कानूनी उत्पीड़त के विरोध में सवर्ण

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प्रमोद भार्गव
बम को चिंगारी से बचाने की दूरद्रष्टि हमारे ज्यादातर नेताओं में नहीं है। यदि द्रष्टि होती तो सर्वोच्च न्यायालय के 20 मार्च 2018 को आए जिन दिशा -निर्देश को लेकर केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने न्यायालय के आदेश को पलटा, उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप आज देष में सवर्ण और पिछड़े समुदाय के लोग सड़कों पर उतरकर भारत बंद के लिए मजबूर न हुए होते ? इस शांतिपूर्ण बंद की खासियत यह रही कि इसमें नेता और नेतृत्व नदारद थे। बावजूद बिहार में हिंसा और आगजनी की घटनाओं को छोड़ दें तो बंद सफल रहा। इस बंद का आवाहन 35 सवर्ण और ऐसे पिछड़े जातिगत संगठनों ने किया था, जिनकी कोई देशव्यापी पहचान नहीं है।
इस समय देश के नेताओं की गति सांप-छछूंदर सी हो गई है। सत्ता पक्ष हो या विपक्ष सबके ओंठ सिले हुए है। कोई भी नेता अनुसूचित जाति और जनजाति उत्पीड़न अधिनियम के समर्थन या विरोध में बोलने को तैयार नहीं है। यहां तक कि दलितों के बूते राजनीति करने वाली मायावती और पिछड़ी जातियों के बूते तीन दशक से सत्ता व राजनीति के सिरमौर रहे लालू, मुलायम और शरद यादव भी चुप हैं। इससे पता चलता है कि हमारे नेता राजनीति का सतही खेल खेलते हुए सिर्फ वोट की राजनीति करते हैं। एनडीए में शामिल दलित नेताओं के दबाव में प्रध्धमंत्री नरेंद्र मोदी आ गए और सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले को बदल दिया, जिसमें दलितों द्वारा उत्पीड़न की रिपोर्ट करने पर नरमी बरतते हुए जांच के बाद एफआईआर दर्ज करने का प्रावधान किया था। दरअसल निसंदेह भारतीय समाज की यह एक कड़वी सच्चाई है कि अभी भी दलित और आदिवासियों पर आर्थिक रूप से संपन्न और दबंग जातियों द्वारा अत्याचार होते हैं। किंतु इसका दूसरा पहलू यह भी है कि अजा और अजजा उत्पीड़न निरोधक कानून का दुरुपयोग भी बेहिसाब होता है। अदालत ने इसी दुरुपयोग को रूकने के लिए प्रावधान किया था कि मुकदमा दायर होते ही किसी को गिरफ्तार न किया जाए और 7 दिन के भीतर एसडीओपी स्तर का अधिकारी मामले की जांच करे। ततपश्चात सही पाए जाने पर मामला दर्ज हो। इसी प्रावधान के विरुद्ध 2 अप्रैल 2018 को दलित समुदाय के लोगों ने न केवल भारत बंद किया, बल्कि हिंसा और आगजनी की घटनाओं को भी अंजाम दिया था। राजग सरकार ने न्यायालय के आदेश को पलटते हुए यह भी दावा किया था कि सरकार ने संसद के मानसून सत्र में दलितों के हित में जो कानून पारित किया है, वह भविष्य में ‘न्याय का सत्र‘ कहलाएगा। ऐसा इसलिए भी कहा गया क्योंकि इसी सत्र में पिछड़ा वर्ग आयोग को भी संवैधानिक दर्जा दिया गया था। सवर्ण और पिछड़े समाज ने न्याय के सत्र की संज्ञा को दलितों का वोट के लिए तुष्टिकरण माना और इसे शा हबानों प्रकरण की तरह देखा और इसी परिप्रेक्ष्य में सफल भारत बंद किया। अब सत्तारूढ़ दल की हालत उस सांप-छछूंदर की तरह हो गई है कि न तो खाते बन रहा है और न ही निगलते ? यह दुविधा इसलिए भी बड़ी चुनौती है क्योंकि मध्य-प्रदेश , छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव सिर पर हैं। तेलंगाना के मुख्यमंत्री द्वारा सरकार भंग करने का प्रस्ताव राज्यपाल को दे दिए जाने से यह भी उम्मीद है कि इन्हीं राज्यों के साथ तेलंगाना के भी चुनाव हो सकते हैं। ऐसे में भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सामने चुनौती यह भी है कि वे कैसे दलित, सवर्ण और पिछड़ों को एक साथ खुश रखते हुए सामाजिक समरसता का वातावरण बनाए रखें ?
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम 1989 में दर्ज मामलों में महज गिरफ्तारी के प्रावधान पर सुप्रीम कोर्ट ने नए निर्देश  दिए थे। जिससे इस कानून का दहेज कानून की तरह दुरुपयोग न हो। अदालत ने सिर्फ यह फैसला दिया था कि इस कानून में सिर्फ प्राथमिकी के आधार पर गिरफ्तारी न हो, क्योंकि यह गलत है। आदर्श  स्थिति तो यही होती यदि शीर्ष न्यायालय ने किसी मुद्दे पर कोई फैसला दिया है तो उसे लेकर सड़कों पर उतरकर अराजकता फैलाने से बचा जाए। दुनिया भर के नागरिक एवं मानवाधिकार संगठनों की भी यह दलील है कि किसी भी गैर-नृशंस अपराध में केवल एफआईआर के आधार पर यदि गिरफ्तारी का प्रावधान है तो उसका दुरुपयोग होगा ही। इसकी मिसाल हमारे यहां दहेज विरोधी कानून है, जिसके  शिकार  हर जाति, धर्म और वर्ग के लोग हो रहे हैं। इसका दुरुपयोग न हो इस परिप्रेक्ष्य में गिरफ्तारी पर रोक व्यावहारिक थी। हालांकि एसडीओपी स्तर के अधिकारी द्वारा जांच के बाद यदि शिकायत सही पाई जाती है तो गिरफ्तारी की अनुमति करने का प्रावधान था। इसी तरह सरकारी कर्मचारी इस कानून का दुरुपयोग करता है तो उस कर्मचारी की गिरफ्तारी के लिए विभाग के प्रमुख अधिकारी से अनुमति लेना जरूरी है। इस  द्रष्टि  से यह फैसला जांच के जरिए सच्चाई सामने लाना भर था। वैसे भी षीर्श न्यायालय सब के लिए है और बदलते समय के अनुसार उसकी व्याख्या भी वर्तमान  परिद्रश्य  में उच्चतम न्यायालय ही करता है। संविधान का प्रमुख रक्षक भी यही न्यायालय है। ऐसे में यदि उसकी मंशा  पर संदेह का सिलसिला चल निकला तो धर्म और जाति से जुड़े फैसलों के विरोध का सिलसिला भी चल पड़ेगा। जबकि संविधान में दर्ज प्रावधानों के आधार पर ही सभी जाति और धर्म के लोगों को देश  में सम्मानजनक ढंग से रहने के मौलिक अधिकार मिले हुए हैं। गोया अदालत के फैसलों का सम्मान जरूरी है।
वैसे, भाजपा और  राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ मिलकर देश  में दलित और आदिवासियों के उत्थान के लिए जितने प्रकल्प चलाए हुए हैं, उतने चलाए जाने की  मंशा  कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों में नहीं है। 55 साल कांग्रेस देश  की सत्ता पर काबिज रही, लेकिन उसने संगठन के स्तर पर अनुसूचित जाति व जनजातियों के उत्थान व संमृद्धि के लिए कोई प्रकल्प नहीं चलाए। जबकि संघ के करीब डेढ़ लाख प्रकल्प आदिवासियों की शिक्षा और कल्याण के लिए चल रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही पहली बार 26 नबंवर को संविधान दिवस घोशित किया। इस दिन अब संसद व विधानसभाओं समेत शिक्षण संस्थाओं में संविधान और डाॅ भीमराव अंबेडकर के योगदान तथा लोकतांत्रिक मूल्यों पर चर्चा होती है। सबसे अधिक दलित सांसद भी भाजपा के ही है। लोकसभा में 66 आरक्षित सीटें हैं, जिनमें से 40 भाजपा के सांसद हैैं। दलित रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनने का अवसर भी इसी दल ने दिया। दलितों की सुप्रीम कर्णधार माने जाने वाली मायावती को दो मर्तबा उत्तर प्रदेश  मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला, लेकिन उन्होंने न तो शिक्षा में समानता लाने के प्रयास किए और न ही हिंदी माध्यम से सरकारी विद्यालयों में पढ़े दलित व आदिवासियों को नौकरियों में प्राथमिकता के प्रावधान किए। इसके उलट वे मायावती ही थीं, जिन्होंने अनुसूचित जाति व जनजाति से जुड़े करीब एक दर्जन कानूनों को शिथिल किया। यही नहीं ब्रह्माणों को सरकारी नौकरियों में पांच प्रतिशत  आरक्षण देने का प्रस्ताव भी उन्होंने विधानसभा से पारित कराया था। इन संदर्भों में दलितों को भी यह देखने की जरूरत है कि उनके नाम पर विपक्षी नेता राजनैतिक रोटियां तो नहीं सेंक रहे ?
इसमें कोई दो राय नहीं है कि हमारे दलित एवं आदिवासी समुदाय सदियों से कई तरह की मनोवैज्ञानिक हिंसा शारीरिक प्रताड़ता झेलते आए हैं। इस नजारिए से उन्हें एससी-एसटी एक्ट एक हथियार का अनुभव कराता है। ऐसे में इसमें कोई संशोधन का प्रावधान सामने आता है तो उन्हें यह भ्रम हो जाता है कि उनके हथियार की धार भौंथरी हो जाएगी। उनकी ताकत कमजोर पड़ जाएगी। इसमें शताब्दियों  से चले आ रहे उनके शोषण पर प्रतिबंध का कानूनी भरोसा अंतर्निहित है। वैसे दलित और आदिवासियों में फैली निराशा  के लिए किसी एक सरकार या दल को दोशी नहीं ठहराया जा सकता। देष पर 55 साल कांग्रेस और 10 साल भाजपा ने राज किया। बीच-बीच में मोरारजी देसाई, चरणसिंह, चंद्रषेखर, वीपी सिंह, एचडी देवगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल को भी प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिला, लेकिन समस्याएं यथावत रहीं। इनमें से कोई भी दल और नेता राजनैतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर समस्याओं के समाधान की  दिशा  में आगे नहीं बढ़ा। नतीजतन दबंग लोगों के हाथों दलित और आदिवासियों के मानवाधिकारों का हनन बरकरार रहा। यदि सत्तर साल की आजादी के बाद भी यह कलंक और भेदभाव बना रहता है तो यह स्थिति संवैधानिक लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है।
प्रत्येक जाति व धर्म समुदाय की अपनी जातीय गरिमा होती है। इस लिहाज से दलितों की भी अपनी गरिमा है। गोया अन्य जातीय समूहों को उनकी गरिमा का सम्मान करना चाहिए। भारत की कोई भी एक जाति का इतिहास ऐसा नहीं रहा, जो पूरी की पूरी विदेशी आक्रातांओं से लड़ी हो। इसलिए न केवल समूचे बहुजन समाज को सम्मानजनक दर्जा देने की जरूरत है, बल्कि इन्हें ‘शूद्र‘ के कलंक से भी मुक्त करने की जरूरत है। उच्च जातियों को इस लिहाज से यह भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि वर्तमान शूद्रों और वैदिककालीन शूद्रों में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। ये भी अंततः उन्हीं ऋशि-मुनियों के वंशज व सगोत्रीय  हैं, जिनकी सवर्ण जातियां हैं। भीमराव आंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘हू वेयर शूद्राज‘ में लिखा है, ‘मुझे वर्तमान शूद्रों के वैदिककालीन ‘शूद्र  वर्ण से संबंधित होने की अवधारणा पर शंका से नहीं हैं, अपितु उनका संबंध ब्राह्मण, राजपूत और क्षत्रियों से है।‘ इस तथ्य की पुष्टि  इस बात से होती है कि भारत की अधिकांश  दलित जातियां अपनी उत्पत्ति का स्रोत राजवंशों , क्षत्रीयों एवं राजपूतों में खोजती हैं। बाल्मीकियों पर किए गए ताजा शोधों से पता चला है कि अब तक प्राप्त 624 उपजातियों को वर्गीकृत करके जो 27 समूह बनाए गए हैं, इनमें दो समूह ब्राह्मण और सेस  25 क्षत्रियों के हैं। इस्लाम धर्म अपनाने के तमाम दबाव के बावजूद डाॅ आंबेडकर ने सनातन हिंदू धर्म से निकले बौद्ध धर्म का अपनाया, तो इसलिए क्योंकि उन्होंने वर्ण व्यवस्था को ठीक से समझ लिया था। इस लिहाज से सभी उच्च जातीय सवर्णों को आंबेडकर और उनके जाति समुदायों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए, क्योंकि यदि वे बौद्ध के बजाय इस्लाम धर्म अपना लेते तो भारत के एक बड़े भू-भाग में सनातन हिंदू अल्पसंख्यक हो गए होते। लिहाजा इतिहास की अतीत से जुड़ी बुनियाद पर जातीय सियासत देश के लिए घातक है।

 

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