-पंकज झा
लोकतंत्र और आंतरिक सुरक्षा के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती नक्सल आतंकियों का सफाया या इस समस्या के समाधान हेतु सतत ज़रूरी विमर्श की शृंखला में पिछले दिनों रायपुर एक समाचार चैनल द्वारा एक परिचर्चा आयोजित की गयी. अफ़सोस महज़ इतना है कि आज भी इस मुद्दे पर हर तरह का विमर्श, नक्सलियों के पनपने और आदिवासी क्षेत्रों में उसको ज़मीन मिलने के ईर्द-गिर्द सिमट कर ही रह जाता है. आखिर कब-तक हम केवल कारणों की ही चर्चा करते रहेंगे? क्या यह उचित है कि घर में अगर आग लगी हो तो इस आग को लगाया कैसे गया या किसने ‘चूल्हे’ की आग जलती छोड़ दी इस पर चर्चा छेड़ दी जाय? या होता यह है न, कि पहले आग बुझाने का उपक्रम किया जाता है उसके बाद अगर संभव हो तो आगज़नी के जिम्मेदार लोगों की पहचान कर उसे दण्डित, अपमानित, लांछित या उपेक्षित या बहिष्कृत जो भी किया जा सकता हो किया जाय.सच्चाई रहते हुए भी अब इस बात को बार-बार दोहराते रहने का समय नहीं है कि नक्सली आतंकियों के छत्तीसगढ़ में पाँव पसारने का सबसे बड़ा कारण उस क्षेत्र की उपेक्षा, सरकारों द्वारा उसे उपनिवेश बनाकर रखना,व्यवसाइयों द्वारा जम-कर शोषण, सरकारी कारिंदों द्वारा उसको अय्याशी का सामान बना देना और तमाम तरह की प्राकृतिक, वन्य एवं खनिज संपदा का दोहन-शोषण रहा है. अफ़सोस तो तब भी होता है जब इन विसंगतियों के सबसे ज्यादा जिम्मेदार रहे राजनीतिकों, अंचल के विकास का दायित्व दशकों तक सम्हाल कर भी उसे उपनिवेश जैसा ही बना कर रखने वाले पूर्व मुख्यमंत्रियों द्वारा भी तमाम लोक-लाज त्याग कर बयानबाजी की जाती है.खैर.
तो अब सवाल केवल और केवल यह है कि ‘कारणों’ पर चर्चा फिर कभी करते रहेंगे. अभी तो सीधा सवाल यह है कि केवल निवारण का उपाय सुझाया जाय और कर्णधारों द्वारा इमानदारी से लोकतंत्र की बहाली में जुट जाया जाय. कम से कम उपरोक्त कारणों से नक्सलियों को जायज ठहराने वाले लोगों की निंदा ही की जा सकती है. ऐसा भी नहीं है कि शोषण केवल आदिवासी क्षेत्रों का ही हुआ है. आप बिहार के कुछ पिछड़े इलाकों में चले जाय, वहाँ से बस्तर आपको विकसित जैसा दिखेगा. या महानगरों की गंदी बस्तियों में झाँक कर देखें तो गगनचुम्बी इमारतों के आस-पास ही पनपा वह क्षेत्र आपको मानवता का ही मजाक उड़ाता नज़र आएगा. अगर आर्थिक असंतुलन की ही बात करें तो जिस शहर में पांच सितारा भोजन की एक थाली जितने रुपयों में आती है उतने में उसी शहर के गटर तक में घर बना कर रहने वाले लोग अपने पूरे परिवार का महीना भर का राशन जुगाड पाते हैं. आर्थिक विपन्नता की ही बात की जाय तो नक्सलियों को सबसे बड़ा खैरख्वाह तो भिखारियों का होना चाहिए था. या आज देश के सभी भिखारी नक्सली होते. अभी जब राष्ट्रकुल खेलों के नाम पर अमानवीयता की हद तोड़कर दिल्ली सरकार द्वारा भिखारियों को भगाया जा रथ था तब आपने ऐसे कितने समूहों को उनकी आवाज़ उठाते देखा था? आप कोई एक ऐसा उदाहरण गिना दें जब किसी प्राकृतिक या अन्य आपदाओं में पीड़ित मानवता की सेवा के लिए ऐसे गिरोहों द्वारा कोई कार्य किया गया हो. चिंतनीय साक्षरता दर वाले इस देश-प्रदेश में स्कूल भवन उड़ा देने वाले, पहुच विहीन क्षेत्रों तक जाते बसों को उड़ा कर गरीब नागरिकों का क़त्ल करने वाले, विकास की कमी का बहाना कर अपने को सही साबित करने वाले समूहों द्वारा ही सड़क-पूल-पुलिया को नस्तनाबूत करने वाले, फरमान नहीं मानने पर उन कथित सर्वाहाराओं का मुखबिर होने का बहाना कर निष्ठुरता से क़त्ल करने वाले, पूजीवाद के विरुद्ध लड़ने का ढोंग करते हुए उन्ही पूजीवादी ठेकेदारों से लेवी वसूल कर, उनके टुकडों पर पलने वाले समूहों का केवल इसलिए बचाव किया जाय कि यह शोषण के विरुद्ध क्रान्ति है, सिवा बकवास और बौद्धिक विलास के और क्या कहा जा सकता है इसको. शिकायत उन नक्सलियों से नहीं है, वह तो अपनी गति को प्राप्त होंगे ही आज न कल. आक्रोश तो उन बुद्धिजीवियों पर है जो ऐसे तत्वों को वैचारिक प्रश्रय और समर्थन प्रदान कर लोकतंत्र को कमज़ोर करने अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार का दुरुपयोग करते हैं.
अगर विचारों की ही बात की जाय तो यह समझना होगा कि “विचार” कभी दोगलापन या दोहरे मानदंड या अवसरवाद पर नहीं टिका होता. आप गौर करेंगे तो समझ में आएगा कि यही तत्व जब बिहार जैसे राज्यों में अपना पाँव पसारते हैं तो ‘जाति” इनका सबसे बड़ा हथियार होता है. वहाँ इनका काम विभिन्न जातिवादी सेनाओं के नाम पर चलता है जबकि घोषित तौर पर यह किसी भी जातिवादी व्यवस्था में भरोसा नहीं करते हैं. संसदीय प्रणाली में कोई आस्था नहीं रखने का दंभ भरने वाले इन लोगों को आन्ध्र में कांग्रेस को समर्थन देने भी बुराई नहीं दिखती. झारखण्ड में वाया झामुमो इन्हें बीजेपी से भी परहेज़ नहीं, संसदीय सरकार को पूजीवादी सरकार कहने वाले को बंगाल में उसी सरकार की एक मंत्री ममता बनर्जी को भी मां बना लेने से गुरेज़ नहीं. लोकतंत्र को सभी बुराइयों की जड बताने वाले इन गिरोहों को नेपाल में इसी ‘लोकतंत्र’ के लिए लड़ते हुए देखा जा सकता था. अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकार के नाम पर अपराधियों को मंच मुहय्या कराने वालों को इनके चेयरमेन के देश चीन में इन पवित्र शब्दों की दुर्गति देखनी चाहिए. धर्म को अफीम मानने वाले लोगों को मज़हब के नाम पर आतंक फैलाने वाले संगठनों या लोभ दिखा कर धर्मान्तरण को बढ़ावा देने वाले संस्थाओं से भी गठजोर करने से परहेज़ नहीं. और तो और, खुद इस आंदोलन के जन्मदाता कानू सान्याल द्वारा इन लोगों से आजिज आ कर आत्महत्या करने से पहले के कुछ बयानों, साक्षात्कारों पर गौर करें तो इनके बारे में समझा जा सकता है. नक्सलवाद न केवल आंतरिक सुरक्षा के लिए बल्कि समूचे देश के लिए खतरा है. अभी पिछले दिनों चीन के एक विचारक का ब्लू प्रिंट सामने आया जिसमे वे भारत को तीस टुकड़े में बांटने की बात करते है. तो अगर तिरुपति से पशुपति तक के जिस ‘लाल गलियारा’ की बात की जा रही है उसमें अगर यह सफल रहे तो फिर वहाँ से बीजिंग तक कि राहें कितनी आसान हो जायेंगी और तब यह समूह कितने ताकतवर होकर देश की अखंडता पर कितनी बड़ी चुनौती हो सकते हैं, कल्पना की जा सकती है.और तब सन बासठ की लड़ाई में चीन के लिए चन्दा उगाही करने वालों की क्या भूमिका होगी, समझा जा सकता है. तो अभी भले ही इनसे पार पाना असंभव नहीं हो लेकिन कल को तो काफी देर हो जायेगी.यह समस्या निश्चित ही विकास की कमी का बहाना लेकर पैदा हुई है. लेकिन ‘विकास’ के द्वारा इसका समाधान अब संभव नहीं है. सामान्य अर्थों में विकास का मतलब पूल-पुलिया-सड़क-भवन आदि का निर्माण होता है जो ज़ाहिर है कि ठेकेदारों द्वारा किया जाएगा. इस इलाकों के लिए निर्गत हर फंड में अच्छी-खासी हिस्सेदारी नक्सलियों की होती है जिसे सरकारों ने भी स्वीकार किया है. अधिकृत आंकड़ों के अनुसार यह वसूली दो हज़ार करोड सालाना है. तो इतना रकम आप उनकी जेब में पहुचा कर उन्हें पनपने और फैलने का ही मौका देंगे. इस तरह तो छत्तीसगढ़ के सात से बढ़कर तेरह जिलों में फ़ैल जाने वाला नक्सलवाद जल्द ही सभी अठारहों जिलों को चपेट में ले लेगा. तो ज़रूरी यह है कि सभी तरह के कथित विकास कार्यों को रोक कर, निजी कंपनियों के सभी एमओयू को रद्द या स्थगित कर केवल इनके समूल नाश के लिए प्रयास किया जाय. अगर आज़ादी के इन इन छः दशकों में कोई विकास इन क्षेत्रों में नहीं हुआ है तो और दो-चार वर्षों तक इन्तज़ार किया जा सकता है. आज तो जद्दोजहद के बाद किसी तरह लोकतंत्र पर आये इस सबसे बड़ी चुनौती से पार पा लेंगे, लेकिन कल को बहुत देर हो जायेगी. अब समय ‘सोचने’ नहीं ‘करने’ का है. विचार ‘कारण’ पर नहीं बल्कि ‘निदान’ पर हो.
भाई पंकज
आपने तो मेरे दिल की बात लिखी है, मजा आ गया . ऐसे ही लिखते रहो नक्सली गरीबो के मसीहा नहीं बल्कि देशद्रोही है .
धन्यवाद् .
ये सब नीरो के समर्थक हैं . एक अनपढ़ भी जो समझ सकता है क्यों इनकी समझ में नहीं आता . बंदूकों के साये में विकास नहीं निकास होगा .
मैं इस बात से इंकार भी नहीं करता हूं कि यह सब एक बौद्धिक विलसता से परे और कुछ भी नहीं है…..लेकिन आपको याद है ना वो दो बिल्ली रोटी और बंदर वाली बात ..बस अंतर सिर्फ इतना हैं ऐसे आयोजनों केपीछे का मकसद भी सामने आना चाहिए….आखिर जो फैसला श्रीलंका को लेने में कई साल लग और जिसके एवज में ना जाने कितने लोगों की बलि चढ़ गई वैसा होने से पहले हम ये फैसला लेलें तो ज्यादा सही होगा……बढ़िया आलेख