्रीनाथ कपूर का “हिंदी प्रयोगकोश” आदि उपयोगी हैं ।

 

4.1.3..उच्चारण कोश : किसी भी भाषा और लिपि की आदर्श स्थिति तो यह है कि उसके उच्चरित रूप और लिखित रूप में कोई अंतर न हो ; पर व्यवहार में यह संभव हो नहीं पाता ।  इसके अनेक कारण हैं ।  एक प्रमुख कारण यह है कि भाषा का लिखित रूप तो काफी समय तक एक-सा बना रहता है, पर उच्चरित रूप में बराबर अंतर आता जाता है ।  अतः शुद्ध उच्चारण सिखाने की आवश्यकता अनुभव की जाती है ।  किसी भाषा के लिखित और उच्चरित रूप में जितना अधिक अंतर होगा, पृथक से उच्चारण सिखाने की आवश्यकता उतनी ही अधिक होगी ।  कुछ लिपियों में वर्णमाला के प्रत्येक वर्ण का स्वतंत्र उच्चारण कुछ और है, पर शब्द में उनका प्रयोग होने पर उच्चारण कुछ और हो जाता है ।  जैसे, अंग्रेजी जिस रोमन लिपि में लिखी जाती है, उसका एक वर्ण है “ I “ (आय),  सर्वनाम के रूप में भी इसका प्रयोग होता है, और वहां इसका यही उच्चारण होता है, पर  “S” (एस)  वर्ण के साथ मिलने पर  “IS” में आय और एस दोनों उच्चारण गायब हो जाते हैं और एक नया उच्चारण “इज़ ” आ जाता है ।  ये ही दोनों वर्ण इसी रूप में जब “ Island” में मिलते हैं तो उच्चारण फिर बदल जाता है । अतः इन भाषाओँ में पृथक से उच्चारण सिखाना अनिवार्य हो जाता है ।

देवनागरी बहुत वैज्ञानिक लिपि है, पर उसकी वैज्ञानिकता का पूरी तरह निर्वाह उन सभी  भाषाओं में नहीं हुआ है, जो लेखन के लिए उसका प्रयोग करती हैं । उदाहरण के लिए, मराठी  देवनागरी लिपि में लिखी जाती है ।  मराठी में शब्द है “ माझं “; लेखन में “ झं “ में अनुस्वार लगाया जाता है, पर उसका उच्चारण अनुस्वार की भांति न करके हृस्व अ को थोड़ा दीर्घ करके बोलते हैं ।  हिंदी भी देवनागरी में लिखी जाती है ।  हिंदी में लिखते हैं “ आप “; पर बोलते हैं “ आप् “ अर्थात लिखित रूप में तो “ प “ सस्वर है, पर यहाँ उच्चारण में स्वर रहित है ।  कहने का आशय यह है कि उच्चारण की शिक्षा की आवश्यकता हर भाषा में होती है, भेद केवल मात्रा का है, किसी में कम तो किसी में अधिक, और किसी में बहुत अधिक ।  उच्चारण कोश में भाषा शिक्षण की इस आवश्यकता को पूरा करने का प्रयास किया जाता है । अंग्रेजी में कई उच्चारण कोश उपलब्ध हैं जिनमें डेनियल जोन्स (Daniel Jones) की “इंग्लिश प्रोनाउन्सिंग डिक्शनरी (1917) विशेष प्रसिद्ध है ।  अंग्रेजी में उच्चारण की समस्या अधिक जटिल है, हिंदी में समस्या वैसी जटिल नहीं । शायद इसी कारण हिंदी में उच्चारण कोश ढूंढे से भी नहीं मिलते ।  हिंदी में अब तक डा. भोलानाथ तिवारी का उच्चारण कोश ही मेरी दृष्टि में आया है ।

 

4.1.4 ऐतिहासिक कोश : भाषा का ज्यों-ज्यों विकास होता है उसमें नई चीजें जुडती हैं, और पुरानी चीजें छूटती जाती हैं ।  अनेक शब्द प्रचलन से हट जाते हैं  और नए शब्द प्रयोग में आने लगते हैं ।  किन्हीं शब्दों के अर्थ का विस्तार हो जाता है तो कुछ के अर्थ का संकोच हो जाता है ।  कुछ शब्दों की वर्तनी बदल जाती है ।  इस तरह की बातों का एक परिणाम यह होता है कि कालान्तर में अपनी ही भाषा के प्राचीन साहित्य को समझना एक समस्या हो जाती है ।  इस समस्या को हल करने के लिए ही ऐतिहासिक शब्दकोश का निर्माण किया जाता है ।  इस प्रकार के कोश में उन शब्दों को भी सम्मिलित किया जाता है जो प्रचलन से हट चुके हैं, पर पुराने साहित्य में जिनका प्रयोग हुआ है ।  जिन शब्दों के अर्थ का विस्तार या संकोच हुआ, उनके सभी अर्थ यथासंभव ऐतिहासिक क्रम में दिए जाते हैं ।  संस्कृत का निघंटु इसी प्रकार का कोश है ।  अंग्रेजी में लेस्ली ब्राउन द्वारा संपादित और वर्ष 1993 में दो खण्डों में प्रकाशित “ द न्यु शार्टर ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी ऑन  हिस्टोरिकल प्रिंसिपल्स “ इस प्रकार का एक अच्छा कोश है ।  हिंदी में यद्यपि पृथक से ऐसा कोश नहीं बना है, तथापि “ हिंदी शब्द सागर ” और “ मानक हिंदी कोश “ कुछ सीमा तक इसकी पूर्ति करते हैं ।

 

4.1.5 पर्याय / विलोम कोश : इस प्रकार के कोश में केवल पर्यायवाची शब्द एक साथ दिए जाते हैं, उनकी व्याख्या नहीं ।  प्रयोजन यह होता है कि सभी मिलते-जुलते शब्द प्रयोगकर्ता के सामने आ जाएँ ताकि वह उनमें से अपनी रुचि / आवश्यकता के अनुरूप सर्वाधिक उपयुक्त शब्द का चयन कर सके ।  संस्कृत में पर्यायवाची कोशों की समृद्ध परम्परा रही है ।  “अमरकोश “ तो अब तक प्रसिद्ध है ।  हिंदी में भी पहले ऐसे कई कोश तैयार किए गए जिन्हें “नाममाला “ कहा गया ।  डा.  भोलानाथ तिवारी ने आधुनिक हिंदी का “बृहद पर्यायवाची कोश “, डा. कुट्टन पिल्लै ने “ हिंदी पर्यायवाची कोश “ प्रकाशित किया है। आचार्य रामचंद्र वर्मा  का “ शब्दार्थ विचार कोश ”, ओम प्रकाश गाबा का “ विवेचनात्मक पर्याय कोश  ”, बद्रीनाथ कपूर का “हिंदी प्रयोगकोश” आदि को भी इस श्रेणी में रखा जा सकता है ।

 

 

आधुनिक युग में एक और प्रकार के कोश तैयार किए गए हैं जिन्हें अंग्रेजी में “थेजारस”
(Thesaurus) कहते हैं ।  इनमें पर्यायवाची शब्दों के साथ उस वर्ग के विलोम शब्दों का भी उल्लेख किया जाता है ।  अंग्रेजी में पीटर मार्क राजेट (Peter Marc Roget) का थेजारस     (1852) विशेष प्रसिद्ध हुआ है ।  वेबस्टर के अंग्रेजी शब्दकोश में ही विभिन्न स्थानों पर पर्यायवाची एवं विलोम शब्दसमूह देकर शब्दकोशों में एक नई परम्परा शुरू की गई है ।

हिंदी में अरविन्द कुमार ने राजेट के थेजारस की तरह का “ समान्तर कोश “ बनाया है ।

 

4.1.6 व्युत्पत्ति कोश :   विभिन्न शब्दों की व्युत्पत्ति स्पष्ट करने के लिए इस प्रकार के कोश बनाए जाते हैं ।  हर भाषा में कुछ शब्दों की व्युत्पत्ति तो सरलता से स्पष्ट की जा सकती है, पर अनेक शब्द ऐसे होते हैं जिनकी व्युत्पत्ति विवादास्पद होती है ।  व्युत्पत्ति कोश में इन विवादों का भी उल्लेख किया जाता है ।  उद्देश्य यह होता है कि इस संबंध में अब तक जो चिंतन किया गया है, उससे पाठक संक्षेप में अवगत हो जाए ।  शोधकार्य में इससे बड़ी सहायता मिलती है ।  यास्क के निरुक्त में संस्कृत शब्दों की व्युत्पत्ति दी गई है ।  अंग्रेजी में चार्ल्स तालबुत ओनियंस (Charles Talbut Onions) का व्युत्पत्ति कोश “द ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ऑफ इंग्लिश एटिमोलाजि (1966) प्रसिद्ध है ।  इसका एक संक्षिप्त संस्करण भी टी एफ होड (T F Hoad)  ने “द कन्साइज ऑक्सफोर्ड  डिक्शनरी  ऑफ  इंग्लिश

एटिमोलाजि (1986) संपादित किया है ।

4.1.7  मुहावरा-कहावत कोश : इस प्रकार के कोश में किसी भाषा में प्रयुक्त होने वाले मुहावरों –कहावतों का संकलन करके उनके अर्थ, प्रयोग आदि का निर्देश दिया जाता है ।  ऐसे कोश तीन प्रकार के हो सकते हैं :

4.1.7.1  ऐतिहासिक : इसमें कहावतों / मुहावरों का इतिहास दिया जाता है ।  उनका प्रयोग कैसे शुरू हुआ, उनके अर्थ में कब क्या विकास हुआ, आदि  बताया जाता है ।

4.1.7.2  वर्णनात्मक : इसमें कहावतों / मुहावरों का अर्थ एवं प्रयोग दिया जाता है ।

4.1.7.3  तुलनात्मक : इसमें स्रोतभाषा के साथ-साथ लक्ष्य भाषा के समानार्थी मुहावरे /कहावतें दी जाती हैं ।  अतः अनुवाद की दृष्टि से इस प्रकार के कोश का विशेष महत्व है ।

 

हिंदी में डा. भोलानाथ तिवारी के दो कोश “हिंदी मुहावरा कोश” तथा “अंग्रेजी-हिंदी मुहावरा –लोकोक्ति कोश”; हरिवंश राय शर्मा का “ राजपाल साहित्यिक मुहावरा कोश”, बदरीनाथ कपूर का “लोकभारती मुहावरा कोश”, डा. पी. आर. धनाते का “ मिलिंद लोकोक्ति कोश “  आदि अच्छे कोश माने जाते हैं ।

 

4.1.8  संक्षेपाक्षर कोश : मनुष्य की सहज वृत्ति होती है कि वह लंबे शब्दों को छोटा करने की कोशिश करता है और इस प्रकार बोलने-लिखने में समय एवं स्थान की बचत करता है ।  बचत की व्यवस्था कई प्रकार से की जाती है । संस्कृत में “ सूत्र साहित्य “ के द्वारा यही काम किया गया है । सुप्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि ने अष्टाध्यायी में सूत्र बनाकर ही अपने ग्रंथ की रचना की है ।  उनके सूत्र “अल्” में पूरी वर्णमाला आ जाती है क्योंकि उन्होंने जिन  महेश्वर सूत्रों में वर्णमाला संयोजित की है, उसका प्रारंभिक वर्ण है “अ” और अंतिम वर्ण है  “ल्”।  अंग्रेजी में इस प्रकार के संक्षेपीकरण को एक्रोनिम् (acronym)  कहते हैं । यह ग्रीक शब्द “एक्रोस” से बना है जिसका अर्थ है सबसे पहले का । अंग्रेजी में प्रायः प्रारंभिक अक्षर लेकर ही संक्षेपाक्षर बनाए गए हैं ।  जैसे, Self Employed Women’s Association से “सेवा”  (SEWA) ; या Association of Voluntary Agencies for Rural Development  से “अवार्ड” (AVARD) ; या Railway Mobile Instant Tracking Response and Assistance App  से  आर – मित्र (R-Mitra) ।  कालान्तर में जब ये संक्षेपाक्षर बहु-प्रयुक्त होकर कोश के अंतर्गत सम्मिलित हो जाते हैं तो हम भूल चुके होते हैं कि इनका निर्माण कैसे  हुआ ।  हम रोज न्यूज (समाचार) सुनते हैं, पर किसे याद आता है कि यह North. East West South के प्रारंभिक अक्षरों से बनाया गया NEWS  है ।  संक्षेपाक्षर कोश इस समस्या का समाधान करने में सहायता करते हैं । अनुवाद के समय कभी-कभी इन संक्षेपाक्षरों का पूरा रूप जानना बहुत आवश्यक हो जाता है ।  अनुवाद में यदि पूरे रूप का प्रयोग न किया जाए, तो पाठक अँधेरे में भटकता रहता है ।  उदाहरणार्थ, Two girls were arrested under SITA का अनुवाद यदि यह किया जाए कि सीता के अंतर्गत दो लड़कियां गिरफ्तार की गईं तो अर्थ समझने में कठिनाई होती है क्योंकि सीता शब्द का प्रयोग अन्य सन्दर्भ में होता है ।  अतः यदि यहाँ प्रयुक्त ‘ सीता “ का पूरा रूप (Suppression of Immoral Traffic in Women and Girls Act) दे दिया जाए तो पाठक को असुविधा नहीं होगी ।  अंग्रेजी में द ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ऑफ एब्रिविएशन (1992) एक अच्छा कोश है ।

 

हिंदी में संक्षेपाक्षरों का प्रयोग अभी बहुत कम होता है, इसलिए अभी पृथक से कोई संक्षेपाक्षर कोश भी नहीं बना है ।  यों राजनीतिक दलों के नामों में संक्षेपाक्षरों का प्रयोग खूब होने लगा है जैसे, भाजपा, बसपा, सपा, जद, द्रमुक, अद्रमुक आदि ।  राजनीति में कुछ ऐसे कूट शब्दों का भी प्रयोग होता है जो वस्तुतः संक्षेपाक्षर हैं ।  जैसे, अजगर (अहीर, जाट, गूजर, और राजपूत), भूराबाल (भूमिहार, राजपूत, बामन, लाला =कायस्थ) ।  रेलवे, बैंक आदि में भी कुछ संक्षेपाक्षरों का प्रयोग काफी होने लगा है. जैसे, मरे (मध्य रेलवे), परे (पश्चिम रेलवे), शया (शयन यान), आदि ।  बैंकों में कुछ पदों के संक्षिप्त नाम (केवल लेखन में) प्रयुक्त होने लगे हैं, जैसे अप्रनि (अध्यक्ष-प्रबंध निदेशक) मप्र (महाप्रबंधक) आदि, और पासबुक में की जाने वाली प्रविष्टियों के भी संक्षेपाक्षर प्रचलित हो गए हैं ।  कुछ बैंकों के भी संक्षिप्त नाम प्रचलित हो गए हैं ।  जैसे, भारतीय औद्योगिक विकास बैंक के लिए विकास बैंक, राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक के लिए राष्ट्रीय बैंक, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के लिए स्टेट बैंक आदि ।

 

4.2  विषय कोश :

विषय कोश के अंतर्गत उन कोशों की चर्चा की जा सकती है जिनमें किसी एक विषय से संबंधित सभी आवश्यक जानकारी देने का प्रयास किया जाता है ।  जैसे, संगीत कोश, नृत्य कोश, संस्कृति कोश, वैदिक धर्म कोश, पौराणिक कोश, अर्थशास्त्र कोश आदि ।  इन कोशों में पुस्तक की व्याप्ति और सामग्री के संयोजन के अनुरूप कोश का नामकरण भिन्न प्रकार से किया जा सकता है ।  उदाहरणार्थ :

 

4.2.1 परिभाषा कोश / पारिभाषिक कोश :

इनमें किसी एक विषय के (जैसे, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, भूगोल आदि) अथवा एक ही परिवार के कई विषयों (जैसे, मानविकी, विज्ञान आदि) के केवल पारिभाषिक शब्दों की विवेचना की जाती है ।  ऐसे कोश एकलभाषी और द्विभाषी – दोनों प्रकार के हैं । अंग्रेजी में लगभग हर विषय के परिभाषा कोश उपलब्ध हैं ।   द्विभाषी कोश दो प्रकार के हैं : एक में पारिभाषिक शब्दों के लक्ष्य भाषा में केवल पर्याय दिए हैं,  दूसरे प्रकार में पारिभाषिक शब्दों की पहले व्याख्या दी गई है और फिर लक्ष्य भाषा में उसका पर्यायवाची शब्द दिया है ।  व्याख्या स्रोतभाषा या लक्ष्यभाषा दोनों में से किसी एक में अथवा दोनों में दी है ।  विधि मंत्रालय की विधि शब्दावली, भारतीय बैंक संघ की बैंकिंग शब्दावली, मध्य प्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी का गृहविज्ञान परिभाषा कोश, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय के भूगोल परिभाषा कोश, गणित परिभाषा कोश, रसायन परिभाषा कोश, राजकमल प्रकाशन का मानविकी परिभाषा कोश इसी प्रकार के अच्छे कोश हैं ।

 

4.2.2 कथाकोश /पौराणिक कथा कोश

इस प्रकार के कोश में उन कथाओं का संकलन किया जाता है जिनकी चर्चा विभिन्न ग्रंथों, पुराणों आदि में हुई है और जिनका सन्दर्भ साहित्य में यत्र-तत्र आता है । अनेक कथाओं के रूप अक्सर अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग मिलते हैं, पर इस प्रकार के कोश में यह जानकारी एक साथ मिल जाती है । हिंदी में डा. जयप्रकाश भारती  का “प्राचीन कथा कोश”, राणा प्रताप शर्मा का “ पौराणिक कोश”, उषा पुरी का ‘ मिथक कोश”, डा. एन. पी. कुट्टन पिल्लै का “ मिलिंद पौराणिक सन्दर्भ कोश “  ऐसे ही कोश हैं ।

 

4.2.3 संस्कृति कोश / धर्म कोश

भारतीय संस्कृति की गणना विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में होती है । उसका प्राचीन साहित्य बहुत विशाल है साथ ही वैविध्यपूर्ण भी है । अतः किसी सामान्य व्यक्ति के लिए यह संभव ही नहीं कि वह इसे समग्र रूप में जान सके । इसके अतिरिक्त, पश्चिमी देशों में ज्ञान का जो विकास हुआ है, उसे सर्वश्रेष्ठ बताने की ललक में अनेक विद्वानों ने प्राचीन भारतीय साहित्य को विकृत रूप में प्रस्तुत कर दिया है । इस विकृति के फलस्वरूप उपजी भ्रांतियों का निराकरण करने की दृष्टि से, तथा विपुल साहित्य का अध्ययन न कर पाने वाले सामान्य व्यक्ति की सुविधा की दृष्टि से कुछ विद्वानों ने संस्कृति कोश बनाए हैं । हिंदी में  डा. हरदेव बाहरी का “प्राचीन भारतीय संस्कृति कोश”, लीलाधर पर्वतीय का “भारतीय संस्कृति ज्ञान  कोश”, डा. राजबली पाण्डेय का “हिंदू धर्मकोश” ऐसे ही कोश हैं । वेदों के संबंध में जो भ्रांतियां देशी / विदेशी विद्वानों ने फैलाई हैं, उन्हें दूर करने की दृष्टि से स्वामी दयानंद सरस्वती का “ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका” कोश के समान ही एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है ।

 

4.3 साहित्य कोश

किसी एक या कई भाषाओं के साहित्यकारों /साहित्य, उसकी प्रवृत्तियों, विभिन्न पक्षों, समस्याओं आदि का एक साथ परिचय इन कोशों के माध्यम से कराया जाता है । हिंदी में डा. धीरेन्द्र वर्मा का “हिंदी साहित्य कोश”, सुधाकर पाण्डेय का “हिंदी विश्व साहित्य कोश”, डा. श्रीधर भास्कर वर्णेकर का “संस्कृत वाड.मय कोश” आदि इसी प्रकार के कोश हैं ।

 

4.4 साहित्यकार कोश / कृति कोश

साहित्यकार कोश तो किसी एक साहित्यकार के समग्र लेखन को समाहित करते हुए बनाया जाता है (जैसे, डा. प्रेमनारायण टंडन का “सूर कोश”, डा. वासुदेव सिंह का “कबीर काव्य कोश”, सुधाकर पाण्डेय का “प्रसाद काव्य कोश” आदि) जबकि कृति कोश किसी साहित्यकार की किसी एक ही रचना पर केंद्रित रहता है ।  जैसे, निरूपण विद्यालंकार का “सत्यार्थप्रकाश में उद्धृत वेदमंत्र कोश”, शकुंतला गुप्ता का “कामायनी कोश”, सत्यदेव निगमालंकार का “वाल्मीकि रामायण कोश”, भवानीलाल भारतीय का “ दयानंद साहित्य सर्वस्व “ आदि ।

 

4.5 सूक्ति कोश

किसी एक ही महापुरुष के या अनेक महापुरुषों के विभिन्न ग्रंथों से सूक्तियों का चयन करके ऐसा कोश तैयार किया जाता है । प्रस्तावित कोश के शीर्षक विषयवार निश्चित कर दिए जाते है और सूक्तियों का संयोजन उसी के अनुरूप किया जाता है । इन्हें “सुभाषित संग्रह” भी कहते हैं । गंगाप्रसाद उपाध्याय का “स्वामी दयानंद की सूक्तियां “, रामचरण विद्यार्थी का “महर्षि मंतव्य” सत्यदेव निगमालंकार का “ वाल्मीकि रामायण सूक्ति कोश “ इसी प्रकार के कोश हैं ।  श्याम बहादुर वर्मा ने तीन बड़े खण्डों में “बृहद विश्व सूक्ति कोश” के नाम से, तथा सरिता पत्रिका के संपादक (अब स्व.) विश्वनाथ ने हिंदी साहित्य से सूक्तियों का एक अच्छा संग्रह किया है । हरिवंश राय शर्मा ने “राजपाल साहित्यिक सुभाषित कोश “ नाम से एक अच्छा कोश दिया है ।

 

4.6  विश्व कोश :

4.6.1 शब्द कोश और विश्वकोश का अंतर स्पष्ट करते हुए एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका में लिखा है, A dictionary explains words whereas an encyclopedia explains things. विश्व कोश में वस्तुतः यह प्रयास किया जाता है कि संबद्ध विषय पर उपलब्ध सभी जानकारी एक ही स्थान पर प्रस्तुत कर दी जाए ।  इस विश्व में मानव सभ्यता के इतिहास में ज्ञान-विज्ञान का इतना विकास हुआ है कि सारा ज्ञान किसी भी विद्वान के पास उपलब्ध नहीं हो सकता ।  जिस विषय का हम विशेष अध्ययन करते हैं उसका भी हमें पूरा ज्ञान हमें नहीं हो पाता, सारे विषयों की तो बात ही क्या करनी ! विशेषज्ञता के इस युग में स्थिति यह हो गई है कि डाक्टर भी अब शरीर के विभिन्न भागों के अलग अलग हैं । आँखों का डाक्टर पेट या हृदय के रोगों का उपचार करना तो दूर की बात, रोग पहचान भी नहीं पाता। अतः आज विश्वकोश जैसे ग्रंथों की उपयोगिता और भी बढ़ गई है ।

 

4.6.2  अंग्रेजी शब्द “एन्साइक्लोपीडिया” का उद्गम ग्रीक शब्द Enkyklopaideia” से हुआ है जिसका अर्थ है एक वृत्त या सीखने की पूर्ण प्रणाली । यूरोप में विश्वकोश के सन्दर्भ में यद्यपि इसका प्रथम प्रयोग जर्मन विद्वान पाल स्केलिश (Paul Scalich) ने सन 1559 में अपने ग्रंथ के शीर्षक में किया जो इस प्रकार है, “ Encyclopaedia : Seu, orbis disciplinarum, tam Sacrarum quam prophanum epistemon….”  (Encyclopaedia : or Knowledge of the World of Disciplines, not only sacred but profane)   पर विश्वकोश के रूप में एन्साइक्लोपीडिया शब्द डेनिस दिदरात (Denis Diderot) की फ्रेंच एन्साइक्लोपीडिया से प्रचलन में आया । इससे पूर्व इस प्रकार के ग्रंथों को Hortus Deliciarum अर्थात आनंदोद्यान (Garden of Delight)  या कोश (डिक्शनरी) ही कहते थे ।

 

4.6.3  विश्वकोश पिछले लगभग दो हजार वर्ष से बन रहे हैं. चीन, अरब, जापान आदि में इनकी समृद्ध परंपरा रही है । यूरोप में इनकी शुरुआत बाद में हुई । इन्हें ज्ञान का भण्डार माना जाता है क्योंकि इनमें प्रत्येक विषय से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी संक्षेप में मिल जाती है अर्थात विश्वकोश में इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, राजनीति, गणित, साहित्य, रसायन विज्ञान, भौतिक विज्ञान आदि सभी विषयों से संबंधित जानकारी मिल सकती है ।  ज्ञान का प्रभूत विकास होने के कारण अब एक-एक विषय के भी विश्वकोश बनाए गए हैं ।

 

4.6.4  अंग्रेजी में “ एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका “ बहुत प्रसिद्ध है । इसका प्रथम संस्करण सन 1768 -71  में प्रकाशित हुआ था । तब से इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं । हिंदी में नागरी प्रचारिणी सभा, काशी ने “ हिंदी विश्वकोश “ प्रकाशित किया है । एक और विश्वकोश डा. नगेन्द्रनाथ वसु ने 20 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में प्रकाशित किया था जिसका पुनर्मुद्रण 20 वीं शताब्दी के अंतिम चरण में बी आर पब्लिशर्स कार्पोरेशन ने किया। विद्यार्थियों और सामान्य पाठकों की दृष्टि से डा. बालकृष्ण ने एक छोटा “ विश्वकोश “ तैयार किया जिसे राजपाल एंड संस ने छापा है । विभिन्न विषयों के भी विश्वकोश तैयार किए गए हैं । जैसे, डा. श्यामसिंह शशि का “समाज विज्ञान विश्वकोश “ या डा. बालकृष्ण का “सुगम विज्ञान विश्वकोश “ आदि । अनुवाद में विश्वकोश उस समय बहुत सहायक होता है जब किसी विषय को समझना हो या उसका पिछला इतिहास जानना हो ।

 

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डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री
जन्म लखनऊ में, पर बचपन - किशोरावस्था जबलपुर में जहाँ पिताजी टी बी सेनिटोरियम में चीफ मेडिकल आफिसर थे ; उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान में स्नातक / स्नातकोत्तर कक्षाओं में अध्यापन करने के पश्चात् भारतीय स्टेट बैंक , केन्द्रीय कार्यालय, मुंबई में राजभाषा विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त ; सेवानिवृत्ति के पश्चात् भी बैंक में सलाहकार ; राष्ट्रीय बैंक प्रबंध संस्थान, पुणे में प्रोफ़ेसर - सलाहकार ; एस बी आई ओ ए प्रबंध संस्थान , चेन्नई में वरिष्ठ प्रोफ़ेसर ; अनेक विश्वविद्यालयों एवं बैंकिंग उद्योग की विभिन्न संस्थाओं से सम्बद्ध ; हिंदी - अंग्रेजी - संस्कृत में 500 से अधिक लेख - समीक्षाएं, 10 शोध - लेख एवं 40 से अधिक पुस्तकों के लेखक - अनुवादक ; कई पुस्तकों पर अखिल भारतीय पुरस्कार ; राष्ट्रपति से सम्मानित ; विद्या वाचस्पति , साहित्य शिरोमणि जैसी मानद उपाधियाँ / पुरस्कार/ सम्मान ; राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर का प्रतिष्ठित लेखक सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान , लखनऊ का मदन मोहन मालवीय पुरस्कार, एन सी ई आर टी की शोध परियोजना निदेशक एवं सर्वोत्तम शोध पुरस्कार , विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का अनुसन्धान अनुदान , अंतर -राष्ट्रीय कला एवं साहित्य परिषद् का राष्ट्रीय एकता सम्मान.

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