वर्तमान बिहार में जन-प्रतिनिधिओं एवं कार्यपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार की चर्चा बराबर होती रह्ती है। कमीशनखोरी, संगठित ठेकेदारी राज के चलते कल्याणकारी योजनाओं में घटिया कार्य और मुनाफाखोरी की शिकायतें रोजमर्रा के विषय बन गए हैं। सुशासन के प्रति आमजन की धारणा में अनास्था भी पैदा हो रही है। नीतीश कुमार जी के पहले कार्यकाल में सूबे को संवारने और नए रूप में स्थापित करने का मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी का सपना देश के नक्शे पर कीर्तिमान स्थापित करने की दिशा में साकार होता जरूर दिखता था, किन्तु दूसरे कार्यकाल में इसके लिए बेलगाम अफ़सरशाही के साथ जन प्रतिनिधियों की साठगांठ पर शिकंजा कसने की जरूरत है जो भ्रष्टाचार का चरम है।
गांव की खुशहाली के बिना सुशासन में पंचायती राज व्यवस्था ढकोसला भर साबित हो रही है। सुशासन में जनता क्या चाहती है, इस पर गंभीर चिंतन के साथ दूरगामी क्रियान्वयन की जरूरत है, क्योंकि जिस विश्वास के साथ बिहार की जनता ने दोबारा नीतीश सरकार की वापसी का जनादेश दिया था, उससे साबित हो गया है कि जनता राहत के साथ विकास के प्रति न सिर्फ जागरूक है, बल्कि सुशासन की चाहत भी रखती है और सुशासन के नाम पर वास्तविकता में क्या हो रहा है उस पर भी पैनी नजर रख रही है।
“जो रचेगा, वही बसेगा” की तर्ज पर जनता के अपार बहुमत के फैसले से अफ़सर, निर्वाचित जन-प्रतिनिधि व नेता गांठ बांध लें कि जनता में तूफान की वह शक्ति है, जब चाहेगी, जड़ से उखाड़ फेंकेगी। जनता के साथ फांकीबाजी और धोखाधड़ी अब नहीं चलने वाली। जनता का काम पुरस्कार देना है, मगर पात्रता साबित करने पर। अधिकार यात्रा, विकास यात्रा, संकल्प रैली, मंथन-चिंतन शिविर , जनता दरबार का छलावा, भाषणों के लंबे-लंबे शोर, लोक लुभावन आश्वासन और मुखौटाधारी झांसा के दिन लद गए। अब तो “एक हाथ दे, दूसरे हाथ से ले।“ बिल्कुल नगद नारायण जैसा प्रचलन जनता तय कर चुकी है। इस में तनिक भी टस-मस की गुंजाइश नहीं रही है। जनता अपना कमाल दिखा चुकी है, “न्याय के साथ विकास या दूसरे शब्दों में कहूँ तो बदलाव के लिए” विश्वास मत देकर। अब बारी है सत्तासीन नायकों जिन्हें जनता ने खुले दिल से विजयमाला पहनायी थी। अपनी पीठ नीतीश जी चाहे खुद ही थपथपा लें, किन्तु उन्हें हर कीमत पर जनता के विश्वास पर खरा उतरना होगा।
इस सिलसिले में दो टूक कहा जाए तो दूसरे कार्यकाल में नीतीश जी की वापसी बिहार के सत्तासीनों के सामने कई बड़ी चुनौतियों लेकर खड़ी हैं। इन चुनौतियों के सामने खरा उतरने के लिए विकास के साथ-साथ जनता के हक-हकूक, राहत, सुविधा और सुरक्षा की दिशा में केवल कागजी कानून नहीं बनाए जाएं, बल्कि कार्यान्वयन और सुनवाई पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। भ्रष्ट नौकरशाहों पर लगाम कसने, आम जनता के साथ अच्छे सलूक करने की सलाह के साथ के साथ पंचायती राज के प्रतिनिधियों की दबंगई और भ्रष्ट आचरण पर अंकुश लगाए बिना ‘न्याय के साथ विकास’ का स्लोगन और “सुशासन” का नारा ढिंढोरा ही साबित हो रहा है और होगा।
सूबे में बदहाल शिक्षा व्यवस्था, कुपोषण, भूखमरी (ज्ञातव्य है कि देश में भूखमरी की दर 23.3 फीसदी है और बिहार में 27.3) , स्वास्थ्य-सेवाएं,
कोई कुछ कहे , कुछ भी सोचें , पर अपने नीतीश बाबू तो अपनी धुन में आगे बढ़ कर अपने रक् काल को सुराज व सबसे श्रेष्ट मॉडल कहने में नहीं हिचकते हैं.वे तो अपने विकास मॉडल में रमे हुए हैं.चे कोई कुछ भी कहे कुछ भी सोचे.