सचिन त्रिपाठी
प्रेम संबंधों की परिभाषाएं समय के साथ बदलती रही हैं। पहले ‘प्रेम’ एक स्थायी, सामाजिक और पारिवारिक स्वीकृति वाला संबंध था। फिर प्रेम विवाह, लिव-इन रिलेशनशिप और अब ‘सिचुएशनशिप’ जैसे नए रूप सामने आए हैं। सिचुएशनशिप कोई पारंपरिक प्रेम संबंध नहीं है, न ही यह पूर्णतः मित्रता है। यह उन दो लोगों के बीच का अनिश्चित-सा, पर भावनात्मक रूप से गहरा जुड़ा हुआ रिश्ता है जिसमें स्पष्टता की बजाय धुंध, स्थायित्व की जगह अस्थाई होना और भरोसे की जगह संभावनाएं होती हैं लेकिन क्या सिचुएशनशिप सिर्फ भ्रम है? या यह आज की पीढ़ी का आत्म-स्वतंत्र और यथार्थवादी प्रेम है? इस प्रश्न का उत्तर तलाशने के लिए हमें इसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं को गहराई से समझना होगा।
आज के युवा स्वतंत्रता को सर्वोपरि मानते हैं चाहे वह करियर हो, स्थान चयन हो या रिश्ते। सिचुएशनशिप इस आज़ादी को जगह देता है। इसमें दोनों व्यक्ति एक-दूसरे की कंपनी पसंद करते हैं, लेकिन अपने जीवन के निर्णय स्वतंत्र रूप से लेते हैं। कोई सामाजिक दबाव नहीं, न ही विवाह का अनावश्यक तनाव। यह रिश्ता उन्हें भावनात्मक संबल देता है जो अभी जीवन में स्थायित्व के लिए तैयार नहीं हैं। युवा जो पढ़ाई, करियर या निजी हीलिंग के दौर से गुजर रहे हैं, वे किसी गंभीर संबंध में बंधे बिना भी साथी के साथ जुड़ सकते हैं। अक्सर सिचुएशनशिप में दोनों पक्ष शुरू से स्पष्ट होते हैं कि वे अभी किसी परिभाषित रिश्ते में नहीं हैं। यह पारदर्शिता कई बार उस झूठ और छल से बेहतर होती है जो परंपरागत प्रेम संबंधों में दिखावे के रूप में होता है। आज की पीढ़ी अपने करियर और आत्म-विकास को पहले स्थान पर रखती है। विवाह या रिश्तों की स्थायित्वपूर्ण जिम्मेदारियों को टालते हुए भी वे एक भावनात्मक सहारा चाहते हैं। सिचुएशनशिप इस जरूरत को पूरा करता है।
सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इसमें न कोई वचन होता है, न कोई भविष्य की रूपरेखा। कई बार एक व्यक्ति अधिक जुड़ जाता है जबकि दूसरा असमंजस में रहता है। इससे भावनात्मक असुरक्षा, ईर्ष्या और दुख जन्म लेते हैं। सिचुएशनशिप में वर्षों निकल जाते हैं, और जब अंत में कोई एक व्यक्ति दूर चला जाए तो दूसरे के लिए यह गहरे आघात का कारण बनता है। कई युवाओं के लिए यह एक ‘इमोशनल इंवेस्टमेंट’ होता है जिसकी कोई निश्चित परिणति नहीं होती। भले ही शहरी युवा वर्ग इसे स्वीकार कर चुका हो, लेकिन सामाजिक ढांचे में यह अब भी अजीब या ‘अधूरा’ माना जाता है। परिवार, समाज और रिश्तेदारों के सवालों का उत्तर नहीं होता: ‘क्या चल रहा है?’ ‘क्या रिश्ता है?’ “कब शादी करोगे?’ बहुत से लोग सिचुएशनशिप की आड़ में किसी को ‘टाइम पास’ समझने लगते हैं। वे यह रिश्ता तब तक बनाए रखते हैं जब तक कोई बेहतर विकल्प न मिल जाए। इसमें भावनात्मक धोखा मिलने की संभावना बहुत अधिक रहती है।
भारत में मेट्रो शहरों, विश्वविद्यालय परिसरों और मल्टीनेशनल कंपनियों के युवाओं में यह रिश्ता तेजी से बढ़ रहा है। टिंडर, बम्बल जैसे डेटिंग ऐप्स पर कई युवा अब ‘सिचुएशनशिप’ को रिश्ता मानते हैं। 2024 के एक ऑनलाइन सर्वे के अनुसार, 18 से 30 वर्ष की आयु के 42% युवाओं ने स्वीकार किया कि वे ‘डेट कर रहे हैं पर कमिटेड नहीं हैं’। इसका अर्थ स्पष्ट है; रिश्तों की दिशा बदल रही है। हाल ही में एक सोशल मीडिया घटना वायरल हुई जहां एक युवती ने ‘ब्रेकअप नहीं हुआ पर अब हम स्ट्रेंजर हैं’ जैसी पोस्ट लिखी। इसने हज़ारों युवाओं के दिल की आवाज़ को शब्द दे दिए।
क्या यह संबंध भविष्य है? इसका उत्तर ‘हां’ और ‘ना’ दोनों हो सकता है। हां, क्योंकि यह उन युवाओं के लिए एक विकल्प है जो फिलहाल स्थायित्व नहीं चाहते, पर अकेलेपन से जूझ रहे हैं। ना, क्योंकि यह संबंध देर-सवेर किसी एक को पीड़ा जरूर देता है, क्योंकि इंसान का मन किसी न किसी बिंदु पर स्पष्टता और सुरक्षा चाहता है। सिचुएशनशिप न तो पूर्णतः अनुचित है, न ही पूर्णतः आदर्श। यह उस दौर की उपज है जिसमें हम प्रेम को परिभाषाओं की कैद से बाहर निकालकर उसके अनुभव की ओर ले जा रहे हैं। पर यह भी सच है कि प्रेम की सबसे मौलिक आवश्यकता ‘स्पष्टता’ है। जिसकी कमी इस रिश्ते को एक ‘चुभता हुआ धुंधलका’ बना देती है। इसलिए यह जरूरी है कि यदि आप सिचुएशनशिप में हैं या उसमें जाने की सोच रहे हैं, तो ईमानदारी, संवाद और सीमाओं की स्पष्टता को सर्वोपरि रखें वरना यह रिश्ता, जिसमें कोई ‘किन्तु-परन्तु’ नहीं होना चाहिए, खुद एक अंतहीन ‘किन्तु-परन्तु’ बन सकता है।
सचिन त्रिपाठी