प्रो. अनिल जिज्ञासु

डॉक्टर ज्वलंतकुमार शास्त्री के शोध ग्रन्थ “महर्षि दयानंद की प्रामाणिक जन्मतिथि” के अनुसार स्वामी दयानंद सरस्वती जी का जन्म विक्रम संवत 1881 में फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि तदनुसार 12 फरवरी, सन 1825 शनिवार के दिन गुजरात के छोटे से ग्राम टंकारा में हुआ I
इनके पिता जी का नाम श्री करशन जी लाल जी तिवारी व माता का नाम श्रीमती यशोदा बाई था I संयोग व संस्कारवशात मूलशंकर को 14 वर्ष की अवस्था में 12 फरवरी 1839 को महाशिवरात्रि पर बोध अर्थात विशेष ज्ञान की प्राप्ति हुई I
सयोंग ये था कि पिता जी द्वारा शिवपुराण के आधार पर बताये शिव के दर्शन करने के लिए मूलशंकर जी शिवरात्रि का उपवास धारण कर मन्दिर में स्थित शिवलिंग पर टकटकी लगाये हुए थे, कुछ चूहे शिवलिंग पर चढ़ गये व नैवेध (मिठाई प्रसादम) आदि खाने लगे व गंदगी फ़ैलाने लगे I
“जो शिव अपनी रक्षा नही कर सकते वो संसार की क्या रक्षा करेंगें अर्थात ये शिवलिंग सच्चे शिव नही हो सकते” उक्त घटना को देखकर ऐसा विचार संस्कार भेद से मूलशंकर के मन मस्तिष्क में ही कौंधा अन्य के नही I
उपरोक्त घटना विशेष से मूलशंकर को इतना तो बोध हो गया कि ये मूर्ति भगवान नही हो सकती लेकिन मात्र इतने बोध से मनुष्य जीवन के मोक्ष प्राप्ति के लक्ष्य को प्राप्त नही किया जा सकता था और इसी बोध के साथ अब बहुत बड़ा प्रश्न आकर खड़ा हो गया और वो था सच्चा शिव कौन व कहाँ हैं अर्थात ईश्वर का वास्तविक स्वरूप क्या है और मै उस परमसत्ता को कैसे पा सकता हूँ ?
लगातार ७ वर्षों तक यह विचार सोते जागते मूलशंकर के मन मस्तिष्क पर छाया रहता था और इसका परिणाम ये हुआ कि शादी विवाह के झमेलों को छोड़कर 22वें वर्ष के आरम्भिक चरण में मूलशंकर ने सदा के लिए घर से विदाई ली और विद्या व सच्चे शिव की खोज में घोर कष्ट सहते हुए एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमन करते रहे I
इसी दौरान बहुत से साधू सन्यासियों से मिलना हुआ I सन्यास की दीक्षा लेने से इनका नाम स्वामी दयानंद हुआ I अंतत: गुरुवर दंडी स्वामी विरजानंद जी के सानिध्य में आर्ष विद्या को जानकर नर्मदा आदि नदी पर ऋषियों की परम्परानुसार योगाभ्यास आदि करके विवेक व पर वैराग्य से उच्च स्तर की समाधि में ईश्वर का साक्षात्कार किया और अपने जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त किया I
ईश्वर प्राप्ति से उनका जीवन तो धन्य हो गया था लेकिन देश की दुर्दशा देखकर स्वामी जी को बहुत वेदना होती थी अन्ततोगत्वा वैदिक धर्म के प्रचार प्रसार व राष्ट्र उत्थान आदि कार्य सतत होते रहें ऐसा विचार कर स्वामी दयानंद जी ने 10 अप्रैल 1875 को मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की I
आर्य समाज ने न केवल देश की आजादी में अग्रणी भूमिका निभाई बल्कि समाज में व्याप्त कुरीतियों का पुरजोर विरोध किया I देश धर्म की उन्नति में योगदान देने वाले आर्यसमाजियों की यदि सूचि तैयार करे तो एक बड़ा ग्रन्थ तैयार हो जायेगा I संकेत मात्र लिखूं तो गुरुवर विरजानंद जी, स्वामी दयानंद सरस्वती जी, स्वामी श्रद्धानन्द जी, पंडित लेखराम जी, पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी जी, पंजाब केसरी लाला लाजपत राय जी , शहीद रामप्रसाद बिस्मिल जी, स्वामी सर्वदानन्द जी, श्री श्याम जी कृष्ण वर्मा जी, महात्मा नारायण स्वामी जी, भाई परमानन्द जी, पंडित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी, स्वामी वेदानन्द जी तीर्थ, स्वामी हंसराज जी, स्वामी दर्शनानंद जी, स्वामी स्वतंत्रतानन्द जी, स्वामी सत्यपति जी परिव्राजक, आचार्य बलदेव जी नैष्ठिक, आचार्य ज्ञानेश्वर जी, स्वामी विवेकानंद जी परिव्राजक, व स्वामी ब्रह्मविदानंद जी सरस्वती (रोजड़) आदि I
उपरोक्त तिथियों के आधार पर इस वर्ष 2020 में स्वामी जी का जन्मदिवस 18 फरवरी व ऋषि बोधोत्सव 21 फरवरी को मनाया जा रहा है I आर्य समाज दोनों को ही पर्व के रूप में मनाता है I बहुत अच्छी बात है इससे ज्ञान व प्रेरणा की परम्परा का निर्वहन होता है, लेकिन वास्तव में दुर्भाग्य से यह ज्ञान व प्रेरणा घर जाते जाते धूमिल से पड़ जाते हैं यदि धूमिल न पड़ते तो विश्व का मार्गदर्शन व नेतृत्व आज आर्यसमाजियों के हाथ में होता I
हमारी सबसे बड़ी कमजोरी मेरी नजरों में यह है कि स्वामी दयानंद जी के महान त्याग तपस्या से अर्जित ज्ञान विज्ञान को हम बड़े स्तर पर व्यवहारिक रूप नही दे पाए न ही ईश्वर प्राप्ति व धर्म के क्षेत्र में व न ही राजनीतिक क्षेत्र में I
हमारे प्रवचनों की जगह हमारा आचरण बोलना चाहिए था लेकिन दुर्भाग्य से हमने अपने आचरण की परवाह न करके दूसरों के आचरण को सुधारने पर बहुत बल लगाया और वो सारा ज्ञान जैसे हमारे लिए शाब्दिक बनकर रह गया, दूसरों ने भी उसे उसी रूप में लिया और वो प्रभाव नही पड़ा जो पड़ना चाहिए था I
जहाँ न्यायालयों में न्यायधीश आर्यसमाजियों के कथन को सत्य एवं प्रमाण मानकर निर्णय सुना देते थे वहीं आज संध्या तक के लिए हमारे पास समय नही है, यज्ञ करने में भी आलस प्रमाद करते हैं, यम नियमों का हमारा स्तर बद से बदतर हो गया है तो कैसे हम “कृण्वन्तो विश्वमार्यम” को साकार रूप दे सकते हैं I
यहाँ मैं सबकी बात नही कर रहा लेकिन अधिकांश की बात कर रहा हूँ I स्वामी सत्यपति जी परिव्राजक जैसे कुछ महान व दिव्य आत्माएं आज भी आर्यसमाज में हैं, मैं उन सबको कोटिश: नमन करता हूँ जो इस विकृत भौतिकवाद के घोर अन्धकार में एक दीपक की भांति हमारा पथ प्रदर्शन कर रहे हैं I
स्वामी दयानंद जी द्वारा बताये मार्ग पर चलने के लिए पूज्य सत्यपति जी परिव्राजक (रोजड़) की पंक्तियों ( “कोई सुधरे या न सुधरे मैं जरुर सुधरूंगा और कोई सुधरे या बिगड़े लेकिन मैं नही बिगडूंगा) पर आज हर आर्यसमाजी को ध्यान देने की व आचरण में लाने की सख्त आवश्यकता है
हमारी कथनी करनी एक हो ऐसा बोध हम सबको हो, ऋषि बोधोत्सव के उपलक्ष्य पर सबके लिए ऐसी कामना करता हूँ व ईश्वर से प्रार्थना करता हूँइति!
प्रो. अनिल जिज्ञासु भू.पू.स.प्रोफेसर बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय वाराणसी