शकुन्तला बहादुर
आ गया ऋतुराज बसन्त।
छा गया ऋतुराज बसन्त ।।
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हरित घेंघरी पीत चुनरिया ,
पहिन प्रकृति ने ली अँगड़ाई
नव- समृद्धि पा विनत हुए तरु,
झूम उठी देखो अमराई ।
आज सुखद सुरभित सा क्यों ये
मादक पवन बहा अति मन्द ।।
आ गया ….
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फूल उठी खेतों में सरसों
महक उठी क्यारी क्यारी ।
लाल ,गुलाबी, नीले,पीले
फूलों की छवि है न्यारी ।
आज सजे फिर नये साज
वसुधा पर बिखर गये सतरंग ।।
आ गया …
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हुआ पराजित आज शिशिर है
विजयी हुआ आज ऋतुराज ।
विजय दुंदुभी बजा रहे हैं
गुन-गुन सा करते अलिराज ।
कष्ट शीत का दूर हो गया
मधु-ऋतु लाई सुख अनन्त।।
आ गया ….
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थिरक उठी है प्रकृति सुन्दरी ,
आज मिलन की वेला आई
कूक कूक कोकिल-कुल ने भी
सुखकर सुमधुर तान सुनाई।
सखि, बसन्त आए वर बनकर
साथ लिये अपने अनंग ।।
आ गया .
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आ गया ऋतुराज बसन्त ।
छा गया ऋतुराज बसन्त ।।
एक से बढ़ कर एक
शब्दों की ऊर्जा होती है, कविता की ऊर्जा।
और शब्द होता है ऊर्जस्वी पंखोवाला अश्व।
ऐसा अश्व जो धरापर मुक्त-बंध दौडता है, और जब सीमा पार हो जाता है; तो आकाश में, उडान भी भरता है।
पर तीनों आयामों से भी उसकी उडान प्रतिबंधित नहीं होती।
ऋतु के बंधन से मुक्त ऐसी यह कविता इस ऊर्जा का प्रमाण है।
सुन्दर कविता पर कवयित्री को बहुत बहुत बधाई।
कविता में समाई वसन्त की सुषमा चतुर्दिक ऐसी छाई कि हिमपात की सिहरन में भी अनुभूति-प्रवण मन को मधुऋतु के सुख-सौरभ का आनन्द मिल सका – बधाई !
Shakuntalaji ki agaadh gyan ka koi bhi seema nahi chaahe woh sanskrit bhasha ka ho, itihas ka ho, rajneeti ka ho ya purani filmon ka gaanon ka ho — sab mein ati nipun hai.