प्रेम न हाट बिकाय

मदन मोहन शर्मा ‘अरविन्द’

१४ फरवरी (वेलेंटाइन डे) पर विशेष

‘ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पण्डित होय’, कबीर के इस कथन में केवल उनका व्यक्तिगत दृष्टिकोण, आधी-अधूरी जानकारी या छोटा-मोटा सन्देश नहीं, एक भारी-भरकम चुनौती है। किसी किताब से कोई प्रेम का मर्म खोज कर तो लाये, कबीर उसे पण्डित मानने को तैयार हैं, पर संसार में ऐसा है कौन? युग बीत गये, पोथियाँ पढ़ने वाले आते रहे, जाते रहे प्रेम का पता न इस तरह मिलना था, न किसी को मिला। कबीर की चुनौती आज भी अपनी जगह कायम है। प्रेम के स्वरूप को कागज पर उतारने की शक्ति शायद ही किसी के पास रही हो क्योंकि इसे समझा तो जा सकता है, समझाया नहीं जा सकता। रामायण के रचयिता को सम्भवतः इसीलिये ‘रामहि केवल प्रेम पियारा’ कहने के साथ ही यह भी कहना पड़ गया कि ‘जान लेइ जो जानन हारा’। प्रेम के रहस्य को केवल जानने वाला ही जान सकता है।

प्रेम अभिव्यक्ति का नहीं अनुभूति का विषय है। प्रेम का विज्ञान अनूठा है। मन से मन और आत्मा से आत्मा के बीच का संवाद है प्रेम। इसके अनिर्वचनीय रस-माधुर्य को शब्दों में सहेज पाना जितना कठिन है, जीवन में इसे उतार पाना उतना ही दुरूह और दुष्कर। इसकी संरचना में किसी प्रकार के भौतिक गुण-धर्मों की न कहीं कोई उपस्थिति है और न ही पहचान, ऐसी दशा में प्रेम की परिभाषा हो भी तो कैसे? केवल इतना जान लेना ही पर्याप्त है कि यह मानव जाति के लिये परमात्मा की एक अद्भुत देन है, एक अलौकिक प्रकाश-पुंज, जिसमें जीवन की जोत जगमगाती है । प्रेम का पाठ पढ़़ाने की क्षमता कभी किसी के पास नहीं रही, यह तो स्वतः जागृत हुआ करता है। इन अर्थों में देखें तो लगता है कि प्रेम ज्ञान की पहुँच से परे है। प्रेम ध्यान से भी परे लगता है और दृष्टि से भी, आज तक इसे न कोई बन्द आँखों से देख पाया न खुली आँखों से। जिसने पाया, अपने आप को खोकर ही प्रेम को पाया।

‘तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा, जानत प्रिया एक मन मोरा’, अशोक वाटिका के प्रसंग में महाकवि तुलसी दास मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के शब्दों में प्रेम के यथार्थ को उद्घाटित करते हैं ‘प्रिये! एक मेरा ही मन है जो मेरे और तुम्हारे प्रेम के मर्म को जानता है’। केवल एक ही मन जानता है, इसके अतिरिक्त कोई और नहीं। दूसरा जान भी कैसे सकता है, प्रेम के रहते द्वैत भाव रहेगा ही कहाँ? जहाँ प्रेम की संभावना है वहाँ किसी अन्य बाहरी विचार-विकार का तो प्रवेश ही नहीं, ‘प्रेम गली अति साँकरी, या में दो न समाहिं। मीरा का प्रेम भी ऐसा ही जीवन्त प्रेम है। ‘बिस का प्याला राणा जी भेज्या, पीवत मीरा हाँसी रे’, राणाजी के भेजे विष को प्रेम दिवानी हँसते-हँसते पी गयी लेकिन यह हलाहल भी उसे विचलित नहीं कर पाया। सच्चा प्रेम सदा अमरत्व की ओर ले जाता है।

‘जाकर जापर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलहि न कछु सन्देहू’, प्रेम अगर निर्विकार है तो उसकी सफलता में कोई सन्देह नहीं और जब सब कुछ प्रेम की दृढ़ता पर निर्भर है तो फिर इस प्रेम के प्रदर्शन की आवश्यकता क्यों पड़ने लगी? अपने प्रेम में कहीं कोई कमी तो नहीं हो रही? किसी प्रकार की विकृतियाँ इसे विद्रूप तो नहीं कर रहीं? जिसकी खुशबू पाते ही साँसें महक जानी चाहिये, जिसके सामने होते ही अन्तःकरण में असंख्य गुलाब अपने आप खिल उठने चाहिये, उसी को रिझाने के लिये अगर बाजारू गुलाब लाना पड़ता है तो कहीं न कहीं कुछ छूट अवश्य रहा है। भूल कहाँ हो रही है यह देखना पड़ेगा। देखना पड़ेगा कि जिसे प्रेम का नाम दिया जा रहा है वह वास्तव में प्रेम है या कुछ और।

प्रेम कोई उत्पाद नहीं जिसका विज्ञापन किया जाये। यह तो आँखों के रास्ते दिल में उतर जाने की कला है, अन्दर का अहसास है, मन की आवाज है। इसे अन्दर ही अन्दर सुनना-समझना पड़ेगा। अगर बाहर निकाल दिया तो इसमें इधर-उधर की मिलावट अवश्यम्भावी है, फिर प्रेम, प्रेम कहाँ रह जायेगा? बाहरी विकार उसके स्वरूप को बिगाड़ कर ही छोड़ेंगे। कहते हैं प्रेम से दुनिया जीती जा सकती है, प्रेम से सब कुछ मिल सकता है, यहाँ तक कि परमात्मा भी, ‘प्रेम ते प्रगट होहिं भगवाना’। यह सब तभी पाया जा सकता है जब प्रेम में गम्भीरता हो, दृढ़ता हो और सम्पूर्ण समर्पण हो, किसी प्रकार का छिछोरापन नहीं।

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  1. निस्संदेह प्रेम कोई उत्पाद नहीं है जिसे बाजार में किसी वास्तु की तरह बेचा जा सकता हो. लेकिन आज वेलेंतायीं डे (१४ फरवरी) के नाम पर प्रेम की तिजारत करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भरमार लगी है.कोई नहीं जानता कि वेलेंतायीं नाम का कोई संत हुआ भी या नहीं.लेकिन वेस्ट की कंपनियों ने एक मिथक प्रचार के जरिये खड़ा कर दिया है.डिस्नी वर्ल्ड में बच्चों के खिलोने मिकी माऊस का आल्शन घर बनाया गया है जहाँ एक व्यक्ति मिकी का मुखोटा लगाकर बिलकुल उस जैसा रूप बनाकर दर्शकों को लुभाता है. बच्चे उसे देखकर मिकी माऊस को वास्तविक मानने लगते हैं.उसी प्रकार प्रचार के आधार पर वेलेंतायीं का चरित्र गढ़ दिया गया है ताकि उसके नाम से अरबों डालर का कारोबार किया जा सके. भारत में हजारों साल से ये मन जाता है की शिवजी की तपस्या तुडवाने के लिए कामदेव और रति नृत्य कर रहे थे. शिवजी की तपस्या भंग होने पर उनका तीसरा नेत्र खुल गया और उसके सामने पड़कर कामदेव जलकर भस्म हो गए. इस पर सभी देवी देवता शिवजी के पास पहुंचे और उनसे कहा की भगवन, कामदेव के न रहने से तो सृष्टि ही थम जाएगी. इस पर शिवजी ने वरदान दिया की जब भी वसंत ऋतू आएगी तो साडी सृष्टि पर अमूर्त रूप से कम का वस् हो जायेगा और इसके प्रभाव से सृष्टि का क्रम चलता रहेगा. आज भी वसंत ऋतू में पूरी प्रकृति पर कम का वस् हो जाता है और नवजीवन का संचार होने लगता है. इस समय को वसंतोत्सव के रूप में मनाया जाता है और ये केवल एक दिन नहीं बल्कि बसंत पंचमी से फाल्गुन की पूर्णिमा तक पूरे चालीस दिन तक मनाया जाता है.१४ फरवरी इसी चालीस दिन के दौरान पड़ती है. अतः प्रेम का उत्सव यदि कोई है तो वह चालीस दिन चलने वाला यह वसंतोत्सव है.इस दौरान युवक युवतियां नृत्य, गायन, और अन्य श्रंगारिक कार्यक्रम मना कर अपनी भावनाओं का प्रगटीकरण कर सकते हैं. आखिर श्रंगार भी जीवन का एक रस है.जो महत्वपूर्ण ही नहीं बल्कि उर्जापूर्ण भी है.

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