आरक्षण…या संरक्षण

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बीनू भटनागर

जिस समय काम के अनुसार वर्णप्रथा का आरंभ हुआ होगा उस वख़्त संभवतः वह वख़्त का तक़ाज़ा ही रहा होगा योग्यता और क्षमता के अनुसार समाज को वर्णो मे बाँट दिया गया होगा। राजा का बेटा राजा बनता है इसी प्रकार पिता का रोज़गार ही बेटा अपनाये ऐसी प्रथा चल पड़ी होगी। यह सही है कि हर पीढी की रुचि और योग्यता एकसी नहीं होती, अपना रोज़गार अपनी बुद्धि और क्षमता के अनुसार चुनने का अधिकार सबको होना चाहिये। आज भी बहुत से रोज़गार पीढी दर पीढी चलते हैं। यद्यपि पारिवारिक रोज़गार छोडने की आज स्वतन्त्रताM है पर अधिकतर पिता की दुकान बेटा संभालता है, बड़े बड़े उद्योग घरानों मे चलते है, ,संगीत घरानो मे ही पनपा है, नेता अभिनेता भी अपने बच्चों को अपने व्यवसाय मे लाने की कोशिश करते हैं, परन्तु योग्यता के बिना कोई सफल नहीं हो सकता। अयोग्य राजकुमार यदि राजा बन जाये तो उसका राज्य कोई भी हडप लेगा, उद्योगपति पूरा कार्यभार अपने निकम्मे बेटे को सौंप दे तो बरसों की महनत पानी मे बहते देर नहीं लगेगी।

व्यक्ति योग्यता के अनुसार ही आगे बढ़ सकता है पारिवारिक रोज़गार को बचपन से देखा समझा होता है, अतः उसे करने मे कोई बुराई नहीं है। वर्णप्रथा का सबसे बड़ा दोष यह था कि पारिवारिक व्यवसाय से अलग हो कर अपनी रुचि और योग्यता के अनुसार काम चुनने की स्वतन्त्रता नहीं दी गई थी। समाज जातियों मे बंट गया और जाति जन्म से निश्चय हो जाती है। इसका सबसे अधिक नुकसान तथाकथित निचली जाति के लोगों को हुआ जिन्हें शू्द्र कहा गया। ऊँची जाति के लोगों का व्यवहार उनके प्रति क्रूर होता गया, उन्हें अछूत माना जाने लगा, उनके लियें शिक्षा के दरवाज़े बन्द कर दिये गये, मन्दिरों मे प्रवेष पर प्रतिबन्धि हो गया यहाँ तक कि उनके और ऊँची जाति के लोगों के लियें कुँओं की भी व्यवस्था अलग अलग कर दी गई। उनके साथ अमानवीय व्यवहार सदियों तक होता रहा, जो निसन्देह ग़लत था। जो बीत गया उसे तो बदला नही जा सकता न उसकी भरपाई हो सकती है गाँधी जी ने शूद्रों को गले से लगाया उन्हें हरिजन कहा। स्वतन्त्रता मिलने के बाद एक निश्चित अवधि तक शिक्षा और सरकारी नौकरियों मे उन्हे आरक्षण देने की बात संविधान मे मानी गई। छुआछूत भेदभाव को अपराध माना गया। सभी को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार दिया गया।

धीरे धीरे समाज मे भी यह चेतना आई कि छुआछूत और छोटी जाति के लोगों को बेवजह प्रताड़ित करने की ग़लती अब न हो। बहुत से लोगों ने नाम के साथ जाति सूचक सरनेम की जगह कुमार, नाथ या स्वरूप जैसे सरनेम अपना लिये, एक जातिविहीन समाज की कल्पना की। आज का ब्राह्मण भी रोटी रोज़ी के लियें उसी तरह जूझ रहा है जैसे कोई दलित जूझता है। जाति से रोज़गार का संबध अब ख़त्म हो चुका है। पहले संपन्न परिवारों मे किसी को घरेलू काम पर रखने से पहले उसकी जाति पूछी जाती थी पर अब ऐसा नहीं है ,मेरे घर मे जो महिला खाना बनाती है उसकी जाति मुझे नहीं मालूम। मेरे यहाँ एक बढई काम करने आता रहता है जो जाति से ब्राह्मण है। बड़ी बड़ी आभूषणो की दुकानो के मालिक यदि जाति से सुनार भी हों तो वे दलित कैसे हो गये। सरकारी सफ़ाई कर्मचारी सारे ही जाति से जमादार नहीं होते, कई ज़रूरतमन्द तथाकथित ऊँची जाति के लोग भी एक बंधी बंधाई आमदनी और आर्थिक सुरक्षा के लियें यह काम कर रहे हैं। बहुत पहले मेरे घर मे एक औरत कपड़े धोने और सफ़ाई का काम करती थी, पहले मुझे उसकी जाति नहीं मालूम थी बाद मे पता चला कि वह ब्राह्मण थी, उसका पति कोई छोटी मोटी नौकरी के साथ परिवार की आय बढ़ाने के लियें लोगों के घरों मे हवन कथा आदि कराने का काम भी करता था। एक ओर तो उसे आदर सत्कार के साथ भोजन कराया जाता था दूसरी ओर उसकी पत्नी को झाड़ू बर्तन का काम करना पडता था।

जिन्हें कुछ दशक पूर्व अछूत माना जाता था उनमे से बहुत से लोग आज ऊँचे ऊँचे पदों पर विराजमान हैं, जाति की वजह से वे किसी सुविधा से वचित नहीं हैं। काफ़ी पहले ये भेद भाव समाप्त हो चुके हैं। आजकल जो भी अंतर है आर्थिक है, अमीरी ग़रीबी के हैं।

कभी कभी ख़बर आती है कि कही किसी दलित लड़की के साथ बलातकार हुआ, पर ऐसा ही कुकृत्य यदि किसी ब्राह्मण या वैश्य लड़की के साथ होता है तो क्या कभी समाचार मे ऐसा बताया जाता है कि किसी ऊँची जाति की लडकी के साथ बलात्कार हुआ…कभी भी नहीं। समाचार को इस तरह पेश किया जाता है जैसे अपराधी हमेशा ऊँची जाति से होता है और पीड़ित छोटी जाति से।

कभी कभी पता चलता है कि दलित छात्रों से ऊँची जाति के छात्रों ने दुर्व्यवहार किया या किसी दलित अफ़सर से बत्तमीज़ी की गई। इसका कारण यह नहीं होता कि वे छात्र या अफ़सर दलित है, इसके पीछे कहीं न कहीं उनका क्षोभ होता है अपने से कम योग्य व्यक्ति को अपने समकक्ष या अपने से ऊपर पाकर, अगर दलित खुली प्रतियोगिता से आयें तो ऐसा नहीं होगा। मै यह नहीं कह रही कि किसी से भी दुर्व्यवहार करना जायज़ है, मै केवल ऐसी धटनाओं के पीछे छुपे मनोवैज्ञानिक कारणो को बता रही हूँ।

कुछ वर्ष पहले हमारी एक मित्र मंडली हुआ करती थी, जिसकी सभी सदस्यायें सरकारी अफ़सरों की पत्नियाँ थी। हम लोग महीने मे एक बार मिलते थे। सबका रहन सहन जीवन स्तर एकसा ही था, किसकी जाति क्या है यह कभी किसीने नहीं सोचा, सभी महिलायें शिक्षित थीं, कुछ गृहणियाँ थीं, कुछ कामकजी भी थीं। सब आसपास रहते थे।

हमारे बच्चे भी साथ साथ खेल कर बड़े हो रहे थे। कुछ महिाओं के सरनेम ऐसे थे जिनसे जाति का पता नहीं चलता कभी किसीने उनकी जाति पता करने की भी कोशिश नहीं की। इन बच्चों मे से बारहवीं कक्षा के बाद एक औसत बुद्धि और क्षमता वाले छात्र को जब एक अति उच्च कोटि के संस्थान मे दाख़िला मिल गया तो हम सबको ख़ुशी भी हुई और हैरानी भी, क्योंकि कुछ अतयन्त होनहार बच्चे वहाँ प्रवेष नीं पा सके थे। बाद मे पता चला कि उसका दाख़िला अनुसूचित जाति के तहत आरक्षण की वजह से हुआ था।

उस बच्चे की परवरिश और अन्य बच्चों की परवरिश मे कोई अन्तर न होते हुए भी एक विशेष जाति मे पैदा हो ने के कारण उसको दाख़िला मिला ऐसे मे उसके अन्य साथियों को थोड़ा बहुत क्षोभ होना अस्वाभाविक तो नहीं है । दरअसल उसके पिता और शायद उनके पिता भी आरक्षण का लाभ उठा चुके थे। इस सिलसिले के कारण दलितों का भी एक जरूरतमन्द वर्ग आरक्षण का लाभ नहीं उठा पाता। एक व्यक्ति अगर आरक्षण का लाभ उठा ले तो उसकी संतानों को यह लाभ क़तई नहीं मिलना चाहये। ये मामूली सी बात कोई राजनैतिक दल समझना नहीं चाहता क्योंकि इससे व्यक्तिगत नुकसान के साथ वोट बैंक को नुकसान पंहुचने का भी डर है।

जातियों के पिछड़ेपन का क्या आधार है ये भी पता नहीं, क्या ये आधार शिक्षा है या आर्थिक है या फिर वर्णप्रथा। किसे ओ.बी.सी.किसे अनुसूचित जाति और किेसे अनुसूचित जनजाति मे क्यों रक्खा जाय इसका क्या मापदण्ड है ? मुझे तो नहीं मालूम, मै तो बस यह जानती हूँ कि जो ओ.बी.सी. मे हैं वो अधिकाधिक लाभ के लियें अनुसूचित जाति मे जाना चाहते हैं, जो अनुसूचित जाति मे हैं वो अनुसूचित जनजाति मे जाना चाहते हैं। इसलयें कभी जाट, तो कभी गुर्जर रेल की पटरी पर आकर बैठ जाते हैं। मै तो कायस्थ हूँ, ,न ब्राह्मण न क्षत्रिय न वैश्य तो क्या हम कायस्थ भी…..?

आरक्षण के विरोध मे कुछ कहना या लिखना तो आजकल अपराध सा हो गया है, किसीने ज़रा सी आपत्ति की नहीं कि उसे दलित विरोधी बता दिया जाता है मानो देशद्रोह कर दिया हो। कुछ दलित लोग तर्क देते हैं कि दलित होने के कारण जीवन मे उन्हे जितनी शर्मिन्दगी उठानी पड़ती है उसका अनुमान भी ऊँची जाति के लोग नहीं लगा सकते। यदि ऐसा है तो कुछ ऊँची जाति के लोग नीची जाति का झूठा प्रमाणपत्र तक क्यों बनवा लेते हैं//। अपने उज्ज्वल भविष्य की उम्मीद मे वे ये काम करने से भी नहीं चूकते। उन्हें दलित कहलाने मे जब कोई शर्मिन्दगी नहीं तो दलितों को क्यो शर्मिन्दगी होनी चाहिये। कौन कहाँ किस जाति मे जन्म लेता है इसपर उसका अपना अधिकार तो होता नहीं है।

दलित समाज बार बार अपने को दलित कह कर अपनी एक अलग पहचान या अलग अस्तित्व बनाने मे लगा हुआ है अन्यथा दलित साहित्य या ओ.बी.सी. साहित्य जैसे शब्द सुनने को नहीं मिलते। इस प्रकार तो कबीर और रैदास भी साहित्य की मुख्य धारा से अलग हो जायेंगे। साहित्य तो साहित्य है, लेखक या कवि की जाति से उसका क्या लेना देना।

आरक्षण का यह सिलसिला जो एक निश्चित अवधि के लियें शुरू हुआ था अब कभी न ख़त्म होने वाली मजबूरी बन गया है बल्कि उसका आधार दिनबदिन और व्यापक होता जा रहा है। जो आरक्षण के दायरे मे हैं उन्हे ये अपना अधिकार लगता है, जो नहीं हैं वो उसमे घुसना चाहते हैं।अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति फिर ओ.बी.सी. के साथ अल्पसंख्यकों को भी आरक्षण चाहिये, वह समय बहुत दूर नहीं जब जनरल कैटेगरी के लोगों को भी आरक्षण देना पड़ सकता है। सौ पचास साल मे तो वो शोषित की श्रेणी मे आ ही जायेंगे। संभव है कुछ दशक बाद खेल कूद और सेना मे आरक्षण मिलना शुरू हो जाय । अभी तो प्राइवेट सैक्टर मे आरक्षण देने की बात ही होती है।

हाल ही मे आमिर खाँ के कार्यक्रम मे दलितों के एक वर्ग की दुर्दशा को दिखाया गया था,सत्य इतना वीभत्स था। स्वतन्त्रता प्राप्त होने के 65 वर्ष बाद, इतना आरक्षण मिलने के से भी उनकी दशा नहीं सुधरी तो ये आरक्षण की नीतियों की पूर्ण विफलता है।आरक्षण का लाभ तो उन लोगों को ही मिल रहा है जिनके हालात पहले हीधर चुके हैं।औ.बी.सी. की सीटें भले ही खाली रह जायं पर वो जनरल कैटेगरी को नहीं दी जाती आख़िर क्यो /?

मेरे विचार से आरक्षण किसी को भी नहीं मिलना चाहिये। आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर वर्गों को थोड़ा संरक्षण और सुविधायें मिलनी चाहियें। आर्थिक अभाव के कारण किसी योग्य होनहार छात्र, चाहें वह किसी भी जाति या धर्म से हो, उसकी प्रतिभा विकसित हो सके इस उद्येश्य को लेकर नीतियाँ बनानी चाहियें। योग्यता और क्षमता से समझौता करना न देश के हित मे है न व्यक्ति के हित मे।

4 COMMENTS

  1. आरक्षण मामले में सरकारी सेवाओं और शिक्षण संस्थानों में प्रवेश में आरक्षण को लेकर ही आज अधिकतर सवर्ण लोगों में अधिक रोष है, राजनैतिक आरक्षण आम सवर्ण व्यक्ति के लिए कभी बड़े विवाद का विषय नहीं रहा! जबकि रोष व्यक्त करने वालों को सच्चाई का ज्ञान ही नहीं है! आप और हम जानते हैं कि भारत में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसरों के पास ही सत्ता की असली ताकत है! प्रशासनिक सेवा के अफसर ही देश के नीतिनियंता और भाग्य विधाता हैं! जिसमें आजादी से पूर्व और बाद में आरक्षण की स्थिति कैसी है, ये जानना आपके लिए जरूरी है!

    1. 1947 तक भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के 80 प्रतिशत से अधिक पदों पर मुसलमान, कायस्थ और राजपूत कौमों के लोग पदस्थ थे।

    जिनमें क्रमश : करीब :-

    (1) 35 प्रतिशत पदों पर मुसलमान।
    (2) 30 प्रतिशत पदों पर कायस्थ।
    और
    (3) 15 प्रतिशत पदों पर राजपूत पदस्थ हुआ करते थे।

    2. आजादी के बाद उक्त तीनों कौमों के कुल मिलाकर 05 प्रतिशत लोग भी भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में नहीं हैं। आखिर क्यों? क्या भारत को आजादी मिलने के बाद इन तीनों कौमों की माताओं ने मूर्ख बच्चे पैदा करना शुरू कर दिये हैं?

    3. मेरे पास उपलब्ध जानकारी के अनुसार 2004-2005 तक भारतीय प्रशासनिक सेवा के कुल 3600 पद थे। जिनमें से-

    (1) 22.50 प्रतिशत (810) पद अजा एवं अजजा के लिये आरक्षित होते हुए भी और लिखित परीक्षा में योग्यता अर्जित कर लेने के उपरान्त भी साक्षात्कार में अनुत्तीर्ण करके अजा एवं अजजा के मात्र 213 (5.91 प्रतिशत) लोग ही चयनित किये गये थे।

    (2) अजा एवं अजजा दोनों वर्गों की आबादी, देश की कुल आबादी का 25 प्रतिशत मानी जाती है। जिसके मुताबिक इनकी भागीदारी बनती है : 900 पदों पर।

    (3) 27 प्रतिशत (972) पद अन्य पिछडा वर्ग के लिये आरक्षित होते हुए भी, अन्य पिछडा वर्ग के मात्र 186 (5.17 प्रतिशत) लोग ही चयनित किये गये थे।

    (4) पिछडा वर्ग की आबादी, देश की कुल आबादी का 45 प्रतिशत मानी जाती है। जिसके अनुसार इनकी भागीदारी बनती है : 1620 पदों पर।

    (5) बिना किसी आरक्षण के भारतीय प्रशासनिक सेवा के कुल 3600 पदों में से 2400 पदों पर केवल ब्राह्मण जाति के लोग चयनित किये गये थे। जिनकी आबादी देश की कुल आबादी का 3.50 प्रतिशत मानी जाती है। जिसके अनुसार इनका अधिकार केवल 126 पदों पर बनता है। जिसमें से भी हिन्दूवादी ब्राहमण अपनी स्त्रियों को पुरुष के समान नहीं मानते और न हीं उन्हें नौकरी करने की स्वीकृति देना चाहते, क्योंकि वे (संघ की विचारधारानुसार) स्त्रियों को बच्चे पैदा करने की मशीन से अधिक कुछ नहीं मानते। इस प्रकार ब्राह्मणों की पुरुष आबादी देश की कुल आबादी का मात्र 1.75 प्रतिशत ही रह जाती है, जो 2400 पदों पर काबिज है, जबकि इनके हिस्से में केवल 63 पद आते हैं।

    (6) बिना किसी आरक्षण के भारतीय प्रशासनिक सेवा के कुल 3600 पदों में से 700 पदों पर केवल वैश्य जाति के लोग चयनित किये गये थे। जिनकी आबादी देश की कुल आबादी का 7 प्रतिशत मानी जाती है। जिसके अनुसार इनका अधिकार केवल 252 पदों पर ही बनता है।

    4. प्रस्तुत आँकडों से कोई साधारण पढा-लिखा व्यक्ति भी आरक्षण की स्थिति को आसानी से समझ सकता है साथ ही इस बात को भी कि आजादी के बाद पहली बार प्रस्ताविक जाति के आधार पर देश के लोगों की गणना नहीं करवाने के पीछे कौन लोग हैं और उनके इरादे क्या हैं? इससे साफ तौर पर पता चलता है कि यदि जाति के अनुसार जनगणना होती है तो उपरोक्त सभी जातियों की वर्तमान अधिकृत जनसंख्या के आँकडे सामने आ जायेंगे। जिन्हें उनके हकों से वंचित नहीं किया जा सकता!

    5. कुछ समय पूर्व एक गैर सरकरी कॉलेज के बच्चों ने हमारे संगठन-“भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)”-को लिखित में शिकायत की, कि उनके कॉलेज का प्रशासन बनिया-ब्राह्मणों द्वारा अपने शिकंजे में लिया हुआ है, जिसके चलते गैर-बनिया-ब्राह्मणों के बच्चों के अंक कम दिये जा रहे हैं। जिसके चलते वे मैरिट में पिछड रहे हैं।

    6. हमने शिकायत की सच्चाई जानने के लिये हमें अनारक्षित कार्यकर्ताओं की एक टीम बनाई! टीम ने सूचना अधिकार के तहत और अपने तरीके से आँकडे जुटाये और एक कक्षा के टॉप 25 छात्रों द्वारा प्राप्त आँकडों के अनुसार बनायी गयी मैरिट यहाँ प्रस्तुत है। जानने का प्रयास करें कि कौन पढने में कितना माहिर है? तथा किसके साथ कौन भेदभाव कर रहा है?

    छात्र की जाति, आंतरिक अंक, प्रायोगिक अंक, लिखित के अंक, कुल अंक
    ===============================
    ०१. ब्राह्मण २०/२० २०/२० ५२/६० ९२/१००
    ०२. बनिया २०/२० १९/२० ५२/६० ९१/१००
    ०३. बनिया २०/२० २०/२० ५१/६० ९१/१००
    ०४. ब्राह्मण २०/२० २०/२० ५०/६० ९०/१००
    ०५. ब्राह्मण २०/२० २०/२० ४८/६० ८८/१००
    ०६. ब्राह्मण २०/२० १९/२० ४७/६० ८६/१००
    ०७. बनिया १९/२० २०/२० ४७/६० ८६/१००
    ०८. ओबीसी १५/२० १४/२० ५७/६० ८६/१००
    ०९. एससी १४/२० १४/२० ५८/६० ८६/१००
    १०. एसटी १३/२० १४/२० ५९/६० ८६/१००
    ११. एससी १४/२० १३/२० ५८/६० ८५/१००
    १२. बनिया १९/२० १९/२० ४६/६० ८४/१००
    १३. ओबीसी १३/२० १३/२० ५७/६० ८३/१००
    १४. ब्राह्मण २०/२० १९/२० ४४/६० ८३/१००
    १५. बनिया १९/२० १९/२० ४५/६० ८३/१००
    १६. बनिया २०/२० १९/२० ४४/६० ८५/१००
    १७. ओबीसी १३/२० १३/२० ५७/६० ८३/१००
    १८. एसटी १५/२० १५/२० ५२/६० ८२/१००
    १९. एससी १५/२० १५/२० ५२/६० ८२/१००
    २०. ओबीसी १५/२० १५/२० ५१/६० ८१/१००
    २१. एसटी १२/२० १०/२० ५८/६० ८०/१००
    २२. एससी १०/२० ०९/२० ५८/६० ७७/१००
    २३. एससी ०९/२० ०९/२० ५७/६० ७५/१००
    २४. एसटी १०/२० ०८/२० ५७/६० ७५/१००
    २५. एससी १०/२० ०९/२० ५५/६० ७४/१००
    ===============================
    नोट : हमने जो सूचना प्राप्त की है, उसमें छात्रों के सरनेम के अनुसार यह भी ज्ञात हुआ है कि ब्राह्मण एवं बनिया के अलावा सवर्ण राजपूतों, कायस्थों, मुसलमानों, आदि के अंक बहुत ही कम दिये गये हैं।

    7. हमारे संस्थान ने उक्त जानकारी से सम्बद्ध विश्विविद्यालय एवं कॉलेज संचालक को अवगत करवाया, जिस पर तत्काल कार्यवाही की गयी और अब उस कॉलेज में एक भी ब्राह्मण या बनिया लेक्चरर नहीं है। जिसका परिणाम ये है कि अगले वर्ष के परीक्षा परिणाम में कक्षा के प्रथम 15 छात्रों में एक भी ब्राहण-बनिया छात्र नहीं है।

    8. यही बात आजादी के बाद से लगातार देश की प्रशासनिक सेवाओं के साक्षात्कार में भी दौहराई जाती रही है। यदि भारतीय प्रशासनिक सेवाओं और राज्य प्रशासनिक सेवाओं के साक्षात्कार एवं लिखित परीक्षा के अंकों का विवरण प्राप्त करके उनका निष्पक्ष तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया जाये तो इस देश के सामाजिक सौहार्द में आग लग सकती है। लेकिन अब अधिक समय तक यह सब चलने वाला नहीं है। सच्चाई को सामने लाने के लिये अनेक निष्पक्ष प्रबुद्धजन सेवारत हैं और ब्राह्मणवाद का असली चेहरा सामने आने से बच नहीं सकता।

    9. अंत में एक बात और भी कि मैं निजी तौर पर आरक्षण के पक्ष में नहीं हूँ, लेकिन मोहनदास करमचंद गांधी के षड़यंत्र के दुष्परिणामों को हम सब भोगने को विवश हैं!

    10. आरक्षण मोहनदास करमचंद गांधी ने थोपा था और दोहरे प्रतिनिधित्व का हक छीन लिया! यदि ऐसा नहीं हुआ होता तो आज देश की राजनैतिक और सामाजिक दशा अलग ही होती!

    शुभकामनाओं सहित-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

  2. पैर टूटने पर कुछ दिन के लिए लगायी जाने वाली बैसाखी की तरह ही आरक्षण को भी देखा जाना चाहिए,जो स्थायी उपचार नहीं है.यदि कोई वर्ग कमजोर है तो उसे सक्षम बनाने के स्थान पर स्थायी बैसाखी लगा देना उचित नहीं मन जा सकता .इतने वर्षों के बाद इस विषय पर वर्तमान स्थिति के अनुसार विचार होना चाहिए.

  3. विचारणीय लेख के लिए बीनू भटनागर जी को
    बधाई . भारत में आरक्षण के बारे में सर्वेक्षण होना
    चाहिए की वह अब तक कितना सफल रहा है ?

  4. बीनू जी कमाल करती हैं आप? आप तो सीधे सीधे हमारे समाज के अति विशिष्ट वर्ग यानि नेताओं की रोजी रोटी छिनने की बात कर रही हैं अगर आरक्षण की बिमारी आज से ५० वर्ष पहले खत्म हो गई होती तो देश में स्वाभिमानियों की प्रतिशतता जापान से कम नहीं होती! तथाकथित राष्ट्र्पिताओं और माताओं की अहितकारी नीतिओं का ही परिणाम है आज की ये वैमनस्यता और बिना कुछ कमाए भिखमंगो की तरह सरकार से कुछ पाने की उम्मीद रखने वाले तथाकथित आरक्षित वर्ग! ये अब एक राष्ट्रव्यापी समस्या बन चुकी है और तब तक खत्म नहीं होगी जब तक कोई राष्ट्रवादी दल इस इरादे के साथ सरकार बनाये की इस देश एक भी युवक बिना रोजगार के खाली न बैठे, स्वाभिमान को जगाए बिना ये असम्भव सा प्रतीत होता है!

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