नई आर्थिक नीतियों पर प्रहार करें अन्ना हज़ारे और बाबा रामदेव

श्रीराम तिवारी

विगत दिनों भारतीय मीडिया बहुत व्यस्त रहा.२-जी,कामनवेल्थ,जैसे कई मुद्दे जिनमें भृष्टाचार सन्निहित था ;उस पर देश और दुनिया में काफी चर्चा रही.बीच-बीच में विधान सभा चुनाव,पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद,नक्सलवाद,क्रिकेट,बालीबुड और बाबाओं के राजनीतिकरण को भी मीडिया ने भरपूर चटखारे लेकर जनता के बीच परोसा किन्तु इन सबसे ज्यादा आकर्षक और धारदार और क्रांतिकारी सूचनाएँ दो ही रेखांकित की गई.पहली ये कि न्यायपालिका के उच्च स्तर पर

यह धारणा आकार लेने लगी है कि न केवल भुखमरी पर बल्कि भृष्टाचार पर क्रन्तिकारी शिकंजा कसे जाने की बेहद जरुरत है.दूसरी सबसे ज्यादा काबिले गौर सूचना ये रही किअमेरिका द्वारा पाकिस्तान के अन्दर घुसकर जिस तरह ओसामा को ख़तम किया गया क्या उसी तर्ज़ पर भारत ऐंसी कार्यवाही कर सकता है?इसी से जुड़ा हुआ किन्तु विकराल मसला ये भी रहा है कि यदि पाकिस्तान का परमाणुविक वटन आतंकवादियों के हाथ आ गया तो दुनिया की और दक्षिण एशिया की तस्वीर क्या होगी?

भारत में भ्रष्टाचार और राजनीती का चोली दामन का साथ है.यह कोई अप्रत्याशित या अनहोनी बात नहीं है.जिस पूंजीवादी प्रजातंत्र को १९४७ में भारत ने अंगीकृत किया यह अपने प्रेरणा स्त्रोत राष्ट्रों-ब्रिटेन,अमेरिका,कनाडा और स्वीडन में भी रहा है,अभी भी है और आगे भी तब तक रहेगा जब तक कोई वैकल्पिक -सामाजिक,आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था स्थापित नहीं की जाती.इन राष्ट्रों में चूँकि प्रति व्यक्ति आमदनी और असमानता का अनुपात लगभग १:७ है जबकि भारत में एक टॉप पूंजीपति और एक रोजनदारी मजदूर की आमदनी में अरबों-खरबों का अंतर है. इसके आलावा जमीन,व्यवसाय और विभिन्न प्रकार की नौकरियों में न केवल भौतिक बल्कि मानसिक असमानता की जड़ें बहुत गहरे तक समाई हुई हैं.इन्ही कंटकाकीर्ण दवाओं को झेलने में असमर्थ जन-मानस अपनी वैचेनी को अभिव्यक्त करने के लिए तास के पत्तों की तरह उन्ही राजनीतिज्ञों को फेंटकर वोट के मार्फ़त सत्ता शिखर पर बिठा देता है ;जिन पर ५ साल पहले अविश्वाश व्यक्त कर चूका होता है.बार -बार ठगे जाने के बाद १५-२० साल में जनता के सब्र का बाँध टूट जाता है और वह किसी अवतार,महानायक या चमत्कारिक नेत्रत्व की मृग तृष्णा में किसी छद्मवेशी स्वामी का अन्धानुकर्ता या नए पूंजीवादी राजनैतिक ध्रवीकरण की रासायनिक प्रक्रिया का रा मटेरिअल बन कर रह जाता है.

जिस लोकपाल बिल की इन दिनों इतनी मारामारी हो रही है,वो कांसेप्ट ४० साल पुराना हो चूका है.१९६८ में ही देश में भृष्टाचार इतना बढ़ चूका था कि कांग्रेस को सत्ता से हटना पड़ा और संविद सरकारों का प्रादुर्भाव हुआ.लेकिन संविद सरकारों ने देश को निराश किया तो कांग्रेस ने समाजवादी चोला पहिनकर ,क्रांतिकारी नारों से देश की जनता को भरमाया.सत्ता में पुनर वापसी कर पकिस्तान के दो टुकड़े कर इंदिराजी ने भारत की ,कांग्रेस की और स्वयम की शान में चार चाँद लगा दिए किन्तु भृष्टाचार ,भाई-भतीजावाद और शोषण फिर भी जारी रहा.जिस रणनीति के तहत आजकल अन्नाजी और उनकी देखादेखी दूसरे तथाकथित “सच्चे-देशभक्त-बाबा लोग”जनता की आकांक्षा को शे रहे हैं कमोवेश जयप्रकाश नारायण ने भी इसी तरह के विन पेंदी वाले लोटे जुटाए थे.जिस जनता पार्टी को सत्ता में बिठाकर उन्होंने सम्पूर्ण क्रांति के गीत गाये थे उसके क्रांतीकारी आह्वान में जिन्होंने अपने झंडे-डंडे तक फेंक दिए थे वे सनातन असंतुष्ट दोहरी सदस्यता के बहाने,समाजवाद के बहाने ,किसान राज्य के बहाने और आपातकाल निवृत्ति के बहाने चारों खाने चित होकर बड़े बे आबरू होकर २-३ साल में ही राजनीती के अखाड़े में ढेर हो गए.फिर इंदिराजी के नेत्रत्व में और संजय गाँधी के कृतित्व में कांग्रेस सत्ता {१९८०}में प्रतिष्ठित हो कर ,शहर,गाँव और मीडिया में भृष्टाचार की धुन पर नाचने लगी.१९४७ से अब तक का भारतीय राजनैतिक इतिहास दर्शाता है कि चाहे वे वी पी सिंह हों ,लोहिया हों,अटलजी हों चंद्रशेखर हों ,मोरारजी हों चरणसिंह हों या कोई भी गैर कांग्रेसी हों {मार्क्सवादियों के अलावा}सबके सब सत्ता में आने के लिए कांग्रेस के कुशाशन और भृष्टाचार पर जनता को दिलासा देकर देश में कोहराम खड़ा करते रहे किन्तु जब सत्ता में आये तो कांग्रेस से ज्यादा भृष्ट और धोखे बाज निकले.कांग्रेस ने भले ही देश को ज्यादा कुछ न दिया हो ,भले ही भृष्ट तरीकों से सांसद खरीदे हों ,भले ही भाई-भतीजावाद बढाया हो किन्तु देश में साम्प्रदायिकता की आग को दावानल नहीं बनने दिया.यह आकस्मिक नहीं है कि कांग्रेस और नेहरु -गाँधी परिवार को साम्प्रदायिक और अलगाव वादियों के हाथों अपनी जान गवाना पढी.

मैं न तो कांग्रेसी हूँ और न उसका समर्थक बल्कि उसकी मनमोहनी आर्थिक नीतियों का कट्टर विरोधी हूँ.मेरा मानना है कि भले ही मनमोहनसिंह जी की नई आर्थिक नीति से लाभान्वित होकर देश में सबसे ऊपर के तबके में १००-२०० लोग शामिल हो चुके हों,भले ही माध्यम वर्ग की तादाद बड़ी हो ,भले ही समग्र रूप से भारत ताकतवर हुआ हो किन्तु यह भी अकाट्य सत्य है कि घोर निर्धनता,भयानक महंगाई और असहनीय भृष्टाचार के लिए नए दौर कि नई आर्थिक नीतियाँ ही जिम्मेदार हैं.

वर्तमान दौर के जन आंदोलनों कि श्रंखला में सबसे पहला स्थान है संगठित ट्रेड यूनियन आन्दोलन द्वारा किये जाते रहे महंगाई,भृष्टाचार और निजीकरण विरोधी संघर्षों का.इसमें आंशिक सफलता तो मिली किन्तु व्यवस्था गत परिवर्तन के लायक ताकत नहीं जुट पाई ,क्योंकि माध्यम वर्ग का एक बड़ा तबका जन संघर्षों से कतराकर बाबावादी कदाचार में शुतुरमुर्ग की तरह अपनी गर्दन घुसेड़कर -हा!भृष्टाचार!की धुन पर मुग्ध है.चूँकि मीडिया का अधिकांस हिस्सा बड़े पूंजीवादी घरानों का चारण मात्र है अतेव मेहनतकशों के संगठित संघर्षों में उसकी टी आर पी का कोई भविष्य नहींहोने से इस प्रकार के सत्ता प्रतिष्ठान विरोधी संघर्षों को हाई लाइट करने में उसकी रूचि क्यों कर होगी?

यदाकदा न्यायपालिका की ओर से की गई सरकार जगाऊ टिप्पणियों को जनता ने ,खास तौर से असंगठित सर्वहारा और मध्यम वर्ग ने भी सर माथे लिया और उसी का दोहन करने में माहिर कुछ एन जी ओ धारको ,उनके मित्र वकीलों और साम्प्रदायिकता की सीप से निकले बाबा रुपी मोतियों ने बिना यह जाने की भृष्ट पूंजीवादी व्यवस्था की नई आर्थिक नीतियों के भारतीय निर्माता तो स्वयम डॉ मनमोहन सिंह हैं. जो अमेरिका प्रेरित सोनिया समर्थित है आर्थिक नीति है उसमें भृष्टाचार की फर्टिलिटी भरपूर है.इस ताने-बाने को जाने विना अन्ना हजारे और रामदेव यादव जैसे लोग सत्ता को उखाड फेंकने की पुरजोर कोशिश किया करते हैं.उनके पीछे वे परजीवी गिद्ध खड़े हैं जो स्वयम शिकार नहीं करते बल्कि शिकारी कोई भी हो नागनाथ या सांपनाथ वे तो सिर्फ और सिर्फ परभक्षी ही रहेंगे.

आज भारतीय प्रधानमंत्री को दुनिया में सुलझा हुआ ,ईमानदार और समझदार माना जा रहा है.वे बड़ी चतुराई से ,विनम्रता से,गंभीरता से और गठबंधन धर्म की वास्तविकता से देश को दुनिया के साथ -साथ चलने लायक तो बना ही चुके हैं अतः उनकी तथाकथित विनाशकारी आर्थिक नीतियों से बेहतर आर्थिक -सामाजिक और राजनैतिक वैकल्पिक नीतियां जिनके पास हों कृपया वे ही इस सरकार और कांग्रेस नेत्रत्व को कोसें,अन्यथा देश की समझदार जनता का सहयोग किसी अपरिपक्व -अधकचरी सूचनाएं परोसने वाले बडबोले स्वयमभू को नहीं मिल सकेगा.निसंदेह भृष्टाचार की गटर गंगा में वे सब भी नंगे हैं जो रातों रात न केवल शौह्रात्मंद बल्कि दौलतमंद भी हो चुके हैं .ऐसे लोग प्रधानमंत्री को ,यु पी ऐ की चेयर पर्सन श्रीमती सोनिया गाँधी को और पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह को या समस्त सरकार को कोसने के बजाय अमेरिका,जापान,जर्मनी,फ़्रांस या ब्रिटेन के सत्ता परिवरतन से सबक सीखें क्योंकि भारतीय पूंजीवादी प्रजातंत्र उन्ही की नक़ल मात्र है.

यदि कोई व्यक्ति ,संस्था या समाज वास्तव में भृष्टाचार मुक्त भारत चाहता है तो उसे पहले शोषण मुक्त भारत का मार्ग प्रशस्त करना होगा.उसे यह जानना ही होगा कि वर्तमान दौर में व्याप्त भयानक भृष्टाचार,बढ़ती हुई बेतहासा महंगाई और आर्थिक असमानता को नई आर्थिक नीतियों ने ही परवान चढ़ने दिया है.अकेले सोनिया ,मनमोहन या यु पी ऐ सरकार ही इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि कुछ हद तक इन नीतियों के अलमबरदार वे भी हैं जो आजकल बाबा रामदेव और अन्ना हजारे जैसों के कंधे पर बन्दूक रखकर सत्ता-सुन्दरी के ख्वाब देख रहे हैं .विश्वाश न हो तो प्रमोद महाजन से लेकर चन्द्रबाबु नायडू के व्यक्तित्व व् कृतित्व को एक बार खंगालने में कोई हर्ज़ नहीं.

2 COMMENTS

  1. तिवारीजी के लेख में सातत्यता नजर नहीं आई .कहना वो क्या चाहते है इसे बड़ी सफाई से छुपा गए क्या होना चाहिए यह नहीं बताया यही मुश्किल है इन उपदेशकों की. ये केवल आलोचना ही कर सकते है दिशा नहीं दे सकते अरे नेतृत्व संभालो और देश को दिशा दो हमारे यहाँ बहुत कमिंया है बुराइयाँ भी है आधुनिक अर्थों में पिछड़ापण भी है तो क्या इस तरह से बयानबाजी कर के देश आगे बढ़ सकेगा हरगिज नहीं जरूरत है आज एक विवेकानंद जैसे लोगों की जो एक बार फिर कहे की तुम अमृतपुत्र हो ए देशवाशियो उठो और इस कालिमा भरी रात से देदीप्यमान सुभाह मैं प्रवेश करो यह तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है भारत कभी नहीं मिटा क्यों की यह प्रकाश का देश है इसलिए तिवारीजी आईये हम अपने से शुरुआत करें और वहीँ से सफाई शुरू करें अब यह बताने की आपको जरुरत नहीं है क़ि क्या सफाई करें आपका मित्र विपिन

  2. तिवारी जी के इस आलेख में बहुत सी बातें एक साथ आगयी है,पर तिवारी जी ने शायद इस तरफ ध्यान भी नहीं दिया की असल मुद्दा जो उनके लेख में उभड कर सामने आया वह यह की पूजीवाद ,साम्यवाद और समाजवाद से भी ऊपर है हमारा अपना अनैतिक आचरण.उन्होंने लिखा है पूंजीवादी व्यवस्था में भी धनी और गरीब के बीच का अंतर १:/७ है ,जबकि इंडिया में इसको आंकना भी असम्भव सा है.तिवारीजी ने एक बात नहीं कही है और वह यह है की पूंजीवादी देश प्राय: इमानदारी की सूची में भी बहुत उपर हैं.समाजवादी देशों के असामनता को उन्होंने नही दर्जित किया है पर यह लाजिमी है की वहाँ यह असमानता शायद कम ही हो.बात आकर फिर अटक जाती है की तब हम ऐसे क्यों हैं?जबकि नैतिकता में हम अपने को दुनिया का पथ प्रदर्शक मानते रहे हैं.यह भी कहा जा सकता है की ऐसा अंग्रेजों या हो सकता है की किसी अन्य नक्षत्र से आये हुए लोगों के कारण हुआ.इस तर्क को मान भी लिया जाए तो भी इसमें हमारी कमजोरी सामने आ जाती है की आखिर हमारी नैतिकता इतनी कमजोर क्यों साबित हुई की हम इस अनैतिक झोंके के सामने नहीं टिक सके.और आज हम अनैतिकता में विश्व के शिखर पर हैं,और जिनके चलते हम इस अवस्था को प्राप्त हुए ,उनकी गिनती भी नहीं होती अनैतिक राष्ट्रों में.यह एक ऐसा विचारणीय प्रश्न है जो हमें लाकर उसी कठघरे में खड़ा कर देता है की हम मानव कहलाने के योग्य ही नहीं हैं. हम अपने मुंह मिया मिठू भले ही बन लें.

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