कल के सच की परछाइयां
आज के झूठ को जब
सच मानने से इन्कार करतीं हैं
तो बीते कल की अनुभूतियां
जीवंत हो उठती हैं
जीवन सत्य को जो रचती रहीं –
मैं नहीं जानता
आज के जीवन सत्य
कितनी गहराइयों में पैठ कर
घोषित किए गए हैं
और यह भी
कि क्या वे सत्य ही हैं !
क्योंकि –
गिर रहे हैं घरौंदे
इससे पहले कि वे घर बनें
टूट रहे हैं सपने
इससे पहले कि वे सच बनें
सींचे गए पौधे की कोंपलें
फूटी भी नहीं होतीं
कि मसल दी जाती हैं जड़ों तक
कौन पूछेगा सर उठा कर
सच और झूठ में अब फर्क क्या है?
उस माली का दोष क्या है?
पौधे की परछाईं बन जिसने
उसके आस पास उगे
झाड़ झंखाड़ को काट
मिट्टी पानी से सींच
सर्दी गर्मी में सहेज संभाल
पल पल उसकी रक्षा की –
माली के उसकी परछाईं बन कर
जीने का उसका जीवन सत्य
उजागर नहीं होता तब तक
जब तक वही पौधा
एक से अनेक
फूल बन कर खिलने नहीं लगता –
ये कल के सच की परछाइयां हैं
जो झूठ को सच मानने से
इंकार करतीं रहीं निरंतर
तब जीवंत हो उठती हैं.