सफाई कर्मियों को भी चाहिए मौत के खतरों से आजादी

ओ पी सोनिक

 स्वच्छ भारत अभियान के एक पखवाड़े में देश की राजधानी दिल्ली में कूड़े से आजादी का अभियान चलाया जा रहा है। पिछले दिनों भी दिल्ली के विज्ञान भवन में स्वच्छता सर्वेक्षण 2024-25 पुरस्कारों का जश्न मनाया गया। यह लोगों में स्वच्छता के प्रति बढ़ती जागरूकता का ही परिणाम है कि स्वच्छता में उल्लेखनीय कार्य करने वाले विभिन्न शहरों को पुरस्कृत किया गया पर शहरों को साफ रखने में जुटे सफाई कर्मचारियों की सुरक्षा को सुनिश्चित करने में उदासीनता क्यों नजर आती है। दिल्ली में पिछले महीने  सीवर एवं सेप्टिक टैंक की सफाई करते हुए चार लोगों की मौत हो गयी।

राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के आंकड़ों के अनुसार दिल्ली में 120 से अधिक सीवर कर्मियों की मौतें हो चुकी हैं जो देश के विभिन्न शहरों की अपेक्षा सबसे ज्यादा हैं, यानी कि देश की राजधानी दिल्ली सीवर कर्मियों की मौतों के मामले में डैथ केपिटल बनती नजर आ रही है। दिल्ली उन टाप 10 राज्यों में भी शामिल है, जहाँ सबसे ज्यादा मौतें हुई हैं। देश के विभिन्न शहरों में हर साल दर्जनों सफाईकर्मी सीवर एवं सेप्टिक टैंकों की सफाई के दौरान अपनी जान गंवा देते हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में एक हजार 3 सौ से अधिक सीवर कर्मियों की मौतें हो चुकी हैं।
उक्त मामलों में से एक हजार 160 मृतकों के परिवारों को ही मुआवजा मिल पाया और करीब 50 मामले मृतकों के वारिसों की अनुपलब्धता के कारण बंद कर दिए गए। गुजरात में सबसे ज्यादा मामले बंद किए गए। वर्ष 2014 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने सीवर कर्मियों की मौत होने पर 10 लाख का मुआवजा अनिवार्य रूप से देने का फैसला सुनाया था। फिर भी सभी मृतकों के परिवारजनों को मुआवजा नहीं मिल पाता है। सीवर कर्मियों की मौतों के मामलों में तमिलनाडू, गुजरात, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, कर्नाटक, महाराष्ट्र राजस्थान, पंजाब और पश्चिम बंगाल टाप 10 राज्यों में क्रमशः शामिल हैं। टाप 10 शहरों की बात करें तो, अन्य शहरों चैन्नई में 95, अहमदाबाद 76, बैंगलोर 51, कांचीपुरम 35, सूरत 33, त्रिवैल्लूर 32, गाजियाबाद 26, फरीदाबाद 25, और नोएडा में 21 मौतें हो चुकी हैं। राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के आंकड़ों का मीडिया में प्रकाशित एवं प्रसारित मामलों से मिलान करने पर पता चला कि विभिन्न राज्यों में आंकड़ों की तस्वीर को संवारने के प्रयासों में अनेकों मामले दर्ज नहीं हो पाते। कुछ मामलों को अन्य अपराधों की श्रेणी में दर्ज कर सीवर में हुई मौतों की गंभीरता को हल्का कर दिया जाता है।
अगर सीवर कर्मियों की मौतों के मामलों को सही से दर्ज किया जाए तो आंकड़ों की तस्वीर और भी अधिक भयावह होगी। माननीय सर्वोच्च न्यायालय उक्त मौतों के मामलों में समय-समय पर कड़े फैसले लेता रहा है। केन्द्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय और केन्द्रीय आवास एवं शहरी विकास मंत्रालय भी सफाई कर्मियों की सुरक्षा के लिए दिशा-निर्देश जारी करते रहे हैं। दिशा-निर्देशों में सीवर की सफाई के लिए 40 से अधिक सुरक्षा उपकरणों की सूची जारी की गयी है। बावजूद इसके सफाई कर्मियों को बगैर सुरक्षा उपकरणों के सीवर में उतार दिया जाता है जिससे सीवर की जहरीली गैसों के कारण सफाई कर्मियों की मौत हो जाती है।

भारत में 2013 में मैनुअल स्कैवेंजिग को यानी हाथ से मैला ढ़ोने और बगैर सुरक्षा उपकरणों के सीवर की सफाई करने को पूर्णतः प्रतिबंधित किया गया है। आजाद भारत के सभी नागरिकों को अपनी पसंद का व्यवसाय चुनने की आजादी है पर भारत में सफाई कर्मियों का आंकड़ाई समाजशास्त्र पेशेगत आजादी के पैरों की बेड़ियां साबित हो रहा है। मसलन भारत में जो सफाई कर्मी सीवर में सफाई के लिए उतरते हैं, उनमें से करीब 90 फीसदी दलित वर्ग से आते हैं।
केन्द्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार नमस्ते योजना जुड़े करीब 70 फीसदी सफाई कर्मचारी अकेले दलित समुदाय से हैं। सरकारी नौकरियों में दलितों को 15 फीसदी आरक्षण का संवैधानिक प्रावधान है जिसे कभी पूरा नहीं किया गया। ऐसे में उक्त कर्मचारियों में 70 फीसदी की भागीदारी अधिक चौंकाने वाली है। सफाई कर्मचारियों के प्रति सिस्टम की उदासीनता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आए दिन सीवर में हुई मौतें भी हमारे सिस्टम की सोई हुई संवेदनाओं को जगा नहीं पातीं। भारतीय मीडिया संबंधित खबरों को प्रकाशित-प्रसारित करके अपने हिस्से की जिम्मेदारी जरूर निभाता है पर जिस व्यवस्था के हाथों में सफाई कर्मियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी है, वो सीवर कर्मियों की मौतों पर हर बार हाथ मलते रह जाती है और फिर मौतों का मंजर बदस्तूर जारी रहता है।

  आगामी 15 अगस्त को पूरा देश आजादी का जश्न मनाने जा रहा है। सफाई कर्मियों खासतौर पर सीवर कर्मियों को भी आजादी की अनुभूति का पूरा हक है। विचार करना होगा कि पेशेगत जोखिमों से जूझ रहे सफाई कर्मियों को उक्त अनुभूति का कितना हक मिल पा रहा है। सदियों से जातिगत व्यवस्था ने इन्हें गंदगी भरे कार्यां से जोड़ कर अछूत करार दिया है। भले ही भारत ने संवैधानिक रूप से लोकतंत्र और समानता को स्वीकार कर लिया है पर समाज में दलित समुदाय की सामाजिक समानता की स्वीकार्यता आजादी के 78 वर्षों में भी सामाजिक विषमताओं की गिरफ्त में है। सवाल केवल सही नीतियों का नहीं बल्कि नेक नीयत का भी है। जब राष्ट्रीय स्तर पर स्वच्छता अभियान यानी कि कूड़े से आजादी के अभियान चलाए जा सकते हैं जो कि जरूरी हैं तो सफाई कर्मियों खासतौर पर सीवर कर्मियों को मौत के खतरों से आजादी दिलाने के अभियान क्यों नहीं चलाए जा सकते।

ओ पी सोनिक

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