
तल रहे कितने अतल सृष्टि में,
कहाँ आ पाते सकल द्रष्टि में;
मार्ग सब निकट रहे पट घट में,
पहरे ताले थे रहे भ्रकुटि में !
खोले जो चक्र रहे जाना किए,
राह हर सहज सूक्ष्म ताड़ा किए;
देर जाने में कभी ना वे किए,
ज़रूरी जहाँ हुआ पहुँचा किए !
जीव बंधन में रहे सीमा बँधे,
सूत्र ना जाना किए प्रकृति रुँधे;
व्यथा वे कितनी सहे बुद्धि विंधे,
प्रयास कितने किए तब थे सधे !
युक्त जब योग हुए भक्ति लभे,
तंत्र सृष्टा का प्रचुर समझा किए;
सिद्धि औ ऋद्धि सुलभ पाया किए,
सेवा भूमा की लगे तब भाए !
योग्य ही भेद जान सब पाते,
ज़रूरत होती उनकी तब जाते;
दिखा अधिकार पत्र घुस पाते,
स्वतंत्र होते ‘मधु’ मिल प्रभु में !