सचिन त्रिपाठी
आज की दुनिया में जहां हर क्षण एक स्टोरी है, हर भाव एक फिल्टर में ढलता है, वहां तीर्थयात्रा और पर्यटन के बीच की रेखा धुंधली हो गई है। यह वह युग है, जहां नयनाभिराम दृश्य नयन नहीं, लेंस से देखे जाते हैं; और जहां यात्रा का उद्देश्य आत्मशांति नहीं, ‘एंगेजमेंट’ होता है। यथा एक यूट्यूबर ने एक बार केदारनाथ धाम में ध्यानमग्न एक साधु से पूछा कि इतने वर्षों से आप मंदिर में दर्शन को आ रहे हैं। आपको क्या अंतर प्रतीत हुआ? साधु का उत्तर था, पहले लोग दोनों हाथ जोड़कर मंदिर के सम्मुख खड़े होते थे। अब एक हाथ में मोबाइल आ गया है। यह आलेख ऐसी ही जीवंत घटनाओं के उदाहरणों के साथ साथ एक आत्मविश्लेषण है उस परिवर्तन का जो आस्था को ‘हैशटैग’ में और मोक्षमार्ग को ‘रील्स’ में बदल रहा है।
भारत जैसे देश में, जहां हजारों सालों से तीर्थयात्राएं आध्यात्मिक साधना रही है, वहां यह सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं अपितु जीवन की तपस्या रहीं। काशी, गया, द्वारका, बद्रीनाथ, जगन्नाथ, वैष्णो देवी, सोमनाथ, वृंदावन या अयोध्या..। ये स्थान आत्मबोध की भूमि थे। यहां धर्मावलंबी, श्रद्धालु अपने पाप धोने, आत्म शांति खोजने एवं मोक्ष की ओर बढ़ने के भाव से आते थे। चिलचिलाती धूप, कंधों पर कांवड़, नंगे पांव की यात्रा और मन में सिर्फ ईश्वर का नाम यही तीर्थयात्राओं का मूल भाव रहा है। परंतु; आज वही तीर्थयात्राएं, इंस्टाग्राम स्टोरीज़ की ‘वाइब्रेंट रील्स’ में तब्दील हो गई हैं। अब यात्री की चिंता यह नहीं कि मन कितनी श्रद्धा में डूबा है, अपितु, यह है कि फोटो में कितना ‘एस्थेटिक’ बैकग्राउंड है।
पर्यटन हमेशा से आनंद, मनोरंजन और सांस्कृतिक खोज का जरिया रहा है। लोग पहाड़ों, समुद्रों, ऐतिहासिक स्थलों और बाजारों में घूमते थे ताकि वे अपनी दुनिया से हटकर कुछ नया देख सकें। मगर अब पर्यटन भी प्रदर्शन का माध्यम बन गया है – ‘;अगर तुमने पोस्ट नहीं किया, तो क्या तुम गए भी थे?”
इंस्टाग्राम कल्चर में पर्यटन अब सिर्फ घूमने का नाम नहीं रह गया बल्कि वह एक डिजिटल परफॉर्मेंस है। यह दिखाने का मंच है कि आप कितने ‘एक्सप्लोरर’, कितने ‘एस्थेटिक ट्रैवलर’, कितने ‘फ्री स्पिरिट’ हैं।
आज अगर आप वाराणसी जाएं तो घाटों पर उतनी प्रार्थनाएं नहीं दिखेंगी जितने मोबाइल कैमरे। केदारनाथ में श्रद्धालु से ज़्यादा कंटेंट क्रिएटर दिखते हैं। अमरनाथ के रास्ते में जितनी पवित्रता नहीं, उतना ट्रैवल व्लॉग दिखता है। तीर्थ अब पर्यटन स्थल बन गए हैं और श्रद्धा अब ‘हैशटैग’ में तब्दील हो गई है। लोग मंदिरों में प्रवेश से पहले जूते नहीं, कैमरा ट्राइपॉड उतारते हैं। दर्शन से पहले ‘सेल्फी विद गॉड’ जरूरी हो गई है। क्या यह सिर्फ आलोचना है या परिवर्तन की स्वाभाविक धारा है? यह जरूरी नहीं कि हर बदलाव बुरा ही हो। सोशल मीडिया के माध्यम से तीर्थ स्थलों को नई पीढ़ी जान रही है, देख रही है और वहां जाने की प्रेरणा ले रही है। कई युवाओं के लिए यह माध्यम धार्मिक रुचि जगाने का साधन भी बना है। इंस्टाग्राम पर जब कोई केदारनाथ में शिव की भक्ति में डूबी तस्वीर साझा करता है तो वह केवल दिखावा नहीं होता। कई बार वह श्रद्धा की डिजिटल अभिव्यक्ति भी होती है।
मूल समस्या तब आती है जब यात्रा का केंद्र बिंदु बदल जाता है। अगर तीर्थयात्रा केवल सुंदर तस्वीरों और वीडियो के लिए की जाती है और आस्था केवल ‘ रील्स’ के लिए होती है तो वह तीर्थ नहीं पर्यटन है और जब पर्यटन भी केवल दूसरों को दिखाने का माध्यम बन जाता है, तब वह अनुभव नहीं, अभिनय बन जाता है। तीर्थ का अनुभव कभी मौन होता था, भीतर उतरने वाला। अब वह डीजे वाले भजन, ड्रोन शॉट्स और ‘फुल सिनेमैटिक एक्सपीरियंस’ में तब्दील हो गया है। जो भाव पहले मन में जागते थे, अब वे एडिटिंग ऐप में डाले जाते हैं।
जब यात्रा का मकसद आध्यात्मिक नहीं, सामाजिक मान्यता हो तो यह एक भीड़ पैदा करता है – एक ऐसी भीड़ जो दर्शन के लिए नहीं, ‘फ्रेम’ के लिए आती है। यह भीड़ धार्मिक स्थलों की पवित्रता को भी प्रभावित करती है। गंदगी, शोर, अनुशासनहीनता, व्यवसायीकरण – यह सब तीर्थ स्थलों पर दिखने लगा है। इंस्टाग्राम के ट्रेंड ने कई तीर्थ स्थलों को पर्यटन हब में बदल दिया है। होटल, कैफे, इंस्टा फ्रेंडली कॉर्नर, भव्य गेटवे। यह सब अब तीर्थ स्थलों की पहचान बन रहे हैं। यहां तक कि मंदिरों के बाहर ‘फोटो बूथ’ बनने लगे हैं – “हैशटैग श्रीराम जोन”, “हैशटैग हरहरमहादेव स्पॉट” । इस बदलाव को नकारना व्यर्थ है लेकिन इस पर नियंत्रण जरूरी है। तीर्थयात्रा को पर्यटन में तब्दील होने से बचाने के लिए धार्मिक स्थलों की अपनी आचार संहिता होनी चाहिए, जैसे –कैमरा उपयोग की सीमा तय हो, फोटोशूट की अनुमति मंदिर के भीतर न हो, मौन, अनुशासन और स्वच्छता को बढ़ावा दिया जाए, यात्रा का उद्देश्य प्रचार न होकर प्रेरणा हो।
इंस्टाग्राम संस्कृति ने हमारे यात्रा अनुभवों में दृश्यता और साझा करने की सुविधा दी है लेकिन इसने आत्मिक अनुभवों को सतही भी बना दिया है। तीर्थयात्रा आत्मा की भूख है जबकि पर्यटन मन का सुख। अगर हम तीर्थ को भी सिर्फ कैमरे की नजर से देखेंगे तो उसकी पवित्रता खो जाएगी। तीर्थ को अनुभव करना है, दर्शाना नहीं। इसलिए अगली बार जब आप तीर्थ जाएं, तो एक तस्वीर खींचिए… पर एक क्षण अपने भीतर भी उतारिए – क्योंकि वहां कोई ‘फिल्टर’ नहीं, सिर्फ सच्चाई है।
सचिन त्रिपाठी