
आत्माराम यादव पीव
विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में भारतीय संस्कृति सबसे प्राचीन है ओर इन संस्कृतियों का प्रमुख केंद्र स्थान प्रयाग है जो तीरथों का राजा माना जाता है तथा प्रयागराज तीर्थशिरोमणि के गौरव से अपनी पहचान बनाए हुये है। हमारे पुराणों में तीर्थराज प्रयाग को जितना महिमा मंडित किया है उतना ही महात्म महर्षि वाल्मीक रचित रामायण, तुलसीदास रचित रामचरित्र मानस, महाभारत, मनुस्मृति सहित आधुनिक युग के कवि कालीदास ने प्रयाग के महत्व का सौन्दर्यमय एंव प्राकृतिक छटा के साथ भगवांन राम, ल्क्ष्मन ओर सीता के प्रसंगों सहित किया है। मनुस्मृति के दूसरे अध्याय के २१वें श्लोक में इस का नाम इस प्रकार आया है:- हिमवद्विन्ध्ययोर्मध्ये, यत्प्राग्विनशनादपि । प्रत्यगेव प्रयागाच्च, मध्यदेशः प्रकीर्तितः॥ अर्थात् हिमालय और विध्याचल के बीच उस स्थान से पूर्व जहां सरस्वती नदी बालू में लोप हो जाती है, और ‘प्रयाग‘ के पश्चिम में जो देश है, उस को ‘मध्यदेश‘ कहते हैं, उल्लेखित किया है। इन पुराणों में किए गए विस्तार में कुम्भ या महाकुंभ स्नानादी का उल्लेख नही मिला किन्तु यहा देवताओं का वास बताया गया है।
अग्नि पुराण जो गीताप्रेस गौरखपुर से प्रकाशित है उनमें अध्याय 109 पृष्ठ 235 से लगायत अध्याय 112 पृष्ठ 237 तक में प्रयाग का विस्तार से वर्णन किया गया है कि – प्रयाग मे तीन अग्निकुण्ड हैं, उनके बीचमें गंगा सब तीर्थों को साथ लिये बड़े वेगसे बहती हैं। वहाँ त्रिभुवन-विख्यात सूर्यकन्या यमुना भी हैं। गंगा और यमुना का मध्यभाग पृथ्वीका ‘जघन’ माना गया है और प्रयागको ऋषियों ने जघनके बीचका ‘उपस्थ भाग’ बताया है ॥ 1-4॥ प्रतिष्ठान (झूसी) सहित प्रयाग, कम्बल और अश्वतर नाग तथा भोगवती तीर्थ-ये ब्रह्माजी के यज्ञकी वेदी कहे गये हैं। प्रयाग में वेद और यज्ञ मूर्तिमान् होकर रहते हैं। उस तीर्थके स्तवन और नाम-कीर्तनसे तथा वहाँकी मिट्टी का स्पर्श करने मात्र से भी मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। प्रयाग में गंगा और यमुनाके संगमपर किये हुए दान, श्राद्ध और जप आदि अक्षय होते हैं ॥5 -7 ॥ प्रयागमें साठ करोड़, दस हजार तीर्थोंका निवास है; अतः वह सबसे श्रेष्ठ है। वासुकि नागका स्थान, भोगवती तीर्थ और हंसप्रपतन – ये उत्तम तीर्थ हैं। कोटि गोदान से जो फल मिलता है, वही इनमें तीन दिनों तक स्नान करनेमात्र से प्राप्त हो जाता है। प्रयाग में माघमास में मनीषी पुरुष ऐसा कहते हैं कि गंगा सर्वत्र सुलभ हैं; किंतु गंगाद्वार, प्रयाग और गङ्गा-सागर-संगम – इन तीन स्थानों में उनका मिलना बहुत कठिन है।’ प्रयागमें दान देनेसे मनुष्य स्वर्गमें जाता है और इस लोकमें आनेपर राजाओंका भी राजा होता है ॥8-12॥
कूर्म पुराण गीता प्रेस गोरखपुर के अध्याय 34 पृष्ठ 202 से अध्याय 37 पृष्ठ 210 में मार्कन्डेय ऋषि द्वारा ज्येष्ठ पांडव राजा युधिष्ठर को प्रयाग का महात्म तीर्थराज प्रयाग में स्नान दान फल का विस्तार से वर्णन किया है ओर उत्तराद्ध, अध्याय 36 में प्रयाग-क्षेत्र का परिमाण 6 हजार धनुष बतलाकर अध्याय 34 में प्रयाग नाम से ब्रह्मा का क्षेत्र 5 योजन में फैला हुआ लिखा है। गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित पद्म-पुराण में स्वर्ग-खंड अध्याय 85 पृष्ठ 366 पर प्रयाग कि महिमा बतलाते हुये लिखा गया है कि-प्रयाग अपने प्रभाव के कारण कारण सब तीर्थों से बढ़कर है। प्रयाग तीर्थ का नाम सुनने, प्रयाग का कीर्तन करने तथा उसे मस्तक झुकने से भी मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। जो धर्म का पालन करते हुए यहाँ संगम में स्नान करता है, उसे महान पुण्य की प्राप्ति होती है; ये प्रयाग देवताओंकी भी यशभूमि है। वहाँ थोड़े से दानव्रत भी महान् फल देते है प्रयाग में साठ करोड़ दस हजार तीर्थो का निवास होने से यह स्वमेव ही तीर्थराज का स्थान पाये हुये है। चारों विद्यायों के अध्ययन से जो पुण्य होता है तथा सत्यबादी पुरुषों को जिस पुण्य की प्राप्ति होती है, वह यहाँ गंगा -यमुना-संगममें स्नान करने से ही मिल जाता है। प्रयाग में भोगवती नामक उत्तम बाबड़ी है जो वासुकि नागका उत्तम स्थान माना गया है। जो वहाँ स्नान करता है, उसे अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है तथा यहा गंगा में कहीं भी स्रान करनेपर कुरुक्षेत्रमें स्नान करनेके समान पुण्य होता है।
पद्मपुराण के अनुसार गंगा जी का जल सारे पापोंको उसी प्रकार भस्म कर देता है, जैसे आग रूईके ढेरको जला डालती है। सत्ययुगमें सभी तीर्थ, क्षेत्र में पुष्कर, द्वापर में कुरुक्षेत्र तथा कलियुग में गंगा ही सबसे पवित्र तीर्थ मानी गयी हैं। पुष्कर, कुरुक्षेत्र और गङ्गा के जल में स्रान करने मात्र से प्राणी अपनी सात पहले की तथा सात पीछे की पीढ़ियोंको भी तत्काल ही तार देता है। गंगा जी का नाम लेने मात्र से पापों को धो देती हैं, दर्शन करने पर कल्याण प्रदान करती है तथा स्नान करने और जल पीने पर सात पीढ़ियों तक को पवित्र कर देती हैं। जब तक मनुष्य की हड्डी का गंगाजल से स्पर्श बना रहता है, तब तक वह पुरुष स्वर्ग लोक में प्रतिष्ठित रहता है। ब्रह्माजी का कथन है कि गंगा के समान तीर्थ नहीं, जहा जहां गंगा बहती है, वहाँ उनके किनारे पर जो-जो देश और तपोवन होते हैं, उन्हें सिद्ध क्षेत्र समझना चाहिये। जो मनुष्य प्रतिदिन प्रयाग राज तीर्थ के इस पुण्य प्रसंग का श्रवण करता है, वह सदा पवित्र होकर स्वर्गलोक में आनन्द का अनुभव करता है तथा उसे अनेकों जन्मों की बातें याद आ जाती है। जहाँ की यात्रा की जा सकती है और जहाँ जाना असम्भव है, उन सभी प्रकार के तीर्थों का वर्णन किया है। यदि प्रत्यक्ष सम्भव न हो तो मानसिक इच्छाके द्वारा भी इन सभी तीर्थोंकी यात्रा करनी चाहिये। पुण्यकी इच्छा रखनेवाले महाराज दिलीप ने वशिष्ठ जी से शास्त्रोंके तात्त्विक अर्थका ज्ञान हो जाने और सारी पृथ्वीपर तीर्थ-यात्राके लिये भ्रमण किया। जो मनुष्य इस विधिसे पृथ्वीकी परिक्रमा करेगा, वह मृत्युके पश्चात् सौ अश्वमेध यज्ञोंका फल प्राप्त करेगा, युधिष्ठिर ! तुम ऋषियोंको भी साथ ले जाओगे, इसलिये * पुनाति कीर्तिता पापं दृष्ट्वा भद्रं प्रयच्छत्ति। अवगाढा च पीता च पुनात्यासप्तमं कुलम् ॥ यावदस्थि मनुष्यस्य गङ्गायाः स्पृशते जलम् । तावत्स पुरुषो राजन् स्वर्गलोके महीयते ॥ न गङ्गासदृशं तीर्थ न देवः केशवात्परः । ब्राह्मणेभ्यः परं नास्ति एवमाह पितामहः ॥ यत्र गङ्गा महाराज स देशस्तत्तपोवनम् । सिद्धक्षेत्रं च विज्ञेयं गङ्गातीरसमाश्रितम् ॥
वराह-पुराण के प्रयाग को लेकर उल्लेख किया गया है कि प्रयाग में त्रिकंटकेश्वर, शूलबंटूक और सोनेश्वर आदि लिंग तथा वेणीमाधव है। मत्स्य पुराण के अध्याय 108 में लिखा है कि प्रयाग के कंबल और अश्वतर दो तट है। वहां भोगवती पुरी है। वह प्रजापति की वेदी की रेखा है। कूर्म-पुराण के अध्याय 37 में इन दोनों तटों को यमुना के दक्षिण बतलाया है। मत्स्य पुराण के अध्याय 105 में लिखा है कि यमुना के उत्तर-तट पर प्रयाग से दक्षिया ऋणमोचन तीर्थ है। इसी अध्याय में गंगा के पूर्व और उत्तर उर्वशी-रमगा, हंसप्रपतन, विपुल तथा इंसपांडुर तीर्थों का होना बतलाया गया है। बराह पुराया के अध्याय 138 में भी हंसतीर्थ का नाम आया है। मत्स्य पुराण के अध्याय 20 और 31 में गंगा के पूर्व समुद्रकूप का वर्णन है। पद्म-पुराण के अ० 23 और 25 में अक्षयवट की चर्चा आई है, और लिखा है कि उस के पचों पर विषाणु भगवान् सोते हैं। मत्स्य पुराण के अ० 104 में भी अक्षयवट तथा अग्नि-पुराया के अ० 111 में अक्षयवृक्ष, बासुकी और तीर्थ का उल्लेख है। इन तीर्थों में कुछ इस समय भी इन्हीं नामों से प्रसिद्ध हैं; जैसे बासुकी बसकी के नाम से दारागंज में, अक्षयवट किले के भीतर, सोमेश्वरनाथ और वेणीमाधव के मंदिर अरैल में तथा हंसतीर्थ और समुद्रकूप झूंसी में हैं। प्रयाग के माहाल्य के विषय में पुराणों में अध्याय के अध्याय रंगे पड़े हैं । वराह-पुराण के अ० 138 में लिखा है कि यह पृथ्वीमंडल के सब तीयों से उत्तम और तीर्थराज है। प्रयाग का उल्लेख तंत्र-ग्रंथों में भी हुआ है। तांत्रिकों के 64 पीठों में एक प्रयाग मी है, जिस की अधिष्ठातृ ललितादेवी हैं। इन का मंदिर नगर के दक्षिण यमुना-तट की ओर मीरापुर में है। बंगदेशीय शाक्त इस स्थान का बड़ा महत्व मानते हैं और जब यहां आते हैं तब उक्त देवी का दर्शन अवश्य करते हैं।
वाल्मीकीय रामायण में कुछ अधिक विस्तार के साथ प्रयाग का वर्णन मिलता है। उस के अयोध्याकांड के 50 से लेकर 52 सर्ग तक में लिखा है कि जब श्रीरामचंद्रजी को पिता से बनवास का आदेश मिला तो वह अयोध्या से चलकर श्रृंगवेरपुर (वर्तमान सिंगरौर) में गंगा के तट पर आए और उसी घाट से पार उतरकर ‘वत्सदेश’ में पहुँचे । यह वत्सदेश प्रयाग के पश्चिम के उस भूभाग को समझना चाहिए, जो गंगा और यमुना के बीच में अब ‘अंतरवेद’ अथवा ‘दोआबा’ कहलाता है, इस की राजधानी ‘कौशांबी’ थी, जिस का विस्तृत वर्णन आगे किया जायगा। इस के अनंतर 54 वें सर्ग में लिखा है कि फिर “राम एक बड़ा बन पार कर के उस देश को चले, जहां गंगा और यमुना का संगम है।” प्रयाग के निकट पहुँचकर उन्होंने लक्ष्मण से कहा कि “हे सौमित्र! देखो यही प्रयाग है, क्योंकि यहां मुनियों द्वारा किए हुए अग्निहोत्र का सुगंधित धुवां उठ रहा है। अब हम निश्चय गंगा और यमुना के संगम के निकट आ गए, क्योंकि दोनों नदियों के जल के मिलने का (कल-कल) शब्द सुनाई पड़ता है।” इस के आगे भारद्वाज मुनि के आश्रम में पहुँचने और वहां विश्राम करने का वर्णन है। फिर आगे 55 वें सर्ग में भारद्वाज मुनि ने रामचंद्र को प्रयाग से चित्रकूट जाने का जो रास्ता बतलाया है, यह भी उल्लेखनीय है, क्योंकि उस से उस समय के प्रयाग के निकटवर्ती स्थानों की स्थिति का कुछ पता इस प्रकार चलता है। भारद्वाज मुनि कहते है, “राम, आप गंगा और यमुना के संगम से पश्चिमाभिमुल होकर यमुना के किनारे-किनारे कुछ दूर तक चले जाइए; फिर उसे पार करके कुछ दूर और चलिए, तो आप को बरगद का एक बड़ा वृक्ष मिलेगा, जिस के चारों ओर बहुत से छोटे-छोटे पौधे उगे होंगे। उस बड़े वृक्ष में कुछ श्यामता भी आप को मिलेगी। उस के नीचे सिद्धगण बैठे हुए तप कर रहे होंगे। वहां से एक कोस पर नील-वर्ण के वृक्षों का एक सघन बन मिलेगा, जिस में पलाश, बेर और जामुन आदि के बहुत से वृक्ष होंगे। बस उसी बन से होकर चित्रकूट जाने का रास्ता है।” फिर उसी कांड में भरतजी का चित्रकूट जाते हुए प्रयाग में भरद्वान के आश्रम में उहरने तथा युद्ध कांड में रामचंद्रजी का पुष्पक विमान पर चढ़ कर प्रयाग होते हुए अयोध्या लौटने का वर्णन है, परंतु उन में प्रयाग के विषय में कुछ अधिक वृत्तांत नहीं है।
इन प्रसंगों से बिदित होता है कि राम के समय में प्रयाग एक तपोभूमि थी, जिस के इर्द-गिर्द बड़े-बड़े बन थे। उन दिनों अक्षयवट इत्यादि तीर्थ स्थानों का कहीं पता न था, जिन का उल्लेख पौराणिक काल के साहित्य में बड़े महत्त्व के साथ हुआ है। ऐसा जान पड़ता है कि यही रामायण का “श्याम रंग का वटवृक्ष” जो उस समय यमुना के उस पार था, पीछे किसी समय इस पार अक्षयवट के रूप में परिणत कर लिया गया; और फिर धीरे-धीरे सरस्वती, बासुकि तथा अन्य तीर्थों का प्रादुर्भाव हो गया । अव प्रयाग के विषय में महाभारत की कथा सुनिए । आदिपर्व के अध्याय 55 में लिखा है कि प्रयाग में सोम, वरुण और प्रजापति का जन्म हुआ था । बनपर्व अध्याय 84 में प्रयाग और अध्याय 85 में प्रयाग तथा प्रतिष्ठानपुर झूंसी, वासुकी (बसकी, नागबाद) और दशाश्वमेध (दारागंज) का वर्णन है। इसी पर्व के अध्याय 87 में लिखा है कि उसी पूर्व-दिशा में पवित्र ऋषि-सेवित, लोक-विख्यात गंगा और यमुना का उत्तम संगम है, वहां पहले भगवान् ब्रम्हा ने यज्ञ किया था। इसी से इस का नाम प्रयाग हुआ है। इसी प्रकार उद्योगपर्व अध्याय 144 तथा अनुशासनपर्व अध्याय 15 में प्रयाग का उल्लेख है।
कालिदास ने अपने महाकाव्य रघुवंश के 13 वें सर्ग में प्रयाग में गंगा और यमुना के संगम का दृश्य बहुत ही सुंदर शब्दों में वर्णने किया है। हम उस का भावार्य पाठकों के मनोविनोदार्थ नीचे लिखते हैं। लंका से लौटते समय श्रीरामचंद्रजी पुष्पक विमान पर सीता से कहते हैं:- “अब हम प्रयाग आ गए हैं। देखो, वह वही ‘श्याम’ नाम का वटवृक्ष है, जिस की पूजा करके एक बार तुम ने कुछ याचना की थी। यह इस समय खूब फल रहा है। चुन्नियों सहित पन्नों के ढेर की तरह चमक रहा है।” “हे निर्दोष अंगोंवाली सीते, गंगा और यमुना के संगम का दर्शन करो। यमुना की नीली से नीली तरंगों से पृथक किया गया, गंगा का प्रवाह, बहुत ही भला मालूम होता है। कहीं ती गंगा की धारा बड़ी प्रना विस्तार करने वाले, बीच-बीच नीलम गुंये हुए, मोतियों के हार के सहश शोभित है; और बीच-बीच नीले कमल पोहे हुए सफेद कमलों की लालिमा के समान, शोभा पाती है। कहीं तो वह (गंगा की धारा) मानस सरोवर के प्रेमी, राजहंसों। की उस पंक्ति की तरह मालूम होती है, जिस के बीच-बीच नीले पंख-बाले कदंब-नामक हंस बैठे हों; और कहीं कालागरु के बेल-बूटे सहित, चंदन से लिपी हुई पृथ्वी के समान मालूम होती है। कहीं तो वह छाया में छिपे हुए अँधेरे के कारण, कुछ-कुछ कालिमा दिखलाती हुई, चाँदनी के रूप में जान पड़ती है; और कहीं खाली जगहों से, थोड़ा-थोड़ा आकाश दिखलाती हुई, शरत्-काल की श्वेत मेघमाला के समान, प्रतीत होती है। नीलिमा और शुभ्रता का ऐसा अद्भुत समावेश देखकर चित्त बहुत ही प्रसन्न होता है। गंगा और यमुना नामक समुद्र की पक्षियों के संगम में स्नान करनेवाले देहधारियों की आत्मा पवित्र हो जाती है। कालिदास की कुशल लेखनी ने गंगा और यमुना के श्वेत और नील जल के समावेश का जो सुंदर चित्र लॉचकर, अनुपम उपमाओं द्वारा रंजित किया है, उस को विकराल काल की गति अच तक विकृत नहीं कर सकी। आज भी तीर्थराज में इन दोनों पवित्र नदियों के संगम का दृश्य, ठीक उसी रूप में विद्यमान है, जिस के दर्शनों तथा उस में स्नान के लिए हर साल लाखों की संख्या में, जनसमूह सुदूर देशों से आकर यहां एकत्र होता है।
आत्माराम यादव पीव