डॉ. मधुसूदन
(एक) प्रवेश:
ॐ==>”आत्मज्ञान होनेपर साम्प्रदायिकता नहीं रहती; वा संकीर्णता नहीं रहती।”
ॐ==>”भारत ही वास्तव में आध्यात्मिकता का देश है; विश्वगुरू है।”
ॐ==>हमारे राजदूतों की अपेक्षा, आध्यात्मिक दूतों ने भारत का प्रभाव संसार भर में फैलाया है। उसीका लाभ भारत को होता है।
ॐ==>बिकाऊ स्वामी भी; विवेकानंद, अरविंद, योगानंद, रामकृष्ण, स्वामी भक्तिवेदांत, इत्यादि की अर्जित आध्यात्मिक पूंजी की छाया में, अपना बाजार चलाते हैं।
ॐ ==>”निहत्थे, निर्बल कली जैसे भ्रूण जीव पर अचानक आघात करने में कैसा शौर्य?”
ॐ==>”प्राकृतिक सौंदर्य के सामने मनुष्य निर्मित सौंदर्य कुछ भी नहीं”
ॐ==>”मर्यादित बुद्धि से परे भी जाया जा सकता है, और भारत ने इस क्षेत्र में उपलब्धियाँ प्राप्त की थीं।”
ॐ==>”भारत नें सर्वोच्च आध्यात्मिक उपलब्धियाँ पायी है। जो नम्रता, उदारता, शुद्धता और निश्चल ठहराव लायी हैं। जहाँ आत्मपरीक्षण, आध्यात्मिक चिंतन सर्वोपरि माना जाता है; वो भारत ही है।” —स्वामी विवेकानंद.
(१)
“स्वामीजी, इस शीत ऋतु में बर्फ पर चलकर जाने में आपको कठिनाई होगी।”
मैं आपको प्रवेश द्वार पर उतार देता हूँ। –मैं ने कहा।
—“नहीं नहीं, कोई कठिनाई नहीं।” –स्वामीजी बोले।
पाठकों, मैं स्वामी तिलक जी को मेरे विश्व विद्यालय के फिलॉसॉफी विभाग में व्याख्यान देने, ले जा रहा था। बाहर ठण्ड थी; कुछ बर्फ गिरी हुयी थी; और तापमान भी गिरा हुआ था।
मैं ने ऊनी कपडे, ऊपर लम्बा कोट भी पहना हुआ था; पर, स्वामीजी थे अर्ध-वस्त्र। कटि के नीचे गेरुए रंग की, वह भी सूती धोती, और कंधेपर एक शाल। पैरों में जूते भी नहीं, और बर्फ पर चलना।
मैं चिंतित था। कहीं स्वामीजी का स्वास्थ्य …….?
पर स्वामीजी, ऐसी ही ऋतु में, न्यु-जर्सी में, एक-डेढ कोस चलकर, डॉ. मेहता जी के घर पहुंचे थे। जानता था, “जर्सी-सिटी” के स्थानक (स्टेशन) से मेहता जी का घर प्रायः डेढ कोस पर था।पर स्वामी जी, ऐसी ही ऋतु में, बिना जूते, सूती धोती, और कंधे पर शाल; ऐसे अर्ध-वेष में मेहता जी के घर पहुंचे थे। इस लिए मैं कुछ आश्वस्त था।
(२)
उस दिन स्वामीजी फिलॉसॉफी क्लब मे बोले थे; विषय था, षड्दर्शन।
एक घन (क्यूब ) को छः दिशाओं से देखा जा सकता है।प्रत्येक दिशा से घन का पृष्ठ भाग, अलग रंग का हो सकता है। इस प्रकार देखने को ही दर्शन कहते हैं। ऐसे, सहज विवरण से प्रारंभ कर, स्वामी जी ने विषय को कुशलता से विकसित किया था। उनकी बोलने की शैली महत्वपूर्ण अंशो को अवरोह से अधोरेखित करते चलने की थी।
(३)
स्वामी जी, खडे भी ऐसे थे, जैसे विवेकानन्द!
श्रोता, एवं बहुतेरे फिलॉसॉफी के छात्र तथा प्राध्यापक मुग्ध हो कर सुन रहे थे। व्याख्यान डेढ पौने दो घण्टे चला होगा। मेरे पार्श्व में फिलॉसॉफी विभाग की अध्यक्षा बैठी थी। उन्हें घण्टे के पश्चात एक वर्ग पढाने जाना था; बडी व्यथा व्यक्त कर उठकर चली गयी। कहती गयी, कि, ऐसा अदभुत व्याख्यान छोडकर जाने का मन नहीं करता, पर कोई पर्याय नहीं। बहुत प्रभावी व्याख्यान रहा। क्लब की ओरसे स्वामी जी को, मानधन का धनादेश भी अर्पित किया गया। मैं अपने आप को भी, गौरवान्वित अनुभव कर रहा था; इस व्याख्यान का निमित्त कारण जो बना था। और स्वामी जी मेरे घर पर ही २-३ दिन ठहरे थे। दिवाली आने पर बालक भी तो हर्षित होते हैं।
(४)
ऐसे आध्यात्मिक महापुरूषों ने ही, भारत का गौरव बढाया हैं।
बाकी, बिकाऊ स्वामियों की भी चलती है। अरे! हम जैसों की वक्तृताएँ भी सम्मान से सुनी जाती है; ऊपर से मानधन भी मिलता है; तो किसी “योगी-स्वामी की माँग” तो समझी जा सकती है। पर ये सारे बिकाऊ स्वामी भी; विवेकानंद, अरविंद, योगानंद, रामकृष्ण, स्वामी भक्तिवेदांत, इत्यादि की अर्जित आध्यात्मिक पूंजी की छाया में, अपना बाजार चलाते हैं।
( ५)
पर ऐसे बाजार में भी, स्वामी तिलक जैसा संन्यासी,
अनेकों का विश्वास दृढ करा जाता है। विवेकानंद जी का समीचीन कथन पुनर्स्थापित कर जाता है, कि, “भारत ही वास्तव में आध्यात्मिकता का देश है; विश्वगुरू है।”
भारत माँ के भाग्य भालपर “तिलक” लगाने वाला “तिलक” ही था।
“The land where humanity has attained its highest towards gentleness, towards generosity, towards purity, towards calmness, above all the land of introspection and of spirituality,-it is India.” –SwamiVivekanand.
“भारत वह भूमि है, जहाँ मनुष्य नें सर्वोच्च (आध्यात्मिक) उपलब्धियाँ पायी है। जिसका झुकाव नम्रता की ओर, उदारता की ओर, शुद्धता की ओर, निश्चल ठहराव की ओरहै। ऐसी भूमि जहाँ सर्वाधिक (सर्वोपरि) आत्मपरीक्षण की ओर, चिंतन की ओर झुकाव और आध्यात्मिकता है; वह भारत ही है। —स्वामी विवेकानंद.
(६)
विवेकानंद जी कहते हैं, कि, जिस दिन भारत अपने अस्तित्व का यह कारण भूल जाएगा, नष्ट हो जाएगा।
यही भारत का परिचय है। यही उसकी विशेषता है। यही है, उसकी कस्तूरी नाभि। इसे त्यागकर भारत, भारत ही नहीं रहेगा।
स्वामीजी हर जगह निर्भीक होकर बोलते थे।न उन्हें आदर की अपेक्षा थी, न धनकी। न उन्हें कोई बंधन था। हवाई में, एक कॉन्फरन्स अक्टुबर ३१-१९७० को आयोजित की गयी थीं।
यह आयोजन पॅसिफिक ऍन्ड एशियन अफेयर्स काउन्सिल ने किया था।
वृद्धों की आत्महत्त्या और भ्रूण हत्त्या का विषय था। भिन्न भिन्न मतों के रखे जाने के पश्चात स्वामी जी की प्रस्तुति थीं। अनेक वक्ताओं अलग अलग मत रखे थे।
स्वामी जी ने कहा था::”किसी निहत्थे, निर्बल कली जैसे जीव पर अचानक आघात करने में कैसा शौर्य ?और कौन जीव अजन्मे शिशु से अधिक निहत्था, निर्बल और निस्सहाय है? “बडे बूढों की आत्महत्त्या अवैध (Illegal) पर भ्रूण हत्त्या को वैध(Legal) मानना किस न्याय के आधारपर ?
भ्रूण जैसा परस्वाधीन और बेचारा और कोई है?जो प्रतिकार भी नहीं कर सकता।
निःसहाय की हत्त्या, करने में कौन सा शौर्य? कैसी वीरता?कौन इस क्रूर कुकर्म पर तालियाँ बजा रहा है?
और कल जो धरती पर गिर पडेंगे, ऐसे बूढे, जो श्वेच्छासे आत्महत्त्या करना चाह रहें हैं, उस आत्महत्त्या को अवैध (illegal) मानना, और भ्रूण हत्त्या को वैध मानना कितना विरोधाभासी है।
(७)
वैसे भारत की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक पूंजी भी काफी है।
पश्चिम का शिक्षित विद्वान संस्कृत का महत्व जानता है। संगणक (कंप्युटर) की आंतरिक परिचालन की भाषा में पाणिनि के संस्कृत व्याकरण का अद्वितीय योगदान माना जाता है।काफी जानकार भारत की सर्व समन्वयी आध्यात्मिकता जानते हैं। इसी समन्वयिता के कारण, उसे सब से विशेष माना जाता है। विद्वानों को जानकारी है, कि, हिंदू धर्म की आध्यात्मिक समन्वयिता, इसाइयत में नहीं है। हिंदु धर्म में इसाइयत एक पंथ के रूप में समायी जा सकती है।पर इसाइयत में हिंदू को समाने की क्षमता नहीं है।
तनाव घटाने में, ध्यानयोग का मह्त्व भी बहुत सारे, मनोवैज्ञानिक स्वीकार करते हैं।हठ-योग भी सर्वाधिक प्रसिद्धि पाया है।पतंजलि को पढकर जाननेवाले हैं। आयुर्वेद प्रभावी प्रमाणित हो रहा है। पश्चिम की फिर भी सीमाएँ हैं। स्थूल रूप से, पश्चिम फिलॉसॉफी को बुद्धि या तर्क से मर्यादित कर देता है।और भौतिक फल चाहता है।
स्थूलतः अपने बुद्धिजन्य अण्डे से बाहर निकल कर नहीं देख सकता। ।कुछ विरले पश्चिमी विद्वान यह समझने लगे हैं। उन्हें समझमें आ रहा है; कि मर्यादित बुद्धि से परे भी जाया जा सकता है, और भारत ने इस क्षेत्र में उपलब्धियाँ प्राप्त की थीं।
(८)
उन्हों ने कहा था, “आत्मज्ञान होनेपर साम्प्रदायिकता वा संकीर्णता नहीं रहती।”
— विविधता रहेगी, हमें विविधता के साथ ही रहना होगा। विविधता का अंत हुआ तो इस संसार में, नीरसता होगी।
—-“संसार में स्थूल रूपसे प्रमुखतः ३ प्रकार के लोग होते हैं। कुछ लोग भाववाले होते हैं, कुछ लोग कर्म करने में विश्वास करते हैं, कुछ बुद्धि वाले लोग बाल की भी खाल निकाल देते हैं।
इसी लिए भगवान ने, भगवत गीता में, भक्तियोग, कर्मयोग और ज्ञान योग बताए हैं।तीनों में से कोई भी एक भी पर्याप्त है।या तीनोंका मिश्रण भी चल सकता है। शिखर पर पहुंचने के पश्चात कोई अंतर नहीं होता।
कुछ लोग राजयोगी भी होते हैं।
(९)
मुक्ति के मार्ग पर भी बंधन?
और स्वामी जी से सुना हुआ स्मरण है।
“आध्यात्मिक संस्थाएँ खडी कर के फिर उन संस्थाओं की देख रेख में भी संन्यासी बँध जाता है।”
ऐसी चिंताएँ, आजीविका की चिंताओं से भिन्न नहीं होती। और फिर उन्हीं संस्थाओं के ढाँचे के रक्षण संगोपन में सन्यासी बँध जाता है। मुक्ति के मार्ग पर भी बंधन? एक बंधन से मुक्त होकर दूसरे बंधन में पड जाते हैं।
इस कारण स्वामी जी संस्था को खोल उससे बँधना नहीं चाहते थे।
लेखक: जब कोई लेखक लिखता है; कुछ उसकी स्मृति और सीमाओं का प्रभाव लेखन पर, अवश्य होता है।पर, प्रामाणिकता से स्वामी तिलक जी का स्मरण और कुछ घटनाएँ जो “Enlightened Path” नामक चरित्र जो श्री. नरेन नागिन जी ने लिखा है, उसका आधार लेकर लिखा है।
Kuchh Vyastata chal rahi thi.
Madhusudan
thankful to you for introducing such a DIVINE PERSON,Which is a need for the nation,
डा. साहेब स्वामी जी के अद्भुत व्यक्तित्व की झलक दिखाने के लिये आभार. ऐसे लेख हमारे आत्म विश्वास को जगाने व बढाने का काम करते हैं. पुनः आभार.