लोकसभा चुनावों के नजदीक आने के साथ ही सियासी जगत का पारा चढ़ना लाजिमी ही है । प्रधानमंत्री पद के संभावित प्रत्याशियों का नाम या चुनाव पूर्व नतीजों को जानने की कवायद रोजाना ही चल रही है । जहां तक वर्तमान परिप्रेक्ष्यों का प्रश्न है तो निश्चित तौर पर दो ही नाम उभर कर सामने आ रहे हैं । कांग्रेसनीत संप्रग गठबंधन की ओर से पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी एवं भाजपा के राजग गठबंधन की ओर से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम आगे बढ़ाये जाने की पूरी संभावना है । ऐसे में इन प्रत्याशियों को लेकर वाद विवाद होना लाजिमी भी है । बहरहाल जहां तक वास्तविक आकलन का प्रश्न है तो निश्चित तौर पर मोदी और राहुल की तुलना एक अप्रासंगिक विषय है । बड़े अफसोस की बात है कि आजकल की चर्चाओं को देखकर यही लगता है कि देश का प्रबुद्ध वर्ग मानसिक दिवालीयेपन का शिकार हो चुका है । यदि नहीं तो इस बेवजह की सतही तुलना का उद्देश्य क्या है ?
इस विषय पर बेहतर चर्चा के लिए हमें दोनों प्रत्याशियों का निष्पक्ष आकलन करना होगा । सबसे पहले बात करते हैं कांग्रेस के युवराज एवं तथाकथित युवा राहुल गांधी की । कुछ माह पूर्व कांग्रेस के चिंतन शिविर में राहुल को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाए जाने के बाद से ही उनके प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाए जाने की अटकलों ने जोर पकड़ लिया है । अब जहां तक उन्हे पार्टी का उपाध्यक्ष बनाये जाने की बात है तो ये मात्र कांग्रेसी परंपरा का निर्वाह है ।यदि नहीं तो राहुल की विशेष योग्यताएं क्या हैं ? उनके समस्त राजनीतिक जीवन की उपलब्धियों को यदि टटोला जाए तो शायद वे आज भी ढ़ंग के लोकतांत्रिक नेता बनने की कुव्वत नहीं रखते । खैर, वर्तमान परिप्रेक्ष्यों में वे अमेठी के माननीय सांसद भी हैं । इसलिए उनकी क्षमता का आकलन उनके संसदीय क्षेत्र के विकास से भी जोड़कर देखा जा सकता है । मेरा अनुरोध है राहुल की चरण वंदना करने वाले समस्त विद्वानों से कि वे कभी अमेठी का दौरा करके देखें । उन्हे राहुल की क्षमताओं की जमीनी हकीकत का पता चल जाएगा । चरैवेती चरैवेती के वैदिक सिद्धांतों का पूरी निष्ठा से अनुपालन करने वाले राहुल बाबा यूं तो घुमंतु जीव हैं । कभी महाराष्ट्र (मुंबई)की लोकल ट्रेन के सफर या उत्तर प्रदेश के नोएडा या झांसी के दलित परिवारों में वे अक्सर ही देखे जा सकते हैं । बावजूद इसके बड़े अफसोस की बात है कि वे अपने संसदीय क्षेत्र के लिए ही वक्त नहीं निकाल पाते । पूरे देश के दुख दर्द को संसद में उठाने का बीड़ा लेने वाले राहुल बाबा संसद में एक बार भी अमेठी की समस्याओं को उठाना मुनासिब नहीं समझते,क्यों ? क्या वाकई वहां पर रामराज्य है ? राहुल बाबा यूं तो संसद में भी कम ही दिखाई देते हैं लेकिन यदा कदा वे किसी न किसी जनसमस्या पर चर्चा अवश्य करते हैं । गौरतलब है कि राहुल बाबा ने अपने संपूर्ण राजनीतिक जीवन में शायद ही किसी जनसमस्या को अंजाम तक पहुंचाया है । बावजूद इसके यदि दलित परिवार में रोटियां खाने से योग्यता का आकलन होता है तो निश्चित तौर पर वे सर्वश्रेष्ठ हैं । उनसे ज्यादा दलित परिवारों की रोटियां शायद ही किसी ने तोड़ी हों ।
अंतिम बात उनकी मानसिक दक्षता भी बहुधा संदिग्ध ही रही है । अपने एक संबोधन में उन्होने राष्ट्र को सर्वाधिक क्षति पहुंचाने वाले कारक का नाम भगवा आतंकवाद बताया था तो दूसरे में उन्होने संघ की तुलना सीधे सीधे सिमी से कर डाली थी । अब आप ही सोचिए इस भीषण काल में जब पूरा विश्व इस्लामी आतंकवाद से जूझ रहा है तो राहुल का ये आकलन क्या प्रमाणित करता है ? बावजूद इसके यदि वे कुछ लोगों को सर्वश्रेष्ठ नेतृत्वकर्ता नजर आते हैं तो इसमें उन महानुभावों का कोई दोष नहीं है । इतिहास गवाह है कि हमारा पूरा भारतीय इतिहास ही इस दिशा में दिग्भ्रमित है । या कड़े शब्दों में कहा जाए तो हमारा पूरा प्रायोजित इतिहास वास्तव में चाटुकारिता की रोशनाई से लिखा गया है । अर्थात हमारे इतिहासकार अकबर की महानता तो स्वीकार कर लेते हैं लेकिन राष्ट्रप्रेम के लिए घास की रोटियों पर गुजारा करने वाले महाराणा प्रताप का चरित्र उन्हे प्रभावित नहीं करता ।
चर्चा का दूसरा पक्ष गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर विमर्श के बिना अधूरा ही होगा । नरेंद्र मोदी को जानने से पूर्व हमें उनकी पारीवारिक पृष्ठभूमि को जानना होगा । कांग्रेस के युवराज के मुकाबले मोदी ने जीवन में अनेक उतार चढ़ाव देखे हैं । सामान्य परिवार में जन्मे नरेंद्र मोदी ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत संघ के प्रचारक के तौर पर की थी । जहां तक उनकी वर्तमान उपलब्धियों का प्रश्न है तो ना जो वे बड़े रसूखदार परिवार से ताल्लुक रखते हैं और ना ही भाजपा के किसी बड़े नेता के कृपा पात्र ही हैं ।यदि होते तो आज उनकी उपलब्धियों को देखते हुए निश्चित तौर पर सार्वजनिक तौर पर प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया जाता । ज्ञात हो कि दिखावे के इस कालक्रम में एक ओर लगभग सभी दलों के बड़े-बड़े नेता स्वयं ही अपनी दावेदारी जता रहे हैं,नरेंद्र मोदी का नाम जनता की पहली पसंद है । ये मेरा आकलन नहीं है, ये आकलन है वर्तमान मीडिया संस्थानों का । वही मीडिया संस्थान जो गुजरात चुनाव के पूर्व विज्ञापनों के माध्यम से गुजरात के विकास पर कालिख पोतने से भी नहीं चूक रहे थे । जहां तक लोकप्रियता का प्रश्न है बतौर मुख्यमंत्री तीसरी पारी वो भी पूर्ण बहुमत के साथ कितने कद्दावरों को नसीब हुई है ये आप सभी मुझसे बेहतर जानते हैं । जहां तक गुजरात के विकास का प्रश्न है तो वो भी आज पूरी दुनिया के सामने है । बात चाहे आर्थिक उन्नयन की हो या इंफ्रास्ट्रक्चर की तो गुजरात को टक्कर देने वाला कोई भी प्रदेश वर्तमान में पूरे देश में नहीं है । इन सबके बावजूद घपले-घोटालों में नाम न जुड़ने के कारण उनका नाम बार-बार गोधरा दंगों से जोड़कर धूमिल करने का प्रयास क्या साबित करता है ? वैसे भी यदि राज्य में दंगों के लिए मात्र मुख्यमंत्री को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है तो इस फेहरिस्त में और भी कई नाम है कोई उन पर निशाना क्यों नहीं लगाता ? भारतीय संदर्भों में आज नरेंद्र मोदी विकास का पर्याय बन चुके हैं,ऐसे में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में उनका नाम उठना लाजिमी ही है । जहां तक इस पद की पात्रता का प्रश्न है तो वो वास्तव में विकास ही है न कि राजतंत्र के युवराज की ताजपोशी । ऐसे में युवराज की रहनुमाई में अपनी दाल रोटी चलाने वालों से मेरा विनम्र निवेदन है कि वे तुलना से पूर्व कद का आकलन अवश्य कर लें । आखिर में सिर्फ इतना ही कहना चाहूंगा कि नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी की तुलना वास्तव में बेवकूफी से ज्यादा कुछ और नहीं है ।
यह क्यों भूलते हैं कि राहुल बाबा कांग्रेस के सबसे ज्यादा पूजनीय खानदान से हैं ,जिसने ६० साल में कुछ वर्षों को छोड़कर भारत पर प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप में राज किया है.यह भी दर्शनीय और विचारनीय है कि कांग्रेसी इतनी गैरत खो चुके हैं कि उन्हें ऐसी गुलामी में ही रहने में मजा आता है,वे इनकी दांत फटकार केबिना राहत नहीं मिलती..इनके मातहत कम करने के ऐसे आदी हो गए हैं कि इस खानदान का अगर आठ साल का बच्चा भी वारिश बना दिया जाये तो वे राजशाही को याद करते हुए उसे सर पर रख लेंगे.इसमें गाँधी खानदान का कसूर नहीं ,यदि वह इंकार भी करें तो भी ये लोग उन्हें जबरन पद पर बैठा देंगे.राजीव और सोनिया गाँधी इसके उदाहारण हैं.इन बेचारों को वहीँ राहत मिलती है.इनमें इतना सहस है भी नहीं कि कोई स्वतंत्र विचार या निर्णय ले सकें.जब कि मजे कि बात यह है कि इस परिवार का तथाकथित आलाकमान कुछ चापलूसों से ही घिरा रहता है और वे ही इनके माध्यम से अपनी राज करने की पिपासा शांत करतें हैं.इस बात का इतिहास गवाह है.ऐसे में राहुल यदि योग्य हों या न हों चाहे वोह सक्रिय राजनीती में आना चाहे या न चाहें ये कांग्रेसी बैठा कर ही छोड़ेंगे.कभी कभी तो हंसी आती है कि उनके कहे किसी भी बेतुके,अनावय्श्क और अस्म्बधित असपष्ट बयां को ले कर ये ऐसी उडान भर लेते है कि शायद राहुल को भी पता नहीं होता कि इसका क्या आशय है.कांग्रेस के बुदीयाते नेता भी ऐसी प्रशंशा करते हैं कि ऐसा लगता है कि इन बेचारों को तो कुछ आता ही नहीं .उनकी राजनितिक पूंजी केवल यह चापलूसी ही है.
कांग्रेस को अपना अगला उमीदवार किसी अन्य नेता को बनाना चाहिए जिसकी कुछ अपनी सोच हो,जिसमें कुछ परिपक्वता हो,जो इस परिवार के साए से निकल कर अपना vison लागू कर सके.बेचारे मनमोहन सिंह जी योग्य होते हुए भी ऐसा नहीं कर सके.