प्रख्यात गायक मन्ना डे के जन्मदिन (1 मई) पर विशेष
मोहन मंगलम
सुप्रसिद्ध पार्श्वगायक मन्ना डे केवल गीत ही नहीं गाते थे बल्कि अपने गायन से शब्दों के पीछे छिपे भावों को भी खूबसूरती से सामने ला देते थे। शायद यही कारण है कि प्रख्यात हिन्दी कवि हरिवंश राय बच्चन ने अपनी अमर कृति ‘मधुशाला’ को स्वर देने के लिए मन्ना डे का ही चयन किया था।
मन्ना डे का जन्म 1 मई 1919 को कलकत्ता के महामाया व पूरन चन्द्र डे के परिवार में हुआ था। उन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा इन्दु बाबुर पाठशाला से पूरी करने के बाद स्कॉटिश चर्च कॉलेज में प्रवेश लिया और फिर विद्यासागर कॉलेज से स्नातक किया। कॉलेज के दिनों वे कुश्ती और मुक्केबाजी की प्रतियोगिताओं में खूब हिस्सा लेते थे। वे फुटबॉल के भी काफी शौकीन थे।
मन्ना डे के चाचा संगीताचार्य कृष्ण चंद्र डे शास्त्रीय संगीत में पारंगत थे। घर पर संगीत के अनेक महारथी आते रहते थे। रात-रात भर गाना बजाना हुआ करता था। ऐसे में बालक मन्ना का संगीत के प्रति सहज ही आकर्षण बढ़ने लगा था। कृष्ण चन्द्र डे और उस्ताद बादल खान एक बार साथ-साथ रियाज कर रहे थे। तभी बादल खान ने मन्ना डे की आवाज सुनी और कृष्ण चन्द्र से पूछा – “यह कौन गा रहा है?” इस पर मन्ना डे को बुलाया गया। उस्ताद के पूछने पर मन्ना ने कहा – “बस ऐसे ही गा लेता हूं।” बादल खान ने मन्ना की छिपी प्रतिभा को पहचान लिया। इसके बाद मन्ना अपने चाचा से संगीत की शिक्षा लेने लगे।
पढ़ाई पूरी करने के बाद मन्ना डे अपने चाचा के साथ 1942 में मुंबई आ गए। संगीत की अच्छी समझ होने के कारण उन्होंने फिल्मों में असिस्टेंट म्यूजिक डायरेक्टर के तौर पर काम करना शुरू किया। गायक के तौर पर मन्ना डे को सबसे बड़ा ब्रेक फिल्म ‘तमन्ना’ से मिला। इस फिल्म के गाने को मन्ना डे ने सुरैया के साथ मिलकर गाया। यह गाना बड़ा हिट रहा। इसके बाद तो मन्ना डे की गाड़ी चल पड़ी। 1943 में फिल्म ‘राम राज्य’ रिलीज हुई थी जिसमें मन्ना डे ने बतौर सोलो सिंगर एक गाने को अपनी आवाज दी थी। यह एकमात्र ऐसी फिल्म है, जिसे महात्मा गांधी ने देखा था।
सन् 1961 में संगीत निर्देशक सलिल चौधरी के संगीत निर्देशन में फिल्म ‘काबुलीवाला’ की सफलता के बाद मन्ना डे शोहरत की बुलंदियों पर जा पहुँचे। फिल्म ‘आवारा’ में उनके द्वारा गाया गीत “तेरे बिना चाँद ये चाँदनी!” बेहद लोकप्रिय हुआ। इसके बाद उन्हें बड़े बैनर की फिल्मों में अवसर मिलने लगे।
गायकी को लेकर मन्ना डे के मन में अपार श्रद्धा थी। उन्हें मुश्किल गीत गाने में महारत हासिल थी। किसी भी निर्माता को अपनी फिल्म में शास्त्रीय गीत गवाना होता था तो वह सिर्फ मन्ना डे को ही साइन करता था। मशहूर गायक मोहम्मद रफी ने एक बार कहा था, “आप लोग मेरे गीत को सुनते हैं लेकिन अगर मुझसे पूछा जाये तो मैं कहूँगा कि मैं मन्ना डे के गीतों को ही सुनता हूँ।”
मन्ना डे के गाये गीत हर तबके में काफी लोकप्रिय हुए। “लागा चुनरी में दाग, छुपाऊँ कैसे?”, “पूछो न कैसे मैंने रैन बितायी!”, “सुर ना सजे, क्या गाऊँ मैं?”, “जिन्दगी कैसी है पहेली हाय, कभी ये हँसाये कभी ये रुलाये!”,”तुझे सूरज कहूँ या चन्दा, तुझे दीप कहूँ या तारा!” और “आयो कहाँ से घनश्याम?” जैसे गीत ही नहीं, उनके गाये “यक चतुर नार, बड़ी होशियार!”, “यारी है ईमान मेरा, यार मेरी जिन्दगी!”, “प्यार हुआ इकरार हुआ”, “ऐ मेरी जोहरा जबीं!” और “ऐ मेरे प्यारे वतन!” जैसे गीत आज भी लोगों की जबान पर चढ़े हुए हैं।
मन्ना डे सन 1969 में फिल्म ‘मेरे हुजूर’ के लिए सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक, 1971 में बांग्ला फिल्म ‘निशि पदमा’ और 1970 में प्रदर्शित फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ में सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायन के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। भारत सरकार ने फिल्मों में उल्लेखनीय योगदान के लिए सन् 1971 में मन्ना डे को ‘पद्मश्री’ और 2005 में ‘पद्मभूषण’ अलंकरण से सम्मानित किया। वहीं, सन 2007 में उन्हें फिल्मों का सर्वोच्च सम्मान ‘दादा साहेब फाल्के पुरस्कार’ प्रदान किया गया।
मन्ना डे ने 3000 से अधिक गानों को अपनी आवाज दी। हिन्दी एवं बांग्ला फिल्मी गानों के अलावा उन्होंने अन्य भारतीय भाषाओं में भी गीत रिकॉर्ड करवाये। मन्ना डे ने 90 के दशक में म्यूजिक इंडस्ट्री से पूरी तरह से दूरी बना ली थी। 1991 में आई फिल्म ‘प्रहार’ के गाने ‘हमारी मुट्ठी में’ गाने को उन्होंने अंतिम बार अपनी आवाज दी थी।
मन्ना डे पार्श्वगायक तो थे ही, उन्होंने बांग्ला भाषा में अपनी आत्मकथा भी लिखी थी जो अन्य भाषाओं में भी छपी। उनकी जीवनी को लेकर अन्य लेखकों ने भी पुस्तकें लिखीं। 24 अक्टूबर 2013 को 94 साल की उम्र में मन्ना डे ने इस फानी दुनिया को अलविदा कह दिया लेकिन अपने सुमधुर गीतों के माध्यम से वे सदैव अमर रहेंगे।
मोहन मंगलम