भ्रष्टाचार के खिलाफ अब निर्णायक जंग की जरूरत

छद्म शिष्टाचारियों ने पैदा ही किया है संकट

– प्रो. बृज किशोर कुठियाला

कुशासन का जो डरावना चेहरा वर्तमान में भारत के जनमानस के सामने उभरकर आया है, वैसा तो उस समय भी नहीं था जब भारतीय राजनीति की व्यवस्था में छोटे-छोटे राजा-रजवाड़े आपस में युद्धरत थे और जिसका लाभ उठाकर मुगलों ने अपना आधिपत्य हिन्दुस्तान में जमाया। मुगलों ने भी भारत को खूब लूटा और लगभग 100 वर्षों के कार्यकाल में अंग्रेजों ने भी हमारे देश को लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ी। परन्तु अंग्रेजों और मुगलों की लूट उस लूट से बहुत न्यून दिखती है जो लूट आज का शासक वर्ग देश में कर रहा है। मुहम्मद गौरी ने सारी लूट गजनी में जमा की और अंग्रेजों की सारी लूट ब्रिटेन में संकलित हुई। आज के भारतीय लुटेरों ने भी भारत की पूंजी को विदेशी बैंकों में जमा किया है।

राडिया केस के खुलासे हों या 2जी स्केंडल की राशि की असंख्य बिन्दियां या फिर महाराष्ट्र आवासीय घोटाला सभी में राजनीतिज्ञों और प्रशासकों ने दलालों का प्रयोग किया है। इसके अतिरिक्त राजस्थान, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश, केरल व अन्य कई राज्यों में छोटे-बड़े घोटाले प्रतिदिन सामने आते हैं। भ्रष्टाचार की छोटी-मोटी घटना तो अब समाचार ही नहीं बनती। कार्यपालिका, न्यायपालिका और खबरपालिका सभी में भ्रष्ट व्यवहार की दुर्गन्ध जनमानस तक पहुंच रही है। यह तो वह कहानियां हैं जो खुल गई, परन्तु इनके खुलने से मन में एक और डर उत्पन्न होता है कि जो खुला नहीं वह कितना विराट और भयंकर होगा? अंग्रेजी शब्दावली का प्रयोग करें तो जितना खुला वह तो ‘टिप ऑफ द आईस वर्ग’ है।

देश की अर्थव्यवस्था में जो धन संचालित है उससे कहीं अधिक धन काले धन्धों में लगा है और उससे भी कहीं अधिक धन भारतीय नागरिकों के नाम से विदेशी बैंकों में जमा है। कुछ विदेशी बैंकों ने जब इस बात के संकेत दिये कि वह अपने यहां भारतीयों के खातों का विवरण देने को तैयार है तो हमारी सरकार मौन रही। कारण स्पष्ट है, अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने वाला शेखचिल्ली कहलाता है।

स्वाधीनता का उद्देश्य स्व के तंत्र का निर्माण था, जिससे की सुशासन जनमानस को दिया जा सके। पराधीन भारत स्वाधीन तो हुआ परंतु तंत्र वही रहा उपनिवेशवादी। गुलाम देश को चलाने वाले इन तंत्रों से कुशासन पला। जनमानस भय और दुख से भौचक्का हो रहा है क्योंकि देश का नेतृत्व भ्रष्ट सिद्ध हो गया है। इसलिए आमजन में विशेषकर आने वाली पीढ़ी में ऐसे संस्कार बन रहे हैं मानो की अनैतिक और भ्रष्ट व्यवहार ही शिष्टाचार है। ऐसा लगने लगा है कि दो नंबर की कमाई करना मान्य है और उसके लिए प्रयास करना वांछित सामाजिक व्यवहार है। नैतिकता का आधार खिसकता हुआ दिख रहा है। आम व्यक्ति स्तब्ध है और नहीं जानता है कि उसे क्या सोचना चाहिए और क्या करना चाहिए।

आर्थिक और नैतिक धारणाओं के आधार पर वर्तमान भारतीय समाज को तीन हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है। पहला वर्ग सत्ता के गलियारों में स्थित कमरों में बैठने वाला और गलियारों में घूमने वाला है। इसमें अधिकतर राजनेता, प्रशासनिक अधिकारी, बड़े-छोटे व्यापारी व उद्योगपति हैं जिनको दलालों का वर्ग संचालित करता है। दलालों के लिए भी अंग्रेजी के एक प्रतिष्ठित शब्द का प्रयोग हो रहा है-‘लॉबिस्ट’। यह पूरा का पूरा वर्ग मन, वचन और कर्म से भ्रष्ट है। देश को लूटना अपना अधिकार ही नहीं कर्तव्य और धर्म भी मानता है। इनकी मानसिकता उन लुटेरे मुगलों की और ब्रिटिश अधिकारियों की है जिन्होंने उस देश को कंगाल बना दिया, जिस देश की दूध-दही की नदियां बहने वाली व्याख्या की जाती थी। इनके मन में कभी भी अपने कार्य के प्रति शक या पश्चाताप की गुंजाईश नहीं है। ए. राजा, अशोक चव्हाण व राडिया उनके प्रतिनिधि हैं।

समाज का दूसरा वर्ग वह है जो ईमानदारी और शिष्टाचार का लबादा ओढ़ कर बैठा है। वह पहले वर्ग के भ्रष्टाचारी लोगों के साथ उठता-बैठता है। कदम मिलाकर चलता है और हम प्याला होता है, परंतु अपनी छवि भ्रष्ट न होने की चेष्ठाएं बनाये रखता है। यह वर्ग भ्रष्ट नहीं है ऐसा विश्वास जनमानस के मन में रहता है। परन्तु यह भ्रष्ट है या नहीं यह शक के दायरे में है। उनके नाक के नीचे भ्रष्टाचार हो रहा है और जिस टोली के वह नेता हैं उस टोली के ही कार्यकर्ता हर किस्म का अपराध कर रहे हैं परन्तु अपने अधीन हो रहे भ्रष्टाचार से वह अपने आपको अलग रखते हैं और कभी-कभी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भ्रष्टाचार को संरक्षण भी देते हैं। किसी भी भावी जांच के पक्ष में वह नहीं होते और यदि जांच हो भी तो उसे प्रभावित करके भ्रष्टाचारियों को अपने लबादे के अंदर लपेट कर बचा के ले जाते हैं। वर्तमान में प्रशासन के शीर्ष नेता और संगठन के शीर्ष नेता दोनों ही भ्रष्ट प्रणाली के सर्वेसर्वा हैं। निष्क्रिय हैं और मौन हैं। सज्जन व्यक्तित्व का आडंबर भी करते हैं। यह वर्ग छोटा है परन्तु देश और राष्ट्र के लिए सबसे अधिक घातक है। भ्रष्टाचारी, देशद्रोही की तो पहचान है परन्तु जो भेड़िये बकरी का रूप धारण किए हैं उनसे बचना होगा।

समाज का तीसरा वर्ग आम जनता का है। जो नीयत और व्यवहार से देशप्रेमी है, ईमानदार है परन्तु अपने कर्तव्य की पहचान उसे नहीं है। इनमें से एक वर्ग ऐसा है जो मौका मिलते ही पहले या दूसरे वर्ग अर्थात भ्रष्टाचारियों या छद्म शिष्टाचारियों के साथ मिल जाता है। इनकी देशभक्ति के संस्कार दुर्बल हैं और समाज के प्रति समर्पण क्षीण है। परन्तु यदि उचित वातावरण मिले तो यह लोग भी शिष्टाचारी और ईमानदार हो जाते हैं। जैसा अवसर या वातावरण मिलता है उसी में यह ढल जाते हैं। इसी वर्ग में एक संख्या उनकी भी है जिसमें बेईमान होने की निपुणता या क्षमता ही नहीं है। बेईमानी या समाज विरोधी कार्य करने का अवसर आने पर यह या तो कन्नी काट लेते हैं या फिर इसका विरोध करते हैं। इसे हम समाज की सज्जन शक्ति कहते हैं। आशा की किरण यह है कि इस सज्जन शक्ति की संख्या पर्याप्त है और चिंता यह है कि यह शक्ति विघटित है और नेतृत्व विहीन है। समाज के पहले दो वर्ग अर्थात भ्रष्टाचारी और छद्म शिष्टाचारी सज्जन वर्ग को विघटित रखने के लिए षड़यंत्र करते हैं। जब भी सज्जन शक्ति में नेतृत्व उभरता है तो उसके विनाश में लग जाते हैं। महात्मा गांधी के साथ यही हुआ। लालबहादुर शास्त्री को भी टिकने नहीं दिया गया। जयप्रकाश नारायण के चारो तरफ इन शक्तियों का बोल-बाला रहा और जन-नायक अपने को ठगा सा महसूस करते रहे। वर्तमान में भी सज्जन शक्ति में छोटे-बड़े नेतृत्व उभरते हैं परन्तु शीघ्र ही या तो उन्हें निष्क्रय कर दिया जाता है या फिर उन्हें भी भ्रष्टाचारी और छद्म शिष्टाचारी बना दिया जाता है।

आज के भारतीय समाज के सामने स्थापित और मान्य भ्रष्टाचार की समस्या विकराल रूप धरे खड़ी है। यदि कुछ वर्ष और ऐसी स्थितियां रही तो यह व्यवस्थाएं इतनी विकराल हो जाएगी कि देश और समाज टूटने लगेगा। आज केवल पाकिस्तान को ‘असफल राष्ट्र’ कहा जाता है। खतरा इस बात का है कि आने वाले समय में भारत भी कहीं इस विशेषण का हकदार न बन जाये। सज्जन शक्ति की निष्क्रयता इसके लिए जिम्मेदार होगी। समाज के बड़े वर्ग को जो न तो भ्रष्टाचारी है न भ्रष्टाचार को संरक्षण देता है यह तय करना होगा कि कब तक वह इन देशद्रोही शक्तियों का वर्चस्व सहेगा? कहा जाता है कि जो रिश्वत लेता है वह तो अपराधी है ही परन्तु जो रिश्वत देता है वह भी उतना ही अपराधी है। समझने की बात यह है कि जो इस रिश्वत के लेन-देन का विरोध नहीं करते उनका भी कहीं-न-कहीं अपराध में योगदान है। पाप न करना धर्म का अनुपालन है, परन्तु पाप का विरोध करना धार्मिक कर्तव्य हो ऐसा दायित्व व्यक्ति का होना चाहिए।

एक नैतिक नेतृत्व के उभारने की आवश्यकता है जो समाज के तथाकथित चारों अंगों से बाहर हो। वह न तो राजनेता हो और न ही वह न्यायपालिका से हो उसे कार्यपालिका का हिस्सा भी नहीं होना चाहिए और वह तथाकथित चौथे स्तंभ का भी भाग न हो। ऐसा नेतृत्व जिसकी नैतिक शक्ति इतनी हो कि उसके परामर्श पर सर्वसहमति हो। हर विकसित समाज में ऐसा वर्ग रहता है और रहना ही चाहिए। यह नेतृत्व पूर्णतः निःस्वार्थी होता है और उसका व्यक्तिगत जीवन आदर्श उदाहरण होता है। गीता में भी इसी तरह के नेतृत्व की ओर इशारा है कि जब-जब समाज में दुराचार और अनाचार का व्यवहार एक सीमा से बढ़ेगा तो शिष्टाचार को फिर से स्थापित करने के लिए समाज के अंदर से ही शक्तियां उभरती हैं। अगर आज के भारत में यह नहीं हुआ तो भारतीय समाज अवश्य ही किसी गंभीर संकट में अपने को उलझा हुआ पायेगा।

3 COMMENTS

  1. आदरणीय प्रणाम ,
    आपने वर्तमान भारतीय समाज तथा इसके व्यवस्था पर बिलकुल सटीक टिपण्णी लिखी है |लेकिन इसका समाधान क्या है |आदरणीय झमा चाहूँगा ,लेकिन आप मै भी विवशता झलकती है .”चाणक्य ने धनानंद से कहा था – शिझक की गोद मे प्रलय और निर्माण दोनों खेलतेहै” आज सत्य और शिझक दोनों क्या विवश है और अगर विवश है तो बताये कौन करेगा निर्माण |
    पुनः वंदन
    प्रणाम |

  2. प्रिय महोदय
    नमस्कार
    में एक बार फ़ोन पर आप से बात करना चाहता हु | मेरे विचार से देश की मुद्रा को
    बैंक के द्वारा संचालित कर दिया जाये तो मेरा मानना है की देश की सभी गलत तरीके
    आपने आप मिट जायेगे |
    क्रपया कांटेक्ट न . देने का कष्ट करे |
    मेरा कांटेक्ट न . 07793 270468
    09300858200
    madan gopal brijpuria
    kareli M.P.

  3. आदरणीय कुठियाला जी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अब निर्णायक जंग में हर व्यक्ति को सम्मिलित होना चहिये.

    हमारे देश का दुर्भाग्य है की इस देश की नीतिया नियम ऐसे लोग बनाते है जिन्हें यह नहीं मालुम होता है की गुड तेल का भाव क्या है, या गुड तेल बोतल या पन्नी में मिलता है (अर्थात इतने अमीर या उच्छ बल्कि अति उच्छ वर्ग से होते है). या फिर २२-२३ साल के नौजवान नवयुवती होती (अर्थात आई, ए. एस.) जिन्हें जीवन का कोई भी ठोस अनुभव नहीं होता है. जब निर्णय जमीन से जुड़े नहीं होंगे तो आम व्यक्ति को मुस्किल तो होगी, जाहिर है भ्रष्टाचार के रस्ते खुलेंगे.

    भ्रष्टाचार तो केवल दो तरीके से रुक सता है. १. शासन तंत्र बदल जय, २. हम खुद बदल जय.
    सासन, संविधान तो बदल नहीं सकता. हम खुद ही बदल सके है. व्यक्तिगत तौर पर कसम खा ले की भ्रष्टाचार न करेंगे, न करने देंगे. अगर हो रहा हो तो भी अपनी आँख, कान, मुह – तीन बंदरो की तरह बंद नहीं करेंगे. अपना नैतिक कर्त्तव्य करेंगे.

    हर भ्रष्टाचारी का सामाजिक बहिस्कार करेंगे. उससे डोरी बनेयेंगे, उसके सुख में सम्मिलित नहीं होंगे, अपने सुख दुःख में शामिल नहिकरेंगे चाहे वोह हमारे कितना भी करीबी हो.

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