यूपीसएसी का अंग्रेजी प्रेम से शिवसेना का संसदीय मोहभंग

upscसंध लोक सेवा आयोग की सिविल सर्विसेज परीक्षा में क्षेत्रीय भाषाओं के महत्व को बढ़ाये जाने को लेकर संसद में शिवसेना का जबर्दस्त विरोध करना एक तरह से सत्य को स्वीकारना ही कहा जायेगा जबकि अंग्रेजी की समझ बहुत कम भारतीयों को है। उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय से लेकर उच्च स्तर पर सभी कार्य अंग्रेजी में हो रहे है। देश आजाद तो हुआ 1947 में लेकिन कानून 1860 के ही चल रहे है। और हमारी सरकारे कहती है कानून अंग्रेजों का है तो क्या हुआ शासन तो भारतीयों का है। अगर शासन भारतीयों का है तो फिर भारतीयों को उनके अधिकार क्यों नहीं दिये जा रहे। हम मनमोहन, प्रणब मुखर्जी और अपने देश के सरकार के हर उस शख्स से पूछना चाहते है कि बताओं इंटरनेट पर सभी सरकारी वेबसाइटे, देश के सभी कानून, देश की सभी व्यवस्था हिन्दी, तमिल, तेलुगु बोलने वाले के लिए है या 6 करोड़ की जनंसख्या वाले ब्रिटेन के लिए। प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति से लेकर सभी की वेबसाइटे पहले अंग्रेजी में क्यो खुलती है? और उसमें उपलब्ध दो तिहाई सामग्रियां आखिर हमारे देश की आठवीं अनुसूची में उपलब्ध भाषाओं में आखिर क्यों नहीं है। क्या सरकार सिर्फ अंग्रेजी भाषियों के लिए है या अन्यों के लिए भी। सैकड़ों प्रकार के टैक्स और शुल्क हिन्दी और अन्य आठवी अनुसूची भाषी देते है तो फिर सबके साथ ये अन्याय क्यो?

क्यों जबरदस्ती हमारे देश के होनहारों पर अंग्रेजी थोपी जा रही है। अभी कुछ समय पहले एक आई.ए.एस से मेरी हिन्दी अंग्रेजी को लेकर चर्चा हो रही थी। ये आइएएस महोदय अंग्रेजी के तारिफों के पुल बांधे जा रहे थे। फिर मैंने अंग्रेजी की एक कविता उन्हें दी और कहा इसका अर्थ बताइयें फिर क्या था, वह आइ.ए.एस. महोदय बगले झांकने लगे। भाषा जानना और उसकी आत्मा को समझना दो अलग पहलु है। हिन्दी हमारी आत्मा में बसती है। लेकिन अंग्रेजी को हम अनुवाद करके ही समझते है। हां अगर 1 अरब 25 करोण में एक से डेढ़ करोण लोग अच्छी अंग्रेजी वाले है भी तो उनकी वजह से 1 अरब 24 करोण लोगों पर अंग्रेजी थोपना प्रजातंत्र के सिद्धान्त के अनुसार क्या न्यायोचित माना जायेगा? जब देश के सबसे कठिन परीक्षा पास करने वाले अधिकारियों का ये हाल है तो फिर आम जनता की स्थिति का आंकलन स्वतः किया जा सकता है। आज भी सरकारी कार्यालयों में इतने नियम है कि उन्हें समझने के लिए सालों लग जाते है। भाषा के चलते आ रहे समस्याओं के समाधान हेतु राजभाषा नियम 1976 बनाया गया था लेकिन इसका समुचित अनुपालन आज तक नहीं हो पा रहा। आज भी हमारी सरकार की सभी वेबसाइटे अंग्रेजी की शोभा बढ़ा रही है। आखिर आम जनता अंग्रेजी को क्यो पढ़े। भाषा की समस्या ही मुख्य समस्या है इस देश में। देश में क्या हो रहा है उसकी समझ आम जनता के परे है। सब रट्टा मार प्रतियोगिता करने में भागे जा रहे हैं। हमारे बगल में चाइना दिन-दूनी रात चैगूनी कर रहा है और वहां सभी कार्य उसके अपने भाषा में हो रहे है। जापान निरन्तर उन्नती कर रहा है और उसके यहां भी सभी कार्य उसके अपने भाषा में हो रहे है और भी अनेको देश है जो निज भाषा का प्रयोग कर उन्नती की अग्रसर है। लेकिन हमारी सरकार का अंग्रेजी मोह नहीं छुट रहा। हमारे देश के होनहार बच्चों को अंग्रेजी की चक्की में पीसा जा रहा है। एक तरफ संभ्रान्त, रसूखदार और ऊँचे तबके के लोग शुरू से ही अपने बच्चों को अंग्रेजी शिक्षा की चक्की का आंटा खिला रहे है तो दूसरी तरफ हमारी केन्द्र सरकार संविधान की दुहाई देकर प्राथमिक स्तर तक बच्चों को अंग्रेजी नहीं पढ़ा रही। क्योंकि हमारे संविधान का अनुच्छेद 350 (क) में प्राविधान है कि- ”प्रत्येक राज्य और राज्य के भीतर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के बालको को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्थाा करने का प्रयास करेगा।”

संविधान के अनुच्छेद 351 में हिन्दी भाषा के विकास के लिए निदेश दिये गये है और कहा गया है कि ”संघ का कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहां उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।” लेकिन सीधा प्राविधान होने के बाद भी हमारी सरकारे आज तक अन्य भारतीय भाषाओं की उन्नति की जगह अंग्रेजी भाषा की उन्नती करती जा रही है। और ऐसा सिर्फ सरकारी मांग की वजह से हो रहा है। क्योंकि हमारी सरकार और उनके द्वारा बुलायी गयी हजारों बहुराष्ट्रीय कंपनीय अंग्रेजी के जानकारों को खोज रही है। अतः हमारी जनता भी अंग्रेजी के पीछे दीवाना हो चुकी है। अगर आजादी पश्चात् ही आठवी अनुसूची की भाषाओं में ही कार्य किया जाता तो ऐसी स्थिति नहीं उभरती। समूचे देश की एक भाषा अगर चुनना ही था तो हिन्दी चुन ली जाती। और अगर अन्य आठवी अनुसूची से सम्बन्धित भाषाओं का विवाद उत्पन्न होता तो तमिल को अंग्रेजी की जगह तमिल हिन्दी दी जाती। राज्यस्तर की भाषा का चयन राज्य की भाषा के अनुसार किया जाता तो कितना अच्छा रहता।

2 COMMENTS

  1. हिन्दी साहित्य में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का मूलमंत्र था
    अंग्रेज़ी पढ़ कै जदपि,
    सब गुन होत प्रवीन।
    पै निज भाषा ज्ञान बिन
    रहत हीन कै हीन।
    निजभाषा उन्नति अहै,
    सब उन्नति को भूल।
    बिन निज भाषा ज्ञान के
    मिटे न हिय को सूल।
    भाषा न सिर्फ अभिव्यक्ति का साधन अपितु किसी देश, किसी वर्ग का गौरव होती है। यही वह माध्यम है जिससे किसी से संपर्क साधा जा सकता है या किसी तक अपने विचारों को पहुंचाया जा सकता है।
    हिंदी को भारत वर्ष में उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे प्रांतों में लगभग साठ, पैंसठ करोड़ लोग अपनी मातृ भाषा के रूप में प्रयोग करते हैं। जबकि इसे संपर्क भाषा के रूप में पूरे देश में समझा जाता है और देश से बाहर श्रीलंका, नेपाल, वर्मा, भूटान, बांगलादेश और पाकिस्तान सहित मारीशस जैसे सुदूरस्थ देशों में भी बोला समझा जाता है। इससे विश्व की सबसे समृद्घ भाषा और सबसे अधिक बोली व समझी जाने वाली भाषा हिंदी है। हिन्दी का शब्द भण्डार अद्भुत् है। वैसे तो प्रत्येक भाषा में एक शब्द के लिए अनेक पर्याय मिलते हैं किन्तु हिन्दी में शब्दों के पर्यायों की संख्या अद्भुत् है।दक्षिण मे हिंदी का विरोध नजर नहीं आता कुछ मुट्ठीभर लोग है जो समाज को दिग्भ्र्मित करते है हमे उनसे सावधान रहने की आवश्यकता है ।यदि राष्ट्र भाषा हिन्दी को प्रारंभ से फलने फूलने का अवसर दिया जाता तो आज भारत में जो भाषाई दंगे होते हैं, वो कदापि नही होते। भाषा को राजनीतिज्ञों ने अपनी राजनीति को चमकाने के लिए एक हथियार के रूप में प्रयोग किया है। अंग्रेज़ी उस साम्राज्य की भाषा थी जिसने भारत को ग़ुलाम ही नहीं बनाया बल्कि उसका सांस्कृतिक व आर्थिक शोषण भी किया ।
    जो भाषा हमारी संपर्क भाषा भी नही हो सकती उसे हमने अपनी पटरानी बनाकर रख लिया है, और जो भाषा पटरानी है उसे दासी बना दिया है। देश की राष्ट्रभाषा की उपेक्षा करना राष्ट्र के मूल्यों से खिलवाड़ करना है। जबकि विदेशी भाषा को अपनी पटरानी बनाकर रखना तो और भी घातक है।
    यही कारण है कि देश में विदेशी भाषा अंग्रेजी के कारण देश की अधिकांश आर्थिक नीतियों और योजनाओं का लाभ देश का एक विशेष वर्ग उठा रहा है। उस वर्ग को आगे बढ़ता देखकर हिंदी में बोलने वाले व्यक्ति को स्वयं ही ऐसा लगता है कि जैसे हिंदी में बोलकर वह कितना छोटा काम कर रहा है। किसी भी कार्यालय में साक्षात्कार के लिए जाने वाले अभ्यर्थी ने यदि बेहिचक अंग्रेजी में प्रश्नों के उत्तर दिये हैं तो उसके चयन की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। इसलिए हिंदी के प्रति उपेक्षाभाव देश में बढ़ता जा रहा है। जबरदस्ती हमारे देश के होनहारों पर अंग्रेजी थोपी जा रही है। लगता है अंग्रेज़ साम्राज्यवादियों ने जो भारत का आर्थिक शोषण किया , उसके निशान तो धीरे धीरे मिट गये , लेकिन उन्होंने जो सांस्कृतिक शोषण किया उसके निशान अभी तक मिटने का नाम नहीं ले रहे है।
    चाइना दिन-दूनी रात चैगूनी उन्नती कर रहा है और वहां सभी कार्य उसके अपने भाषा में हो रहे है। जापान निरन्तर उन्नती कर रहा है और उसके यहां भी सभी कार्य उसके अपने भाषा में हो रहे है और भी अनेको देश है जो निज भाषा का प्रयोग कर उन्नती की अग्रसर है। हजारों बहुराष्ट्रीय कंपनीय अंग्रेजी के जानकारों को खोज रही है। अतः हमारी जनता भी अंग्रेजी के पीछे दीवाना हो चुकी है। इन दिनों तो हिंदी में अंग्रेज़ी की अपराजेयता का बिगुल बजाते बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दलालों ने, विदेशी पूंजी को पचा कर मोटे होते जा रहे, हिंदी के लगभग सभी अख़बारों को यह स्वीकारने के लिए राजी कर लिया है कि इसकी ”नागरीलिपि’ को बदल कर, ”रोमन’ करने का अभियान छेड़ दीजिए।
    सत्य को स्वीकारना ही कहा जायेगा जबकि अंग्रेजी की समझ बहुत कम भारतीयों को है।

  2. बहुत अच्छा लेख… देश के लोगो को पता ही नहीं हैं देश में क्या हो रहा हैं… लोकसभा के सासदो को भी पता नहीं चलता की लोकसभा में क्या हो रहा हैं… अंग्रेजी में डिबेट होने पर हिंदी भाषी को समझ नहीं आता और हिंदी में हो डिबेट का अंग्रेजी भासी को समझ नहीं आता…

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