भारतीय ”बॉन्साई पौधे”

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डॉ. मधुसूदन उवाच

(१) किसी वृक्ष का, विकास रोकने का, सरल उपाय, क्या है? माना जाता है, कि वह उपाय है, उस के मूल काटकर उसे एक छोटी कुंडी (गमले) में लगा देना। जडे जितनी छोटी होंगी, वृक्ष उतना ही नाटा होगा, ठिंगना होगा। जापानी बॉन्साइ पौधे ऐसे ही उगाए जाते हैं। कटी हुयी, छोटी जडें, छोटे छोटे पौधे पैदा कर देती है। वे पौधे कभी ऊंचे नहीं होते, जीवनभर पौधे नाटे ही रहते हैं। पौधों को पता तक नहीं होता, कि उनकी वास्तव में नियति क्या थी?

(२ ) कहते हैं कि धूर्त ठग भी, ऐसे ही ठगता है, आप ठगे जाते हैं, ऐसे कि, आपको मरते दम तक, (और मरने के बाद तो पता कैसे चलें?) कभी ”ठगे गए थे ” ऐसी अनुभूति क्या, शंका तक, नहीं होती। किंतु जब , ठगोंके प्रति, अनेक देश बांधवों को, जब ”अहोभाव” से भी अभिभूत पाता हूं, तो लगता है, कि, ठग बहुत ही चालाक था। सैद्धांतिक रीतिसे, हर विपत्तिसे कुछ लाभ अवश्य होता ही है, यह लाभ कालानुक्रम से हर कोई राष्ट्रको होता है, और इस लाभ को उपलब्ध कराने में इस परतंत्रता का भी कुछ योगदान मानता हूं।

पर ऐसा लाभ तो जैसे जैसे विज्ञान विश्वमें आगे बढते गया, हर एक देश को, प्राप्त होता गया। वैसे विज्ञान को आगे बढाने में भी हिंदु अंक गणित का योगदान माना गया है।==”जिस के बिना कोई भी वैज्ञानिक आविष्कार संभव ही न था,”== ऐसा मत, ट्रॉय स्थित, रेनसेलर इन्स्टिट्यूट के स्ट्रक्चरल इंजिनीयरिंग के प्रोफ़ेसर किन्नी (जो भारतीय नहीं है) मानते हैं। { विषय, किसी दूसरे लेख में विस्तार से लिखूंगा}

पर वैसे, अंग्रेज़ बहुत चालाक और धूर्त था, उसने हमारी मानसिक जडें काटी। और हम, अपनी गौरवशाली परंपराएं भूलकर, झूठे इतिहासकी पट्टी पढ पढ कर, तोताराम बन गये।

(३) कुछ संदर्भों के आधारपर अब प्रकाशमें आ रहा है, कि, अप्रैल-१०-१८६६ के दिन रॉयल एशियाटिक सोसायटी की गुप्त बैठक (मिटींग) उनके लंदन स्थित कार्यालय में हुयी थी। इसके कुछ प्रमाण भी उपलब्ध हुए हैं। { धीरे धीरे और भी कुछ उपलब्ध होता रहेगा } इस मिटींग में भारत की बुद्धि भ्रमित करने के लिए षड्यंत्र रचे गए थे। उसका एक भाग आर्यन इन्वेजन थियरी ( भारत में सारे भारतीय बाहरसे घुसे हुए हैं।)था। जिस के परिणाम स्वरूप कोई भारतीय {जो स्वतः बाहरसे आया होने से} यह ना कह सके, कि अंग्रेज़ परदेशी है, पराया है।

एक ”एडवर्ड थॉमस” नामक धूर्त पादरी ने थियरी के घटक-अंग प्रस्तुत किए, और कोई -”लॉर्ड स्ट्रेंगफोर्ड” अध्यक्षता भी कर रहा था। भारतको ब्रेन वाश करने का षडयंत्र भी उसीका भाग था। वैसे संसार भरमें अतुल्य संस्कृति की धरोहर वाले भारत को, गुलामी में दीर्घ काल तक बांधे रखना, कितना कठिन है, यह बात, अंग्रेज़ को १८५७ के स्वतंत्रता के युद्ध के कडवे अनुभव के परिणामों से पता चली थी। मैं मानत ा हूं, कि, इस लिए यह ”ब्रेन वॉशिंग” का षड्यंत्र आवश्यक था।

(४) दुर्भाग्यसे, स्वतंत्र होकर ६३ वर्ष बीत चुके, पर अब भी हमारा सामान्य नागरिक, उस अतीत की परतंत्रता से प्रभावित, मानसिक दासता, गुलामी, और उस से जनित हीनता (Inferiority Complex) ग्रंथि से पीडित हैं। पहले अंग्रेज़ राज करते थे, अब अंग्रेज़ी राज करती है, अंग्रेज़ियत राज करती है। गोरे अंग्रेज़ राज करते थे, अब काले अंग्रेज़ राज करते हैं। गुलामी की मानसिकता से पीडित समाज, ”लघुता ग्रंथि” को ही ऐसे संभाले रहा है, जैसे वही सबसे बडी मूल्यवान वस्तु हो।

(५) आत्म विश्वास का खोना, पुरूषार्थ बिना का जीवन, पराक्रम में विश्वास खोना, इत्यादि उसीके लक्षण है। साथमें बिना काम किए, बिना योगदान दिए, भ्रष्टाचार द्वारा एक रातमें धनी हो जानेकी इच्छा रखना भी उसीका परिणाम है। यह तो कपट पूर्ण व्यापार है।

(६) स्वतंत्रता को अंग्रेज़ीमे Independence कहते हैं। जो दूसरोंपर Dependent {निर्भर) नहीं है, वही Independent {स्वतंत्र} है। हमें तो हर इज़्म; {कम्युनिज़्म, सोशियलिज़्म, मायनोरिटिज़्म,—-इत्यादि} शासन पर ही (Dependent), निर्भर बना कर पंगु बना देते हैं।

पर हम यह नहीं सोचते, कि, Dependent फिर Independent कैसे हुआ?

(७) अपने लोगों के प्रति, द्वेष-या मत्सर की अभिव्यक्ति, अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूपसे उसी का निदर्शक है। एक घटना, हमारे गुलामी की प्रस्तुत है।

मेरे एक रसायन शास्त्र के प्रोफेसर (जो मिलीयन डॉलरों की ग्राण्ट वॉशिंग्टन से पाते हैं।) मित्रनें, सुनाया हुआ घटा हुआ, अनुभव है।

एक लब्ध प्रतिष्ठ भारतीय शोध कर्ता भारत, वहां युनिवर्सीटियों में, एक प्रयोग (Demonstration) दिखाने के लिए अपने सहायक गोरे, टेक्निशीयन के साथ जाता है।दिल्ली, हवाई अड्डे पर स्वागत के लिए, कुछ कर्मचारी हार और फूलोंका गुच्छ लेकर भेजे जाते हैं। किंतु, जब वे देखते हैं, कि, एक गोरा भी आया है, तो उसे ही प्रोफेसर मान हार उसे ही पहना देते हैं, और सच्चे प्रोफेसर को गुच्छ अर्पण किया जाता है। गोरा मना करने पर, वे उसकी शालीनता मान लेते हैं, शायद उसके उच्चारण भी समझ नहीं पाते।

(८) परायों के अंध-अनुकरण (लाभहीन अनुकरण) से पीडित समाज तीन प्रकारकी मानसिकता धारण करता है।

(क) वह अपना आत्म विश्वास खो देता है, और कोई दूसरा ही हमारा उद्धार करेगा, ऐसी धारणा बना लेता है।

(ख) कोई अवतार हमारी सारी समस्याएं सुलझा जायगा, यह धारणा बना लेता है।

(ग) निष्क्रीय हो कर, शासन ही सब कुछ कर देगा ऐसा विश्वास भी उसी की देन हैं।

(९) निम्न –॥प्रश्न मालिका॥ –मानसिकता या वैचारिकता से अधिक, संबंध रखते हैं।

लाभकारी सुविधा ओं से नहीं, पर लाभहीन अनुकरण से अधिक जुडे हुए हैं।

लाभ कारी विचारों के विषयमें तो हमारे पुरखें बहुत उदार थे।

ज्ञान प्राप्त कहींसे भी करने के लिए हमारे पूरखोंने तो सूक्तियां भी रची थी। ऋग्वेद (१-८९-१) -में कहा था, ”आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः॥” -अर्थात : उदात्त विचार हर दिशासे हमारी ओर आने दीजिए। पर, हमारा मस्तिष्क हमने ऐसा खुला रखा कि, उस खुले मस्तिष्क में , लोगोंने कूडा, कचरा ही फेंक दिया। आज उस कूडे ने ही हमें गुलाम रखा हुआ है।

निम्न प्रश्न आप की मानसिकता से अधिक जुडे हुए हैं। कुछ अध्ययन और अनुभव के आधार पर चुने गए हैं।

ध्यान रहे: कि, दो चार प्रश्नों के उत्तरोंपर निष्कर्ष नहीं निकल पाएगा। हज़ारों वर्षों की गुलामी के कारण कुछ गुलामी का प्रभाव हर कोई पर हुआ है। मैं भी इसका अपवाद नहीं हूं, पर अच्छे संग के कारण टिक पाया हूं।

समग्र रूपसे यह देखा जाए। लेखक की दृष्टिसे सही उत्तर हर प्रश्नके अंतमें कंस में दिया गया है।

== जन तंत्र में जनता, पढी लिखी, जागृत, चौकन्नी, जानकार, और स्वावलंबी (स्वतंत्र= अपने तंत्र से चलने वाली )होती है।

प्रामणिकता से उत्तर देने पर आप को उन्नति की दिशा का निर्देश देने के सिवा, और कोई उद्देश्य नहीं। सही उत्तर कंस में दिए हैं।

(१) क्या आपको अपनी संस्कृति/देश के प्रति (सक्रिय, कुछ करते रहते हैं, ऐसा) गौरव अनुभव होता है?—>[ हां ]

(२) या, आपको मालिक (अंग्रेज) की रीति, शैली, के प्रति गौरव है?—–>[ ना ]

(३)क्या आपके मित्र आपको देश के प्रति निष्ठावान मानते हैं?—->[ हां ]

(४) क्या आप काले/सांवले रंग को हीन मानते हैं?-> [ ना ]

(५) क्या आप गोरी चमडी से ही( यह ’ही’ महत्वका है) सुंदरता की कल्पना कर सकते हैं? —->[ ना ]

(६) क्या आप अपनी भाषा (हिंदी या प्रादेशिक) में व्यवहार करने में हीनता का अनुभव करते हैं?—>[ ना ]

(७) क्या आप आपकी अपनी प्रादेशिक भाषा में और/या (हिंदी) में गलती होनेपर शर्म अनुभव करते हैं?—> [हां ]

(८) अंग्रेजीमें गलती करनेपर गहरी शर्म अनुभव होती है?(ना) {”गहरी” महत्वका है} —->[ ना ]

(९)क्या, आपको अपने धर्म/संस्कृति के विषय में जानकारी है, ऐसा आपके मित्र मानते हैं।—> [ हां ]

(१०) और उस विषयमें आप कुछ अध्ययन करते रहते हैं? —>[ हां ]

(११) आपसे अगर आपका देशबंधु या मित्र, आगे निकल जाए, तो आपका मत्सर, जागृत होता है?—>[ ना ]

(१२) आप अपनी (गुजराती, तमिल, हिंदी, उर्दू, संस्कृत….. इत्यादि) भाषाकी पुस्तकें पढते रहते हैं ? —>[ हां ]

(१४) आप उसे जानने में गौरव लेते हैं?—-> [ हां ]

(१५) कोई आपसे प्रश्न हिंदी (या आपकी ) भाषामें पूछे, तो आप उत्तर अंग्रेज़ीमें देते हैं ? —-> [ ना ]

(१६) आप सोश्यलिज़म, कम्युनिज़म, ह्युमनीज़म, फलाना-इज़म, — इत्यादि अंगेज़ी शब्दोंके प्रयोग करते हैं, {ना}

(१७) समाजवाद, साम्यवाद ऐसे शब्द प्रयोग करते है ? [ हां]

(१८) आप प्रमुख्तः हमेशा –बोम्बे, — डेली,– बनारस,– इंडिया, इत्यादि अंग्रेज़ प्रायोजित शब्दों का प्रयोग करते हैं? —[ ना ]

(१९) आपको मौसा, मामा, चाचा कहने/कहानेमें लाज आती है, पर अंकल ही अच्छा लगता है?[ ना ]

(२०) महिलाओंके लिए, मौसी, मामी, चाची इत्यादि के बदले आंटी सुनने में आदर प्रतीत होता है?—->[ ना ]

(२१) क्या आपको गीता, रामायण, या कुरान, धम्मपद, इत्यादि की कुछ जानकारी है, –>[हां]

(२२) उनका मनन या पठन इत्यादि होते रहता है? कुछ मालूम भी है?—–>[हां ]

सूचना: इसे जानकर आप अपनी मानसिकता बदल सकते हैं। किसीका अवमान करने का उद्देश्य नहीं है।

14 COMMENTS

  1. आपने लिखा : “हीन ग्रन्थि से पीडित व्यक्ति सर्वदा जिसके प्रति उसे आदर होता है, जिसे वह ऊंचा मानता है, उसीका अंधानुकरण करता है। जब तक इस हीन ग्रन्थिपर ही प्रहार कर, उसे समूल उखाड़ कर फेंका नहीं जाता, तब तक भारत स्वतन्त्र नहीं हो पाएगा।” —– यह अकाट्य सत्य है। हीन ग्रन्थियों के अनेक कारन हैं, उनमें‌जो भाषा तथा संस्कृति के कारन होती‌हैं वे सर्वाधिक हानिकारक तथा निर्मूल करने के लिये कथिन होतीहैं।

    भोजन में चटनी का जो प्रमाण है, उस प्रमाण में भारत को परदेशी अर्थात सभी परदेशी -रूसी, जपानी, चीनी, और अंग्रेज़ी इत्यादि सभी उन्नत भाषाएं, आवश्यक है। विदेशी भाषएं सीकिहना अच्छी‌बात है , किन्तु यह उऩ्हीं कोसीखना चाहिये जिनको उस की आवश्यकता है। यदि २% भारतीयों के अंग्रेज़ी सीखने से इस देश का कार्य हो जाता है तब ७५% लोगों को अण्ग्रेज़ी सिखाने की आवश्यकता नहीं होना चाहिये । वैसे किसी को भी‌कोई भी‌भाषा सीखने की मनाई नहीं होनाचाहिये, और न अनिवार्यता। सभी को अपनी‌ मातृभाषा या क्षेत्रीय भाशा में शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार होना चाहिये ।

    क्यों कि “आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वत:।”
    पर एक ही परदेशी भाषा पर, प्रत्येक अंग्रेज़ी पढने वाला छात्र १०-१५ वर्ष लगा देता है।बहुत बडी भ्रान्ति के कारण मानता भी है, कि अंग्रेज़ी जानना ही, प्रतिभा है। घोर भ्रान्ति ! —— और गुलामी की पक्की निशानी‌है।
    और अंग्रेज़ी एक अभिव्यक्ति का माध्यम ही सीखने में जीवनका अतीव ऊर्जा वाला काल व्यर्थ हो जाता है। मैं स्वयं इसी हीन ग्रन्थि से विचार किया करता था। १०-१५ वर्ष पूर्व एक बिजली सा –चमत्कार ही कहूंगा, हुआ, और तब मुझे पता चला कि, भारत कैसी महा भयंकर गलती कर रहा है।—— भारत का अस्तित्व संकट में‌है।

    संसार का कोई भी देश जो परदेशी माध्यम में पढता-पढाता है, आगे नहीं बढ पाया है। जिनकी अपनी भाषा ही अंग्रेज़ी है, उनकी बात नहीं। ———-यह सत्य भी‌जानने योग्य है, महत्वपूर्न है। वरन इज़राएल जैसा छोटा सा और नऩ्हा सा और किशोर राष्ट्र अपनी‌यहूदी‌भाषा में शिक्षा देकर और उसी में जीवन जीकर विश्व में अग्रणी पंक्ति में‌है।

    दूसरा संस्कृत का ही इन्डो-युरोपियन भाषा परिवार में स्थान, सारे परिवार को १८ भाषा परिवारों में सबसे उन्नत स्थान दिला पाया है। तो अंग्रेज़ी का कुछ ऋण संस्कृत के प्रति ही है। ————–समस्त यूरोपीय भाषाओं पर संस्कृत भाषा का अध्यात्म दर्शन का प्रभाव है। हमारे मालिक संस्कृत को तो मृत भाशा ही घोषित करेंगे, ऋण तो नहीं ही‌मानेंगे । जर्मनी बहुत ही गौरव से यह ऋण स्वीकार करता है; और पोलैण्ड, फ़्रान्स आदि भी।
    —————भारत राष्ट्र प्रेमियों के सामने अपनी अस्मिता और अस्तित्व का संकट है। अगले १० या १५ वर्षों में समस्त भारतीय भाषाएं “मृत” हो जाएंगी और उनके स्थान पर हिंग्लिश, गुजिंग्लिश, टमिंग्लिश आदि क्रियोली बोलियां चलेंगी। पश्चिम का गुला इंडिया बचेगा, भारत नहीं।
    आपके प्रयासों के लिये साधुवाद
    विश्व मोहन तिवारी

  2. मधुसूदन जी
    हमेशा की तरह चोट करने वाले लेख के लिये, धन्यवाद।
    अंग्रेज़ हमें बौन्ज़ाई बना गए , तब हम गुलाम थे किन्तु तब भी उनसे बराबर लड़ाई कर रहे थे । अपनी संस्कृति बचाने का प्रयास कर रहे थे ..अब तो हम “स्वतंत्र” हैं तब भी हमें‌काले अंग्रेज़ बौन्ज़ाई बना रहे हैं और हम खुश हो रहे हैं ।
    अंग्रेज़ी हमारी‌भाषाओं की जड़ों को काटकर हमें बौन्ज़ाई बना रही है ।
    क्या हम भारत में अंग्रेज़ी की जड़ें काटकर कम से कम भारत में उसे बौन्ज़ाई नहीं बना सकते ? और अपनीभाषाओं के वृक्षों को पनपने दें , अपनी संस्कृति , अपना आत्मविश्वास. अपनी रचनात्मक शक्ति वापिस आ जाएगी, हम फ़लेंगे और फ़ूलेंगे ।

    जय भारतीय भाषाओं की।
    विश्व मोहन तिवारी

    • कृतज्ञापूर्वक धन्यवाद, आप से प्रेरणा ही मिलती है। गलतियाँ, वा गलत दृष्टिकोण की ओर भी संकेत करते रहें। एक संक्षिप्त आलेख “गुजराती लिटररी अकादमी ऑफ नॉर्थ अमेरिका” में भेजना है, जो इसी का संक्षेप कर भेजने का सोच रहा हूँ।
      आपकी टिप्पणी से, निम्न विचार आया।
      हीन ग्रन्थि से पीडित व्यक्ति सर्वदा जिसके प्रति उसे आदर होता है, जिसे वह ऊंचा मानता है, उसीका अंधानुकरण करता है। जब तक इस हीन ग्रन्थिपर ही प्रहार कर, उसे समूल उखाड़ कर फेंका नहीं जाता, तब तक भारत स्वतन्त्र नहीं हो पाएगा।
      भोजन में चटनी का जो प्रमाण है, उस प्रमाण में भारत को परदेशी अर्थात सभी परदेशी -रूसी, जपानी, चीनी, और अंग्रेज़ी इत्यादि सभी उन्नत भाषाएं, आवश्यक है।
      क्यों कि “आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वत:।”
      पर एक ही परदेशी भाषा पर, प्रत्येक अंग्रेज़ी पढने वाला छात्र १०-१५ वर्ष लगा देता है।बहुत बडी भ्रान्ति के कारण मानता भी है, कि अंग्रेज़ी जानना ही, प्रतिभा है। घोर भ्रान्ति !
      और अंग्रेज़ी एक अभिव्यक्ति का माध्यम ही सीखने में जीवनका अतीव ऊर्जा वाला काल व्यर्थ हो जाता है। मैं स्वयं इसी हीन ग्रन्थि से विचार किया करता था। १०-१५ वर्ष पूर्व एक बिजली सा –चमत्कार ही कहूंगा, हुआ, और तब मुझे पता चला कि, भारत कैसी महा भयंकर गलती कर रहा है।
      संसार का कोई भी देश जो परदेशी माध्यम में पढता-पढाता है, आगे नहीं बढ पाया है। जिनकी अपनी भाषा ही अंग्रेज़ी है, उनकी बात नहीं। दूसरा संस्कृत का ही इन्डो-युरोपियन भाषा परिवार में स्थान, सारे परिवार को १८ भाषा परिवारों में सबसे उन्नत स्थान दिला पाया है। तो अंग्रेज़ी का कुछ ऋण संस्कृत के प्रति ही है। लम्बी हो गयी टिप्पणी—कृपांकित

  3. आदरणीय डॉ. मधुसदन जी…आपने सही पहचाना मै इसी लेख की बात कर रहा था| बहुत बहुत धन्यवाद आपने इसे पढ़ा व सराहा| आपको लेख पसंद आया यह जान कर अति हर्ष हुआ|
    सादर
    दिवस…

  4. Er. Diwas Dinesh गौर, अभिषेक उपाध्याय, ajit भोसले, सुनिल पटेल, dr.rajesh कपूर
    वास्तव में आप सभी की उत्साहवर्धक टिप्पणियों के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। विशेषमें इस लिए कि उनके कारण मुझे कह सुनानेवाले कि कौन लिखा पढता है? आपका ? क्यों समय व्यर्थ करते हो?
    कुछ अचंभित है।
    डॉ. कपूर जी नितान्त सही कह रहे हैं।
    संसार के सारे देश, मूलतः अपने अपने देशके हितमें ही सोचते हैं। विश्व बंधुता,अहिंसा, विश्व शांति, इत्यादि शब्द प्रयोग, अपने अपने हितों को लक्ष्यमें रखकर ही किए जाते हैं।{हम नारों में बह जाते हैं}
    सिद्धांतोंका उपयोग देश-हित में है। देश हित साध्य है, सिद्धांत साधन। साधन बदला जा सकता है, साध्य नहीं।
    मोर्गन्थाउ Politics Among Nations में यही समझाता है।
    प्रामाणिक शंकाएं उठाते रहिए।
    सविनय।

  5. आदरणीय प्रो.मधुसुदन जी द्वारा इस प्रमाणिक लेख से कईयों को समझ आना चाहिए कि पिछले १५० साल से हम भारतीयों को किस प्रकार से धूर्त यूरोपियनों और अमेरिकनों द्वारा समाप्त किया जा रहा है. जिस षड्यंत्र की शुरुआत अंग्रेजों द्वारा की गयी थी आज उसका संचालन और नेतृत्व अमेरिका द्वारा किया जा रहा है.मीडिया द्वारा jo dikhaayaa जा रहा है सच usake pichee chhupaa हुआ है. डा. मधुसुदन जी सरीखे दूर दृष्टि के देशभक्त शिक्षक और विचारक सत्य को समझ कर सही दिशा और दशा को समझते-समझा rahe हैं. बिका मीडिया सच को छुपाने का और झूठ को फैलाने का सबसे बड़ा शास्त्र बन चुका है. ऐसे में प्रवक्ता. के मंच का upyog adhiktam किया jaanaa चाहिए, डा. madhusudasn जी jaise wichaarkon के prasupt samaaj को jagaane waale लेख adhikaadhik logon tak pahunch saken, isake liye prayatn karane chaahiyen. meraa winamr sujhaaw है की –
    * apane adhiktam mitron को प्रवक्ता के upayogi लेख mail karen.
    * Mercola.com को pdhen और dusaron को bhi prerit karen
    * conspiracy planet. com को bhi subscribe kare और padhen-padhaaye.
    – uparokt dono को padh कर अमेरिका की asliyat tathaa duniyaa में chal rahi waastwikataa का thik से pataa chal sakegaa. tabhi हम wastwik khatron को समझ कर unakaa niraakaran कर sakenge.

    tak pahunch saken.

  6. अजित भोसले:
    अजित जी धन्यवाद| सही कहा आपने। आप और अन्य प्रवक्ता के कुछ प्रबुद्ध पाठकों के लिए निम्न सूचित पाठय पुस्तक वैचारिक ढांचा विशद कर सकती है। साम्‍राज्य़वादी देश और अन्य देश जो साम्राज्यवादी सत्ताओंसे बचना चाहते हैं, उनके लिए यह पुस्तक पढना बहुत आवश्यक है।
    Politics among nations;: The struggle for power ”
    by Hans J. Morgenthau की यह पुस्तक पढने पर पता चलता है, कैसे हमें ब्रेन वॉश किया गया। भारत अपने ही “विश्व बंधुत्व” से आत्म संमोहित (सेल्फ हिप्नोटाईझ्ड) है।
    मेरा अनुमान: बहुत सारे गुप्त दस्तावेज़ इंग्लैंड में पडे है। कुछ उपलब्ध होने की संभावना बढी है। पर जो शासन स्विस बॅन्कों के विषय में टालम्‌ टाल कर रहा है, उससे इन के मांग की अपेक्षा करना सुई के छेदसे ऊंट निकालने जैसी है।

  7. बहुत उत्तम लेख. धन्यवाद. यह तो वस्त्वकिता है की लोगो को सच्चाई का पता ही नहीं है. जैसे सिखाया गया, जैसा देखा है हम वोही सच मानते है. जिनको सच पता था उन्होंने ने कभी किसी को बताने का प्रयास ही नहीं किया. जो कुछ सच किताबो में छपता था वोह अधिकतर अंग्रेजी और कुछेक हिंदी की किताबो में होता था जो बुधिजिवियो के लिए ही होती थी कारण बहुत महंगी होना और आम आदमी रोटी पानी में ही उलझा रहता है. वाकई मेकाले ने भारत में अपने साड़े तीन साल के प्रवास में भारत देश को हजारो साल के लिए मानसिक गुलाम बना लिया है.
    प्रवक्ता एक ऐसा माध्यम आया है जिसने इतिहास को हिंदी भाषा (जन जन की भाषा, आम आदमी की भाषा) में प्रस्तुत किया. लेखक वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग और सामान्य व्यक्ति भी न सिर्फ अपने विचारो को व्यक्त कर सकते है बल्कि एक मंच दिया जहाँ हम अपने वाद विवाद भी कर सकते है.
    फिर से आदरणीय मधुसुदन जी को धन्यवाद. अगले लेख के इन्तजार में ….

  8. आदरणीय मधुसूदन जी जिस दिन आपका लेख प्रकाशित हुआ उसी दिन में उस पर टिप्पणी करना चाह रहा था पर स्वास्थ्य थोड़ा गड़बड़ था अतः कंप्यूटर पर ज्यादा देर बेठने की हिम्मत नहीं हो पा रही थी, आपने लिखा था की इस लेख पर आप मेरा स्पष्ट मत चाहते हैं तो मैंने हिम्मत करके अपनी तरफ जो उस समय टिप्पणी हो सकती थी कर दी, आज में पूरे मन से बैठा हूँ, में आपको बताऊ “बोनसाई” शब्द से ही मुझे नफरत है, हम कौन होते हैं पेड़ को अविकसित होने के लिए अभिशिप्त करने वाले, श्री दिनेश गौर के एक लेख में मैंने पढ़ा था की वृक्षों में जान होती है यह सच है और इसका बहुत ही सटीक उदाहरण भी उन्होंने दिया था, तो यहाँ तो भारतीयों को ही बोनसाई बना दिया गया है, तो मुझे कितना कष्ट हुआ होगा इसका अंदाजा लगा पाना कठिन है, पर चूंकि “पोधे को पता ही नहीं चलता की उसकी नियति क्या थी” तो कदाचित मुझे भी मालूम नहीं हो पाया और शायद अधिकाँश भारतीय बोंसाइयों को भी मालूम नहीं चल पा रहा है की उनकी वास्तविक नियति क्या थी, अति उत्तम लेख.
    जय हो.

  9. Er. Diwas Dinesh Gaur धन्यवाद दिवसजी।
    आप शायद “आखिर कब तक चलेगा यह सब?” इसी लेख की बात कर रहे हैं, ना? यदि नहीं, तो उसका नाम बता दें। मैं देखना-पढना चाहता हूँ।

  10. सम्माननीय मधुसूदन जी एक अच्छे एवं विचारोत्तेजक लेख के लिए ह्रदय से धन्यवाद, हम भारतीय लोगों के मन में इस तरह इस तरह विष भर दिया गया है की हमें अपनी संस्कृति से जुडी कोई भी बात श्रेष्ठ नहीं लगती, आप तो जानते ही हैं की बड़ी चालाकी से हमें हमारी संस्कृति से काटा जा रहा है, चाचा, चाची, ताई, ताऊ, मौसा,मौसी जैसे मीठे भारतीय संबोधन लगभग विलुप्त हो गए हैं, अभी एक खतरा और मुह बाएं खडा है आने वाले दिनों में चाचा, मौसी, बुआ बड़ी मुश्किल से देखने को मिलेंगे मेकाले और महँगी शिक्षा की बदोलत अब लोगों ने एक ही बच्चा सबसे अच्छा यह नारा आत्मसात कर लिया है, उनको लगता है अगर दो बच्चे हुए तो वे सबसे महंगे विद्यालय में नहीं पढ़ा पाएंगे, आपके लेखों को पढ़कर लगता है निराश होने की आवश्यकता नहीं है देर सबेर क्रांतिकारी परिवर्तन अवश्य होंगे, और बहुत हद तक उनकी सफलताओं में आप जैसे लेखकों का बहुत बड़ा योगदान होगा.

  11. सादर चरण स्पर्श ,
    बहुत ही सारगर्भित लेख ..माननीय मैं तो आपको सलाह देने योग्य तो नहीं हूँ परन्तु एक विनम्र आग्रह रहेगा की आपके द्वारा प्रस्तुत २२ प्रश्नों का मूल मैं एक प्रश्न में समझता हूँ शायद इसका उत्तर हाँ होने पर सभी का उत्तर हाँ ही होगा ..प्रायः देखने में आ रहा है की अपने देश के नाम को ज्यादातर लोगो के द्वारा इंडिया पुकारा जाता है..
    प्रश्न : क्या हम सामान्य बातचीत और प्रमुख अवसरों पर अपने देश को भारत या फिर हिन्दुस्तान कहते हैं ?
    कृपया इसी भाँती मार्गदर्शन करते रहें ….

  12. आदरणीय डॉ. मधुसुदन जी…आवश्यक सामग्री आपने बहुत ही रोचक तरीके से सामने रखी है| जापानी ”बॉन्साई पौधे” का उदाहरण विशेषकर रुचिकर लगा| आज भारतीयों की मनोस्थिति इसी प्रकार की हो गयी है कि जैसे सभी महारथ गोरे रंग के पास ही है| काले रंग में केवल हीन भावना है| अंग्रेजी में लिखा, पढ़ा अथवा बोला गया तो ज्ञान है किन्तु हिंदी में कही गयी बात केवल एक गंवार की अभिव्यक्ति बनकर ही रह जाती है| इस विषय पर मैंने भी एक लेख लिखा था, अत: कह सकता हूँ की आपने मेरे मन की पीढ़ा पर यहाँ प्रकाश डाला है| उत्तम कोटि की भाषा व लेख के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद|
    सादर…
    दिवस…

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