शिक्षा-माध्यम के बदलाव का प्रबंधन

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डॉ. मधुसूदन

(एक)
क्रान्तिकारी प्रगति का मूल:
शिक्षा के माध्यम का बदलाव, भारत की क्रान्तिकारी प्रगति का सशक्त मौलिक कारण मानता हूँ। यह ऐसा धुरा है, जिस पर सारे राष्ट्र की प्रगति का चक्रीय (Merry Go Round) हिण्डोला आधार रखता है, और कुशलता पूर्वक चतुराई से, प्रबंधन करनेपर, प्रचण्ड गति धारण कर सकता है; सपने में भी जो किसी ने, सोची न हो, इतनी उन्नति भारत कर सकता है; देश छल्लांग लगाकर आगे बढ सकता है।
प्रादेशिक भाषा माध्यम से या हिन्दी माध्यम की शिक्षा से, प्रत्येक छात्र के ३ से ४ वर्ष बचते है। अबजों का खर्च बचता है। इन बचे वर्षों में छात्र अपनी रुचि के विषय में विशेषज्ञ बन सकता है। उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकता है। चाहे तो परदेशी भाषा (चीनी, रूसी, जापानी, अंग्रेज़ी, फ्रान्सीसी इत्यादि) पढ सकता है। कोई हानि नहीं।

education(दो)
सुझाव:
समग्र भारत की अविचल श्रद्धा से युक्त, सामने जिन्हें केवल भारत ही दिखता हो, दृष्टि में प्रादेशिकता का अंश भी ना हो, ऐसे विद्वानों का आयोग बने। ऐसा आयोग ही, भाषा नीति द्वारा भारत की क्रान्तिकारी प्रगति, आरक्षित कर सकता है।
सारे स्वार्थ प्रेरित, और प्रादेशिक हितों के लिए राजनीति खेलनेवाले, तत्त्वों को ऐसे आयोग से दूर रखना चाहिए। भाषा का गोवर्धन पर्बत उठाने में उंगली ही भले लगे; पर पर्बत पर चढकर भार बढानेवालों से सावधान! ऐसे तत्त्वों को दूर रखा जाए। उन्नति की बालटी में अपना पैर गाडकर उसे उठाने का ढोंग करनेवालों को भी दूर रखा जाए।
(तीन)
विषय अति गंभीर:
विषय अति गंभीर है। इसके कारण प्रभावित होनेवाले सारे क्षेत्रों के, उनके अंगों और उपांगों का भी विचार कर बदलाव का प्रबंधन आवश्यक है। सही और *सूक्ष्म नियोजन और प्रबंधन* भारत को क्रान्तिकारी प्रगति दिला सकता है। और हडबडी में कुनियोजित बदलाव हमें विफल भी कर सकता है।

(चार)
ढिलाई बरतने पर दारूण असफलता:
ढिलाई बरतने पर दारूण असफलता और निराशा भी हाथ लग सकती है। दूरदृष्टि सहित सोच विचार कर, ऐसी असफलता की सभावना भी निर्मूल करनी होगी।असफल होने पर फिरसे अंग्रेज़ी के पुरस्कर्ता हम पर चढ बैठेंगे। इस लिए भारत को परिश्रम के लिए भी तैयार रहना पडेगा।

(पाँच)
इज़राएल और जापान का इतिहास:
संक्रमण काल में कठोर परिश्रम भी करना ही होता है। इज़राएल और जापान का इतिहास हमें यही सीख देता है। कुछ जापान और इज़राएल के, भारतीय विशेषज्ञों को उनके शिक्षा माध्यम के विषय के अनुभवों को जान कर विवरण देना होगा, सीख लेनी होगी। उनकी गलतियाँ जानकर हमारा विकासक्रम सुनिश्चित और त्रुटि-रहित करना होगा।

(छः)
महत्त्व के बिन्दू:
इस बदलाव के महत्त्व के बिन्दू निम्न है।
(१) हडबडी में वादा पूरा करने से बचा जाए।
(२) बदलाव से अपेक्षित और प्रभावित क्षेत्रों का पूरा आकलन भी आवश्यक है।
(३) प्रबंधन की (Critical Path Method ) अर्थात निर्णायक पथ पद्धति का अवलम्बन किया जाए।
(४) सारे प्रभावित और आवश्यक क्षेत्रों का अध्ययन हो, जिससे ऐसा बदलाव सफलता से किया जाए, और, विशेष हानियों से बचा जाए। यदि कुछ हानियाँ हो भी, तो उनका प्रभाव कम से कम होगा।
(सात)
निर्णायक पथ पद्धति: (Critical Path Method):
निर्णायक पथ पद्धति का अवलम्बन करने से सारे समस्यात्मक पहलु उजागर हो जाते हैं। साथ साथ सारी क्रियाओं का क्रम और उनकी कालावधि उभर कर सामने आ जाती है। समस्याएं भी पता चल जाती है। लेखक ने Critical Path Method का प्रबंधन पढाया है, और अभियांत्रिकी में योजा भी है।

(आठ)
संक्रमण काल में कठोर परिश्रम:
शिक्षक प्राध्यापक से लेकर छात्र और अभिभावक तक सभी को इस संक्रमण काल में कठोर परिश्रम करना होगा। कम से कम प्राथमिक चरण में किसी समूह विशेष को, आरक्षित ना रखा जाए। परीक्षा की तैयारी के लिए सहायता की जाए, पर परीक्षा का स्तर सभी के लिए समान रखा जाए। आंशिक आरक्षण समाज के साहस, पराक्रम और पुरूषार्थ की हत्त्या कर देता है। और आरक्षित समाज की, अकर्मण्यता को भी प्रोत्साहित करता है। साथ साथ सभी की, कर्म-निष्ठा को मार देता है।इस दृष्टि से, आरक्षण देश की अधोगति को ही आरक्षित करता है। उसी प्रकार जिस समाज को आरक्षित किया जाता है, उसीकी अनचाही अवनति होती है। आरक्षण हो, तो भी स्थायी नहीं होना चाहिए।

(नौ)
शिक्षा माध्यम बदलाव के घटक :

घटक हैं। (१) छात्र और उसके अभिभावक माता पिता
(२) शिक्षक और प्राध्यापक
(३) पाठ्य पुस्तकें
(४) शिक्षण संस्थाएँ –शालाएँ
(५)विश्वविद्यालय
(६) आजीविका या रोजगार देनेवाले व्यवसाय और उद्योग
(७) शासन
(८) अंग्रेज़ी सहित अन्य परदेशी भाषाएँ।
आजीविका या रोजगार देनेवाले व्यवसाय और उद्योगों से सघन परामर्श किया जाए। उनकी बैठकें हो। उनकी आवश्यकताएं जानी जाएँ। कितनी परदेशी भाषा की आवश्यकता उन्हें पडेगी, यह भी जानना चाहिए।
(दस )
पाठ्य पुस्तकों का प्रकाशन:
पाठ्य पुस्तकों के लिए डॉ. रघुवीर की पारिभाषिक शब्दावलियाँ उपयोग में लायी जा सकती है। और उन शब्दावलियों का प्रयोग भारत की सारी प्रादेशिक भाषाओं में समान रूपसे लागू हो सकता है।
पाठ्य पुस्तकों का लेखन, संपादन, मुद्रण इत्यादि भी साथ साथ चलता ही रहेगा।एक बार पुस्तकें बन जाने पर आगे अधिकाधिक सरल होता चला जाएगा। धीरे धीरे पुस्तकों को परिपूर्ण बनते ही जाना है।
सुविधा की दृष्टि से पहले हिन्दी और दूसरे चरण में प्रादेशिक भाषाओं में प्रबंधन मुझे उचित लगता है; विशेषतः जब, हिन्दी सिनेमा सारे भारत में देखा जाता है।
और पारिभाषिक शब्दावली संस्कृत होने से भारत की सभी प्रादेशिक भाषाएं समान रूप से लाभान्वित होंगी, साथ साथ छात्रों का अन्य प्रदेशो में स्थलान्तर भी न्यूनमात्र कठिनाई से होगा।
भारत की उन्नति से कोई समझौता ना किया जाए।

(ग्यारह)
मेरी तथ्यात्मक सामग्री:
इस आलेख की मेरी सामग्री स्थूल और अनुमान पर आधारित है। इस मर्यादा के कारण यह आलेख एक दिशा निर्देश भी नहीं केवल संकेत दर्शक ही है। ऐसे बदलाव के सभी पहलुओं पर विचार कर उनका परस्पर तालमेल भी रखना होता है। ऐसे बदलाव की समय सारणी या समय तालिका (टाईम टेबल )बनानी होगी;
(Critical Path Method) निर्णायक पथ पद्धति के उपयोगसे ऐसे बदलाव सहज और कम से कम कठिनाई से संभव हो जाते हैं।कुछ ऐसे प्रबंधकों को नियुक्त किया जाना चाहिए जो निर्णायक पथ पद्धति के जानकार हो।कुछ पारिभाषिक शब्दावली की जानकारी भी रखता हो।
जितना पूर्व नियोजित बदलाव होगा, और सारे स्पर्शित और प्रभावित घटकों का पूर्व विचार किया जाएगा, उतना ही सहज बदलाव होगा। असुविधाएँ कम होंगी। समस्याएं हुई तो भी सीमित होगी।

बदलाव के हर बिन्दूपर सघन गहरा विचार कर, सारे प्रभावित (Affected)क्षेत्रों को विश्वास में ले कर उचित समय सारणी बनानी होगी। हडबडी में नहीं किया जाए।

टिप्पणियों के आधार पर आगे का आलेख लिखा जाएगा।
प्रश्न हो तो अवश्य पूछें। अस्पर्शित बिन्दू उजागर करने की कृपा करें।

11 COMMENTS

  1. आदरणीय मधुसूदन भाई ,
    शिक्षा के माध्यम में परिवर्तन हेतु आपका आलेख तर्कसंगत , सशक्त एवं प्रभावी है।
    शिक्षा के माध्यम में परिवर्तन के संबंध में दिये गए सभी सुझाव और तर्क प्रामाणिक हैं ।
    यदि मूल ही विदेशी रहा तो फिर इस भारतीय-संस्कृति रूपी वृक्ष के सभी पल्लव और पुष्प भी विदेशी ही रहेंगे ।
    उनमें स्वदेशी का भाव कभी भी नहीं जन्मेगा ।
    मैंने भी अन्तर्जाल पर सुलभ हिन्दी वैश्वीकरण समिति में इस विषय पर एक आलेख भेजा था , जहाँ से ये सुझाव नई शिक्षाविधि संबंधी परिवर्तनों हेतु बनाई गई समिति को भेजे जा रहे थे । उसकी अंतिम तिथि ३० जुलाई थी । क्या आपने अपने इन क्रांतिकारी सुझावों को भी उन्हें भेजा था ?
    ये अत्यन्त विचारणीय हैं और जन-जागृति के साथ ही अंग्रेज़ी के समर्थक विद्वानों की आँखें खोलने वाले हैं।
    सादर,
    शकुन्तला बहन

    • ओर से आलेख का विषय बहुतः, स्वेच्छा से ही चुना जाता है।
      (२)जिन विषयों पर सहसा अन्यत्र या ऐसी दृष्टि से लिखा नहीं जाता, उन विषयों पर और उस दृष्टि से मुझे लिखने की प्रेरणा प्रकृति की ओरसे आती रहती है। (मैं उसका व्यक्तिगत श्रेय लेना सही नहीं मानता।)
      (३)विशेष मुझे ढूँढकर ही सही, पर, प्रत्यक्ष उदाहरणों का प्रमाण सुहाता है। मात्र किसी पश्चिमी विद्वान के उद्धरण से विषय को स्वीकारना मुझे अच्छा नहीं लगता।
      (३) इस लिए मैं अपने स्वतंत्र और वैयक्तिक एवं प्रत्यक्ष प्रमाणॊं का चयन या शोध का परिश्रम अपनी क्षमता और स-अवकाश करता रहता हूँ।
      (४)वास्तव में स्वान्तः सुखाय ही प्रवृत्ति होती है।
      (५) कर्मयोग में मेरी बहुत श्रद्(१)आप विषय की जानकार हैं; अतः आपकी टिप्पणियाँ आलेख को प्रमाणित करने में काफी योगदान देती हैं। मेरीधा है।पर उस में भी यदा- कदा टिक नहीं पाता, और आगे पीछे होता रहता हूँ। फल मिलनेपर हर्षित और ना मिलने पर कर्मयोग से संतोष।
      (६) पर प्रेरणा को मानने पर विवश ही हूँ।– वैयक्तिक समस्याएँ भी अपना अस्तित्व जताती रहती हैं।
      (७)====>अनुरोध:==> पर आप अपना प्रामाणिक और स्वतंत्र दृष्टिकोण, बिना हिचकाए, सदैव व्यक्त करती रहें। सही-गलत का अनुमान मुझे अपने आप नहीं होता। बहुत समय से व्यक्त करना चाहता था। हृदय तल से धन्यवाद।

  2. शुभ व सही रास्ता यही है, मधुसुदन जी। बहुत ही अच्छा आलेख है। धन्यवाद ।

    क्यों न प्रवक्ता तथा आप सभी सज्जन व्यक्ति इस ओर मोदी जी का ध्यान आकर्षित करे , कृपया । धन्यवाद ।
    मैंने तो अप्रैल 2014 मे असफल प्रयास किया था।

    • धन्यवाद। आपकी सूचना के अनुसार शिक्षा मंत्री के लक्ष्य में लाने का प्रयास होगा। मेरी जानकारी है; कि, मोदीजी अभी बहुत ही व्यस्त है।

  3. शिक्षा माध्यम के बदलाव के घटक का सर्व प्रथम बिंदु ( विद्यार्थी और अभिभावक माता पिता ) मेरी दृष्टी में भी , विद्यार्थी की सफलता का सबसे महत्व पूर्ण आधार स्तम्भ है । आज भारत मे गिरती शिक्षा के स्तर के लिए विद्यार्थी और अभिभावक माता पिता उतने ही जिम्मेदार है जितनी की शिक्षण संस्थाए एवं वहां के अयोग्य कर्तव्यहीन शिक्षक और माध्यम भाषा , भाषाए । न कोई पढ़ने जाता है और न कोई पढ़ाता है। “श्रधावान् लभते ज्ञानम् “का पूर्णतया अभाव दिखता है | शिक्षक और शैक्षणिक संस्थाए किसी भी समाज का आधार स्तम्भ होती है । देश और समाज के प्रत्येक कोने मे विद्यार्थी अपने ज्ञान से समाज को तभी आलोकित कर सकता है जब उसने अपने आचार्ये से सही शिक्षा पाई हो जो कि आज के समय मे कम ही दिखता है । छात्र की सर्व प्रथम पाठशाला माँ , माता – पिता होते है । द्वतीय उचित शैक्षणिक संस्थाए , योग्य शिक्षक , और शिक्षा का माध्यम भाषा , भाषाए । आज के युग मे परा और अपरा विद्या का ज्ञान संतुलित नही होता है और एक ज्ञान दूसरे ज्ञान के अभाव मे अपूर्ण है ।
    लेख बहुत अच्छा है , वृहद् चर्चा का विषय है ।

    • बहन रेखा जी—अगले आलेख में आप पूरा ढाँचा देख सकती हैं।

  4. प्रादेशिक भाषा माध्यम से या हिन्दी माध्यम की शिक्षा से, प्रत्येक छात्र के ३ से ४ वर्ष बचते है।
    How long it takes to be a Doctor or Pharmacist in India compared to USA?

    चाहे तो परदेशी भाषा (चीनी, रूसी, जापानी, अंग्रेज़ी, फ्रान्सीसी इत्यादि) पढ सकता है। कोई हानि नहीं।
    In internet age all these languages are taught through English medium in Roman script. Why? One may look at all languages teaching websites and videos.

    Schools need to provide Equal education in all languages through translation,transcription and transliteration.

    • अलग बिन्दूओं को उठाकर विषय को उलझाइए नहीं।

  5. विश्व में जिस देश ने भी उन्नति की हैं उस देश ने अपनी भाषा में उन्नति की हैं। कोई देश बिदेशी में कभी उन्नति नहीं कर सकता। भारतीया लोगो को बहुत कम नोबल पुस्कार मिले हैं। इसका कारन हैं के भारत में एक बिदेशी भाषा प्रमुख भाषा हैं और उच्च शिक्षा इसी भाषा में होती हैं। एक विद्यार्थी जितना समय अंग्रेजी सिखने में ख़र्च करता हैं उतना समय बह अन्य शेष सभी विषयो को भी नहीं देता हैं। . अवअंग्रेजी भाषा में शिक्षा प्राप्त करने में बहुत समय लगता हैं। और भारत को अंग्रेजी भाषा में शिक्षा देने से प्रत्येक वर्ष बहुत अधिक धन ख़र्च करना पड़ता हं। शिक्षा के माध्यम के वारे ड्र. मदूसयधन जी ने वहुत ही सटीक और विस्तार से लेख लिखा हैं। जो लोग शिक्षा के कसेत्र में लिप्त हैं भले पाठ्य क्रम बनाने वाले हो प्रशासनिक दृस्टि से या अध्यापन दृष्टि से जुड़े हो , ऐसे लोगो को डा मधुसूदन जी का लेखश्यं पढ़ना चाहिए। भारत में प्रत्येक व्यक्ति शिक्षित हो इसलिए यह परमवश्यक हैं के भारत में सारी पढ़ाई हिंदी संस्कृत और केष्ट्रिये भाषयो में होनी चाहिए।

  6. डाक्टर मधुसूदन के विचारों से पूरी तरह असहमत न होते भीं मैं यह कहना चाहता हूँ कि जहाँ सार्वजनिक शिक्षा के नाम पर कुछ है है ही नहीं,वहां इस तरह राष्ट्र भाषा के विकास के लिए आयोग बनाना कुछ मजाक सा लगता है.डाक्टर साहिब अमेरिका में रहते हैं,अतः हो सकता है कि भारत के प्राथमिक शिक्षा के अधोगति से पूरी तरह न अवगत हो,पर उनको जानना चाहिए कि यहां पूर्ण शिक्षा पद्धति एक व्यापार बन कर रह गया है.क्या उन्होंने अमेरिका या कनाडा में ऐसा देखा है?डाक्टर साहिब,यहां पहले सिस्टम में सुधार करके अच्छी शिक्षा को सर्व सुलभ बनाने की आवश्यकता है.एक बार जब गुणवत्ता युक्त शिक्षा सर्व सुलभ हो जाये,तब दूसरे चरण में इस और ध्यान दिया जा सकता है.आज भी भारत के अस्सी से पच्चासी प्रतिशत स्कूलों में मातृभाषा या हिंदी में ही शिक्षा दी जाती है,पर वह होती है,शिक्षा के नाम पर महज एक बकवास.पहले इसमें सुधार की आवश्यकता है.

    • C. P. M. से इनका प्रबंध हो जाएगा। आप जानते होंगे।

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