कविता ; अखबारों का छपना देखा – श्यामल सुमन

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श्यामल सुमन

मुस्कानों में बात कहो

चाहे दिन या रात कहो

चाल चलो शतरंजी ऐसी

शह दे कर के मात कहो

 

जो कहते हैं राम नहीं

उनको समझो काम नहीं

याद कहाँ भूखे लोगों को

उनका कोई नाम नहीं

 

अखबारों का छपना देखा

लगा भयानक सपना देखा

कितना खोजा भीड़ में जाकर

मगर कोई न अपना देखा

 

मिलते हैं भगवान् नहीं

आज नेक सुलतान नहीं

बाहर की बातों को छोडो

मैं खुद भी इंसान नहीं

 

अनबन से क्या मिलता है

जीवन व्यर्थ में हिलता है

भूलो दुख और खुशी समेटो

सुमन खुशी से खिलता है

 

 

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