वीर सावरकर की मराठी में लिखी कविता ‘अमर मृत’ में इस मुगल काल में भारतीय इतिहास के महानायक बांदा वीर बैरागी की वीरता, देशभक्ति और धर्म के प्रति निष्ठा का चित्रण किया गया है। जिसे पढ़ने से पता चलता है कि बंदा बैरागी भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास की एक अनमोल निधि हैं। सावरकर जी के अतिरिक्त राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने भी अपनी कविता ‘वीर वैरागी’ में माधव दास बैरागी (बंदा बैरागी) और गुरु गोविंद सिंह जी की वार्ता को अपनी कविता में स्थान प्रदान किया है।
बंदा बैरागी नाम मुगलों के अत्याचारों से त्रस्त भारतीय जनमानस को स्वाधीनता का पाठ पढ़ाकर उनके लिए अपना तन मन धन सर्वस्व समर्पित कर दिया था। इस धर्म योद्धा ने 09 जून, 1716 को देश व धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी। सितंबर 1708 में गुरु गोविंद सिंह जी से महाराष्ट्र के नांदेड़ में उनकी पहली भेंट हुई और वहीं से इन्होंने अपना जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने 21 फरवरी, 1709 को हरियाणा के सोनीपत के पास सेहरी खांडा नामक गांव में निंबार्क संप्रदाय और निर्मोही अखाड़े के संत महंत किशोर दास जी के निर्मोही अखाड़ा मठ को अपनी सैनिक गतिविधियों का केंद्र बनाया। उस समय देश के युवाओं में क्रांति का लावा धधक रहा था। उनके थोड़े से प्रयास के पश्चात ही मात्र 8 महीने के भीतर भीतर उनके पास एक ऐसी मजबूत सेना तैयार हो गई जो शत्रु का प्रत्येक प्रकार से सामना कर सकती थी।
वीर सावरकर ने भारतीय इतिहास पर मराठी में लिखी गई अपनी पुस्तक ‘भारतीय इतिहासतील सहा सोनेरी पाने’ में भी बंदा बैरागी की वीरता का वर्णन करते हुए अपनी कविता ‘अमर मृत’ का उल्लेख किया है। इस पुस्तक में बंदा बैरागी के बारे में वे लिखते हैं कि हिंदू इतिहास से उस वीर बलिदानी का नाम कभी भी नहीं मिटाया जा सकता जिन्होंने मुगलों द्वारा हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों का न केवल विरोध किया, वरन उन पर सशस्त्र आक्रमण भी किया। बंदा बैरागी सशस्त्र क्रांति के समर्थक थे। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि दुष्ट की दुष्टता का सामना करने के लिए उसी की भाषा में उत्तर देना आवश्यक होता है। कवि के शब्दों में उन्होंने देश के लोगों का आवाहन किया कि :-
धरती के फैले आंगन में
पल दो पल है रात का डेरा,
जुल्म का सीना चीर के देखो ,
झांक रहा है नया सवेरा ,
ढलता दिन मजबूर सही ,
चढ़ता सूरज मजबूर सही ,
रात के राही रुक मत जाना ,
सुबह की मंजिल दूर नहीं ।।
जिस समय बंदा वीर बैरागी को गुरु गोविंदसिंह हिंदुत्व की रक्षा के लिए गोदावरी के तट से उठाकर लाए थे , उस समय देश की शासन – व्यवस्था जनसाधारण पर कितने अत्याचार कर रही थी ? – इसका चित्रण करते हुए खफी खान नाम के इतिहासकार ने लिखा है :— “अब सब समझदार और तजुर्बेकार लोगों को यह साफ तौर से मालूम हो गया है कि कार्यक्रम के अनुसार राजकाज में विचार शून्यता आ गई है और किसानों की रक्षा करने , देश की समृद्धि को बढ़ाने और पैदावार को आगे ले जाने के काम बंद हो गए हैं । लालच और दुर्व्यवहार से सारा देश बर्बाद हो गया है । कमबख्त अमीनों की लूट खसोट से किसान पीसे जा रहे हैं । दरिद्र किसानों की औरतों के बच्चों की आहों का कर जागीरदारों के सिर है । भगवान को भूले हुए सरकारी अफसरों की सख्ती , जुल्मो सितम और बेइंसाफी उस दर्जे तक बढ़ गई है कि अगर कोई इसके सौवें हिस्से का भी वर्णन करना चाहे तो उसकी बयान करने की ताकत विफल हो जाएगी । ”
भारतवर्ष में ऐसे बहुत से इतिहासकार और लेखक हैं जो मुगल वंश के शासकों की प्रजा उत्पीड़न की नीतियों को ही प्रजा हितचिंतक नीतियों के रूप में स्थापित करके दिखाने का घृणास्पद प्रयास करते हैं , उनकी दृष्टि में मुगल वंश के शासकों के समान प्रजा हितचिंतक कोई भी शासक भारतवर्ष में कभी नहीं हुआ । जो लोग मुगल वंश के शासकों की शासन – व्यवस्था की प्रशंसा करते नहीं थकते और जिन्होंने उनके शासन व्यवस्था की उत्कृष्टता के गुणगान करते हुए ग्रंथों के ग्रंथ लिख डाले हैं , उनके लिए ख़फ़ी खान का उपरोक्त वर्णन आंख खोलने वाला है ।
गुरु गोविंदसिंह इस शासन – व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह की स्थिति में इसीलिए आ गए थे कि उनकी दृष्टि में मुगलों का शासन भारत के लोगों के लिए कदापि कल्याणकारी नहीं था ।उन्होंने भारतीय लोगों के हितों के विरुद्ध कार्य कर रही मुगल शासन – व्यवस्था को जनहितकारी शासन व्यवस्था न मानकर जनसामान्य के हितों पर कुठाराघात करने वाली क्रूर और निर्मम शासन व्यवस्था माना । यही कारण था कि वह यवन और मुगलों के अत्याचारों से मुक्ति पाने के लिए उठ खड़े हुए। इसके लिए उन्होंने अनेकों कष्ट सहे , अनेकों यातनाएं सहीं , परंतु कभी भी किसी भी कष्ट या यातना के सामने झुकने का काम नहीं किया।
मां भारती के आंगन में
किलोलें भरता था उन्माद ।
उनकी मजहबपरस्ती
करती गुलशन को बर्बाद ।।
हमारे नीति और न्याय,
थे शांति के उपाय ।
उपद्रव उनका था हथियार ,
हम मिटाते थे अन्याय ।।
डॉ राकेश कुमार आर्य