- योगेश कुमार गोयल

हिमाचल हो या पंजाब, उत्तराखण्ड हो या राजस्थान अथवा केरल या कर्नाटक, लगभग पूरे
देश में इस समय मूसलाधार बारिश और बाढ़ कहर बरपा रही हैं। कहीं तेज बारिश, कहीं भू-
स्खलन तो कहीं बादल फटने की घटनाएं स्थिति को और भी विकराल बना रही हैं। उत्तर, पश्चिम
और दक्षिण भारत में पहाड़ी क्षेत्रों से लेकर तमाम मैदानी इलाकों में इस वक्त हर कहीं आसमान
से आफत बरस रही है और बाढ़ से भयानक तबाही का मंजर नजर आ रहा है। हिमाचल में तो
भारी बारिश का 70 साल का रिकॉर्ड टूट गया है और कई इलाकों में बेमौसम बर्फबारी भी हुई है।
तेज बारिश के चलते पंजाब में भाखड़ा बांध तथा रणजीत सिंह सागर बांध के अलावा हिमाचल
में चंबा के चमेरा बांध, उत्तराखण्ड के हरिद्वार बैराज, श्रीनगर बैराज इत्यादि से ओवरफ्लो के
कारण अतिरिक्त पानी छोड़े जाने के कारण जहां बहुत सारे निचले इलाकों के लोगों में दहशत
व्याप्त है, वहीं हरियाणा में हथिनीकुंड बैराज से लाखों क्यूसेक पानी छोड़े जाने से देश की
राजधानी दिल्ली में भी बाढ़ का खतरा मंडरा रहा है। इस समय हालात ऐसे हैं कि देश के जिस
भी हिस्से में देखें, वहीं जल आतंक का नजारा है। वर्षा और बाढ़ के प्रकोप के चलते जहां सैंकड़ों
लोग काल कवलित हो गए हैं, वहीं जान-माल की भारी क्षति के साथ-साथ आम जनजीवन भी
बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो गया है, जगह-जगह हजारों मकान ध्वस्त हो गए हैं, हजारों-लाखों एकड़
फसलें, हजारों वाहन और लाखों मवेशी बाढ़ में बह गए हैं, कई लाख लोग बेघर हो गए हैं।
मानसून के दौरान अब हर साल देशभर में इसी तरह के हालात देखे जाने लगे हैं, जब
एक साथ कई राज्य बाढ़ के रौद्र रूप के सामने इसी प्रकार बेबस नजर आते हैं। विड़म्बना यह है
कि हम हर साल उत्पन्न होने वाली ऐसी परिस्थितियों को ‘प्राकृतिक आपदा’ के नाम का चोला
पहनाकर ऐसे ‘जल प्रलय’ के लिए केवल प्रकृति को ही कोसते हैं लेकिन कड़वी सच्चाई यही है
कि मानसून गुजर जाने के बाद भी पूरे साल हम ऐसे कोई प्रबंध नहीं करते, जिससे आगामी वर्ष
बाढ़ के प्रकोप को न्यूनतम किया जा सके। आपदा प्रबंधन के लिए केन्द्र सरकार द्वारा वर्ष
2010 में पांच बिलियन डॉलर की भारी-भरकम राशि का प्रावधान किया था, जिसमें तीन चौथाई
योगदान केन्द्र का ही है। इससे सहजता से समझा जा सकता है कि आपदा प्रबंधन कार्यों के
लिए धन की कोई बड़ी समस्या नहीं है लेकिन अगर फिर भी बाढ़ जैसी आपदाएं हर साल
देशभर में कहर बरपा रही हैं तो इसका सीधा सा अर्थ है कि आपदाओं से निपटने के नाम पर
देश में दीर्घकालीन रणनीतियां नहीं बनाई जाती। कई बार देखने में आता है कि प्राकृतिक
आपदाओं के लिए स्वीकृत फंड का इस्तेमाल राज्य सरकारों द्वारा दूसरे मदों में किया जाता है।
बारिश प्रकृति की ऐसी नेमत है, जो लंबे समय के लिए धरती की प्यास बुझाती है,
इसलिए होना तो यह चाहिए कि मानूसन के दौरान बहते पानी के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण
कदम उठाए जाएं ताकि संरक्षित और संग्रहीत यही वर्षा जल मानूसन गुजर जाने के बाद देशभर
में पेयजल की कमी की पूर्ति कर सके और इससे आसानी से लोगों की प्यास बुझाई जा सके।
प्रकृति की यही नेमत हर साल इस कदर आफत बनकर क्यों सामने आती है? हम अगर अपने
आसपास के हालातों पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि मानूसन से पहले स्थानीय निकाय तेज
बारिश होने पर बाढ़ के संभावित खतरों से निपटने को लेकर कभी मुस्तैद नहीं रहते, हर जगह
नाले गंदगी से भरे पड़े रहते हैं, उनकी साफ-सफाई को लेकर कोई सक्रियता नहीं दिखती। विकास
कार्यों के नाम पर सालभर जगह-जगह सड़कें खोद दी जाती हैं लेकिन मानसून से पहले उनकी
मरम्मत नहीं होती और अक्सर ये टूटी सड़कें मानूसन के दौरान बड़े हादसों और अस्त-व्यस्त
जीवन का कारण बनती हैं। प्रशासन तभी हरकत में आता है, जब कहीं कोई बड़ा हादसा हो जाता
है या जनजीवन बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाता है।
तेज मूसलाधार बारिश को भले ही प्रकृति की मर्जी कहा जा सकता है किन्तु अगर अब
साल दर साल थोड़ी तेज बारिश होते ही पहाड़ों से लेकर मैदानों तक हर कहीं बाढ़ जैसे हालात
नजर आने लगते हैं तो इसे ईश्वरीय प्रकोप या दैवीय आपदा की संज्ञा हरगिज नहीं दी सकती
क्योंकि यह सब प्रकृति के साथ बड़े पैमाने पर की जा रही छेड़छाड़ का ही दुष्परिणाम है, जो हम
हर साल कभी सूखे तो कभी बाढ़ के रूप में भुगतने को विवश हो रहे हैं। हालांकि कहा जा रहा
है कि भारी बारिश के चलते ही हर कहीं तबाही का मंजर पैदा हुआ है किन्तु यदि देशभर में
अभी तक हुई बारिश के आंकड़ों पर नजर डालें तो बारिश इतनी ज्यादा भी नहीं हुई कि हर कहीं
हालात इस कदर भयावह हो गए। मानसून की शुरूआत से लेकर अभी तक पूरे देश में 626
मिलीमीटर बारिश हुई है, जो सामान्य 612 मिलीमीटर बारिश से करीब दो फीसदी ही ज्यादा है।
वैसे औसत से ज्यादा बारिश होना भी कोई ईश्वरीय प्रकोप नहीं है बल्कि यह पृथ्वी के बढ़ते
तापमान अर्थात् जलवायु संकट का ही दुष्परिणाम है।
अब अगर पहाड़ी इलाकों में भी हर साल बाढ़ या भू-स्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाएं
विकराल रूप में सामने आने लगी हैं तो इसके कारणों की समीक्षा बेहद जरूरी है। मोटे तौर पर
देखें तो हमने पर्यटन लाभ के लालच में पहाड़ों की सूरत और सीरत बिगाड़ दी है। जंगलों का
सफाया कर पहाड़ों पर बनते आलीशान होटलों और बहुमंजिला इमारतों के बोझ तले पहाड़ दबे
जा रहे हैं और पहाड़ों पर बढ़ते इसी बोझ का नतीजा है कि वहां बारिश से भारी तबाही और भू-
स्खलन का सिलसिला बहुत तेजी से बढ़ रहा है लेकिन इसका सारा दोष हम प्रकृति के माथे पर
मढ़कर स्वयं की कमियां खोजने का प्रयास ही नहीं करते। प्रकृति ने बारिश को समुद्रों तक
पहुंचाने का जो रास्ता तैयार किया था, हमने विकास के नाम पर या निजी स्वार्थों के चलते उन
रास्तों को ही अवरूद्ध कर दिया है। नदी-नाले बारिश के पानी को अपने भीतर सहेजकर शेष
पानी को आसानी से समुद्रों तक पहुंचा देते थे किन्तु नदी-नालों को ही हमने मिट्टी और गंदगी
से भर दिया है, जिससे उनकी पानी सहेजने की क्षमता बहुत कम रह गई है, बहुत सारी जगहों
पर नदियों के इन्हीं डूब क्षेत्रों को आलीशान इमारतों या संरचनाओं के तब्दील कर दिया गया है,
जिससे नदी क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं। ऐसे में नदियों में भला बारिश का कितना पानी समाएगा और
नदियों से जो अतिरिक्त पानी आसानी से अपने रास्ते समुद्रों में समा जाता था, उन रास्तों को
भी अवरूद्ध देने के चलते बारिश का यही अतिरिक्त पानी आखिर कहां जाएगा? सीधा सा अर्थ है
कि जरा सी ज्यादा बारिश होते ही यही पानी जगह-जगह बाढ़ का रूप लेकर तबाही ही मचाएगा।
बड़े पैमाने पर वनों की कटाई और प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट के चलते ही इस प्रकार की
पारिस्थितिकीय त्रासदियां पैदा हो रही हैं। फिर भला इसमें प्रकृति का क्या दोष? सारा दोष तो
उस मानवीय फितरत का है, जो प्रकृति प्रदत्त तमाम नेमतों में सिर्फ और सिर्फ अपने स्वार्थ
तलाशती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)
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