बुजुर्गों को कानूनी संरक्षण की दरकार

 सिद्धार्थ शंकर गौतम

हाल ही में दिल्ली सहित २५ राज्य व केंद्र शासित प्रदेशों में एजवेल रिसर्च एंड एडवोकेसी सेंटर का एक सर्वे हुआ जिसमें ५० हज़ार से अधिक बुजुर्ग शामिल हुए| यह सर्वे बुजुर्गों की स्वयं के अधिकारों की प्राप्ति हेतु कानूनी संरक्षण से जुडी आवश्यकताओं पर आधारित था| इनमें से ८४ प्रतिशत बुजुर्ग अपने लिए कानूनी संरक्षण की आवश्यकता महसूस करते हैं जबकि मात्र १६ प्रतिशत बुजुर्गों को ही कानूनी संरक्षण मिल पाया है| सर्वे के आधार पर देखा जाए तो मात्र २० प्रतिशत बुजुर्ग ऐसे हैं जिन्हें उन विशेष कानूनी प्रावधानों की जानकारी है जिन्हें सरकार ने उनकी सुरक्षा हेतु बनाया है| वक्त की नियति के हाथों अपनों की अदावत झेलने को मजबूर बुजुर्ग कानूनी संरक्षण तो चाहते हैं किन्तु कानून की जटिल प्रक्रियाओं में उलझकर उनके अरमान ठंडे पड़ जाते हैं| फिर कानूनी प्रावधानों की जानकारी का अभाव भी उनकी मुश्किल राह को और कठिन करता है| सर्वे के अनुसार देश में २७ प्रतिशत बुजुर्ग लंबी कानूनी प्रक्रिया से लड़ने में खुद को असमर्थ मानते हैं और उनका मानना है कि कानूनी प्रक्रिया में उलझकर उनका समय ही बर्बाद होगा| करीब १४ प्रतिशत बुजुर्गों को उनकी कमजोर आर्थिक स्थिति कानूनी प्रावधानों को अपनाने से पीछे खींच लेती है| १३ प्रतिशत बुजुर्गों को परिवार और समाज से मदद नहीं मिलती वहीं १२ प्रतिशत बुजुर्गों को सामाजिक बंधनों व मर्यादाओं का डर कानूनी प्रक्रिया अपनाने से रोकता है| ११ प्रतिशत बुजुर्ग जहां कानूनी प्रक्रिया पर विश्वास नहीं कर पाते वहीं ६ प्रतिशत बुजुर्गों को वकीलों की भारी-भरकम फीस कदम खींचने पर मजबूर करती है| लगभग ४ प्रतिशत बुजुर्ग अन्य कारणों से कानूनी प्रक्रिया को नहीं अपनाते| एक अनुमान के मुताबिक़ इस समय देश में ५ वर्ष से अधिक समय तक लंबित पड़े मामलों में २५ प्रतिशत मामले ऐसे हैं जिनमें एक पक्ष बुजुर्गों से संबंधित है| करीब ८६ प्रतिशत बुजुर्ग सिविल मामलों में तो १७ प्रतिशत आपराधिक केसों में शामिल हैं| राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में भी बुजुर्गों से जुड़े कुल ६१२९ केस वर्तमान में लंबित पड़े हैं| संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा बुजुर्गों की कानूनी सहायता हेतु विशेष अधिकारों की व्यवस्था की गई है किन्तु हमारे देश में लंबी कानूनी प्रक्रिया व ज़रूरत से अधिक सामाजिकता बुजुर्गों के संरक्षण को कानूनी अमलीजामा पहनाने से रोकती है|

 

यह तो हुई सर्वे की बात| अब ज़रा इस पर विचार किया जाए कि आखिर बुजुर्गों को कानूनी संरक्षण की आवश्यकता ही क्यों पड़ रही है? हालांकि इन मामलों को कई दायरों में बांटा जा सकता है किन्तु अधिकाँश मामले गृहक्लेश से जुड़े देखे गए हैं| वर्तमान परिपेक्ष्य में वक्त के बदलते मिजाज ने बुजुर्गों को परिवारों पर बोझ बना दिया है| संयुक्त परिवारों में हालांकि यह स्थिति अभी एकल परिवारों के माफिक विस्फोटक नहीं हुई है किन्तु बुजुर्गों की दुर्दशा आज किसी से छुपी नहीं है| जीवन भर जिन बच्चों के पालन-पोषण में माता-पिता अपनी ज़िन्दगी होम कर देते हैं, वही बच्चे अपने माता-पिता की बढ़ती उम्र को भी नहीं संभाल पा रहे हैं| कैरियर, परिवार तथा आगे बढ़ने की होड़ ने परिवारों में बुजुर्गों के लिए वक्त ही नहीं छोड़ा है| जिंदगी के थपेड़ों को खाते-सहते माता-पिता की अपने बच्चों से कोई अपेक्षा नहीं होती पर यह तो उनका भी फ़र्ज़ बनता है कि वे बुजुर्ग होते माता-पिता के बुढापे की लाठी बनें| किन्तु जब बुजुर्गों के जीवन पर आधुनिकता की चकाचौंध में अंधे हो रहे तथा सामाजिक मूल्यों को ताक पर रख ज़िन्दगी जीने वाले उनके अपनों का अपमानजनक रवैया हावी होता है तो उनके पास मुफलिसी व दर्द के सिवाय कुछ नहीं बचता| फिर यह उनकी महानता ही है कि इन क्षणों में भी उनके दिल से अपनों के लिए दुआएं ही निकलती हैं| हाँ, यह बात और हैं कि उनकी दुआओं, त्याग, परिश्रम इत्यादि का उन्हें कोई फल नहीं मिलता| हम २१वीं सदी में शीर्ष पर काबिज होने की चाह रखते हैं, विश्व में अपना परचम फहराने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते हैं किन्तु अपनी समृद्ध विरासत हो नहीं संभाल पाते| आखिर हम किस सभ्यता या संस्कार की बात करते हैं? जब बुजुर्ग हमारी विरासत हैं तो उनके साथ किसी भी स्तर का भेदभाव क्यों? क्या हमारी बौद्धिक क्षमता हमें इस बात का भान नहीं कराती कि इतिहास स्वयं को दोहराता है| आज जो जैसा बोता है, उसे काटना भी वैसा ही पड़ता है? तब आखिर कब तक बुजुर्गों को यूँही कानूनी संरक्षण के भरोसे एकाकी छोड़ा जाता रहेगा? और यदि परिवार और समाज बदलाव हेतु तैयार नहीं हैं तो सरकार को बुजुर्गों के लिए सरल कानूनी संरक्षण प्रावधानों का मसौदा तैयार कर उससे उन्हें अवगत कराना पड़ेगा ताकि वे भी अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो सकें|

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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

2 COMMENTS

  1. बेहद सटीक और समसामयिक विषय! मानवता के लिए महत्वपूर्ण विषय! बुजुर्गों की समस्याओं पर मैं पिछले पच्चीस वर्षों से लगातार काम कर रहा हूँ! तब से जब मेरे साथी मुझसे मजाक में कहा करते थे कि “अपने बुढ़ापे के लिए इतनी जल्दी तैयारी क्यों कर रहे हो?”

    सच तो ये है कि इन्सान जन्म लेने के दिन से ही बूढ़ा होना शुरू हो जाता है, बल्कि जन्म के साथ ही म्रत्यु की भी शुरूआत हो जाती है! जिसे जानकर भी हम समझते नहीं हैं! अनजान बने रहने का भ्रम पाले रहते हैं! बूढ़े होकर के भी हम, बूढ़े होने का इंतजार करते रहते हैं! हम जब तक अपनी नज़र में बूढ़े नहीं होते हैं, तब तक हमारा सब कुछ समाप्त हो चुका होता है!

    ये एक ऐसा विषय है, जिस पर हर एक को तत्काल कार्य करने की जरूरत है! क्योंकि हमारी संवेदना का स्तर इतना गिर चुका है कि हमारे अपने जन्मदाताओं के लिए सरकार को कानून बनाने पड़ रहे हैं और फिर भी हमारे बुजुर्गों को इंसाफ नहीं मिल रहा है! अपने आप में ये बात कितनी क्रूरतापूर्ण है?

    कहीं न कहीं हमारी पारिवारिक व्यवस्था की खामी का दंड ही बुजुर्ग भुगत रहे हैं! ये जानते हुए कि हमें भी एक दिन अपने बच्चों पर आश्रित होना है, हम, हम पर आश्रित अपने बुजुर्गों की अनदेखी करा रहे हैं! ये असंवेदना की पराकाष्ठा है!

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