संदर्भः- ईरान-इजरायल के बीच युद्ध विराम
प्रमोद भार्गव
ईरान-इजरायल के बीच 12 दिन चला युद्ध बीच में अमेरिका द्वारा ईरान के एक साथ तीन परमाणु ठिकानों पर हमला, जवाबी कार्यवाही में ईरान का कतर में स्थित अमेरिका के सैन्य ठिकाने पर अल-उदैद हमले के आखिरी परिणाम क्या निकला ? कहना मुश्किल है। यह युद्ध और इस युद्ध के हासिल नटखट बच्चे की हरकतों की तरह देखने में आए है। ये हरकतें अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की रही हैं। इजरायल ने ट्रंप की शह पर ईरान पर मिसाइलों से हमले इसलिए किए, जिससे उसकी परमाणु क्षमता को नष्ट कर अपने देश की रक्षा कर ली जाए। इसी दौरान आ बैल मुझे मार कहावत को चरितार्थ करते हुए अमेरिका ने ईरान के तीन परमाणु ठिकानों पर हमले किए। और दावा किया कि इन परमाणु संयंत्रों को इतना नुकसान हो गया है कि अब कई साल तक ईरान परमाणु बम नहीं बना पाएगा। ये बम बनाना तब और मुश्किल हो गया है, जब इजरायल ने ईरान पर किए पहले ही हमले में वहां के अनेक परमाणु वैज्ञानिकों को मार दिया था। युद्ध के ग्यारहवें दिन ट्रंप ने दावा किया कि दोनों देश युद्ध विराम के लिए तैयार हो गए हैं। परंतु इस घोषणा के बाद दोनों ही देशों ने एक-दूसरे पर हमले किए। यही नहीं ईरान ने भी अमेरिका के अरब देशों में स्थित सैन्य ठिकानों पर हमले किए। इन हमलों के संदर्भ में ट्रंप ने कहा कि उसे कोई ज्यादा नुकसान नहीं हुआ है। इसलिए अमेरिका ने ईरान पर कोई जवाबी हमला नहीं किया और ट्रंप ने दावा कर दिया कि उनकी मध्यस्थता से युद्ध विराम लागू हो गया है। कतर ने भी इस युद्ध विराम में मध्यस्था के भूमिका अदा की। लेकिन इस युद्ध की जरूरत क्या थी, यह सवाल जस की तस बना हुआ है।
दरअसल इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू कह रहे हैं कि ईरान की परमाणु हथियार बनाने की क्षमता नष्ट हो गई है। परंतु पलटवार करते हुए ईरान ने कहा है कि वह अपना परमाणु कार्यक्रम जारी रखेगा। ट्रंप ने भी कह दिया कि ईरान बम बनाने से बहुत दूर हो गया है। तब इस युद्ध का परिणाम क्या निकला ? परमाणु हथियारों के जानकार कह रहे हैं कि ईरान के पास 20 परमाणु हथियार बनाने की क्षमता थी, जो अब घटकर 6 बम बनाने की रह गई है। जबकि ट्रंप का घोशित लथ्य था कि ईरान यूरेनियम क्षमता बढ़ाने के लिए जिस तेजी से संवर्धन कर रहा है, वह तय सीमा से बाहर की बात होती जा रही है। लेकिन ईरान की परमाणु बम बनाने की क्षमता कम भले ही हो गई हो, पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। यह तथ्य तीनों देशों के आए बयानों से सत्यापित होता है। अतएव ईरान पर किया गया बेवजह हमला, कुछ वैसा ही रहा जैसा 2003 में अमेरिकी राश्ट्रपति बुश ने ईराक पर यह कहते हुए किया था कि ईराक के पास बड़ी मात्रा में जैविक हथियार हैं। जबकि युद्ध के दौरान और युद्ध के बाद अमेरिका जैविक हथियार होने का कोई प्रमाण दुनिया को नहीं दे पाया। हां, सद्दाम हुसैन को मौत के घाट उतारने के बाद तेल के कुओं पर जरूर कब्जा कर लिया। बावजूद यह आशंका बनी हुई है कि ईरान के परमाणु ठिकानों पर जो बम गिराए हैं, उनसे यदि रिसाव होता है तो एक बड़े भू-क्षेत्र में परमाणु विकिरण का संकट पैदा हो सकता है।
अमेरिका ने ईरान के परमाणु संवर्धन प्रतिष्ठान फोदों, नतांज और इस्फहान पर अत्याधुनिक बी-2 घातक बमों से हमला किया था। इन बमों को सटीक निशाने पर दागने के लिए अमेरिकी पनडुब्बियों ने पहले दो मिसाइलों से बम गिराए, जिससे बंकर बस्टर बमों के लिए मैदान साफ किया गया। इसके बाद बम दर्शकों ने आसमान से एक के बाद एक 14 जीबीयू-57 बी बंकर बस्टर दाग दिया। इस पूरे अभियान को नतीजे तक पहुंचाने के लिए अमेरिका ने 15 युद्धक विमानों का इस्तेमाल किया। उपग्रह द्वारा निर्देशित 2400 किलो परमाणु विस्फोटक साथ ले जाने वाला यह बम जमीन में घूमता हुआ 60 मीटर गहराई तक जाने के बाद विस्फोट करके अपने लक्ष्य साधने में सफल हुआ। अमेरिका ने तीनों ठिकानों पर 14000 किलो विस्फोटक वाले बम गिराए थे, अतएव भविष्य में विकिरण का खतरा पैदा हो सकता है ?
अमेरिका ने जिन तीन परमाणु स्थलों पर हमला किया है, वह सभी ईरान के प्रमुख यूरेनियम संवर्धन ठिकाने हैं। यहां संयंत्रों में प्राकृतिक यूरेनियम को अत्यधिक संवर्धित यूरेनियम में बदला जाता है। इसी यूरेनियम को प्रयोग परमाणु बम में किया जाता है। परमाणु बिजली बनाने के लिए 3-5 प्रतिशत का यूरेनियम संवर्धन पर्याप्त होता है, लेकिन हथियार बनाने के लिए यूरेनियम-235 संवर्धन की जरूरत होती है। यह हमले जिस तादाद में किए गए हैं, उससे बड़े पैमाने पर परमाणु विकिरण रिसाव की आशंका जताई जा रही हैं। परमाणु बम युद्ध में इस्तेमाल किए जाने वाले पारंपरिक विस्फोटाकों और रसायनों से भिन्न होते हैं। ये बहुत कम समय में बहुत अधिक मात्रा में ऊर्जा छोड़ते हैं, यह ऊर्जा अनेक कड़ियों में रसायनिक प्रक्रियाएं आरंभ कर देती हैं। जो व्यापक और दीर्घकालिक क्षति पहुंचा सकती है। परमाणु हथियार कुछ ही पलों में बड़ी मात्रा में ऊर्जा छोड़ते हैं, जो आसपास के वायुमंडल को लाखों डिग्री सेल्सियस तक गरम कर देती हैं। इस विस्फोट से अनेक प्रकार के विद्युत चुंबकीय विकिरण फैल जाते हैं, जो अत्यंत घातक होते हैं। हालांकि ईरान के इन ठिकानों में रखे परमाणु हथियारों में विस्फोट की कोई आशंका नहीं है। क्योंकि विस्फोट के लिए परमाणु उपकरणों का सहारा लेना पड़ता है। जो हमलों से संभव नहीं है, लेकिन इनमें रिसाव होता है। ऐसे में रासायनिक और रेडियोलाजिकल रिसाव दोनों ही संकट में डालने वाले होते है। रेडियोलाजिकल रिसाव 1996 में रूस के चेर्नोबिल और 2011 में तूफान आने से जापान के फुकुशिमा में हुआ था। अतएव हमलों के कारण परमाणु विकिरण रिसाव की आशंका बनी हुई है। अतएव कह सकते हैं कि अमेरिका ने परमाणु विकिरण संकट खत्म किया है या बढ़ाया है।
अमेरिका का यह हमला दुनिया के अंतरराश्ट्रीय कानून और अपने ही देश के कानूनों की परवाह नहीं करता है। इसीलिए अमेरिका के भीतर इस परमाणु हमले को लेकर अमेरिकी जनमत विभाजित दिखाई दे रहा है। दरअसल किसी देश पर हमला करने के लिए ट्रंप को अमेरिकी संसद में हमले का प्रस्ताव लाकर अनुमोदन की जरूरत थी। परंतु उन्होंने इस प्रक्रिया पर अमल नहीं किया। जबकि अमेरिका की ही बात करें तो अप्रैल 2003 में इराक पर हमले के समय बुश ने संसद से मंजूरी ली थी। इसलिए ट्रंप के समर्थकों के साथ विपक्ष भी नाराज है। नाटो देश भी इस युद्ध पर सहमत दिखाई नहीं दिए। रूस और चीन खुले रूप में ईरान के पक्ष में खड़े दिखाई दिए। चूंकि भारत के ईरान और इजरायल दोनों से ही मधुर, कूटनीतिक संबंध हैं, इसलिए तटस्थ रहते हुए षांति की पहल करता रहा।
अंतरराश्ट्रीय कानून परमाणु बम के उपयोग को मानवता के विरुद्ध अमानुशिक कृत्य मानते हैं। इनके उपयोग के बाद संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद (यूएनएससी) के कठोर आर्थिक व राजनीतिक प्रतिबंधों का सामना भी करना पड़ता है। लेकिन जितनी भी अंतरराश्ट्रीय संस्थाएं हैं, वे सब अमेरिका या अन्य पश्चिमी देशों के दबाव में रहती हैं। यही देश इन संस्थानों को चलाने के लिए धन मुहैया कराते हैं और इन्हीं देशों के लोग इन संस्थानों के सदस्य होते हैं, इसलिए यहां पक्षपात साफ दिखाई देता है। अतएव ईरान में परमाणु विकिरण फैल भी जाए, तब भी अमेरिका के विरुद्ध कोई प्रतिबंध लगाना असंभव है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर ने तो कह ही दिया था कि यह संघर्श बड़ा रूप ले सकता है। अतएव संकट का कूटनीतिक हल निकालना जरूरी है। इसलिए ईरान का परमाणु कार्यक्रम रोकना जरूरी है। उसे समझौते के लिए बात करनी चाहिए। बातचीत से कूटनीति हल तो नहीं निकला लेकिन अमेरिका की धमकी ने युद्ध विराम का काम कर दिया। ईरान ने अमेरिकी सहयोग से 1957 में परमाणु कार्यक्रम षुरू किया था। 1970 में परमाणु बिजली घर बना लिया था। 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद अमेरिका ने ईरान को सहयोग करना बंद कर दिया। बावजूद पश्चिमी देश ईरान पर परमाणु बम बना लेने का आरोप लगाते रहे। परमाणु अप्रसार संधि में शामिल होने के बाद भी ईरान पर शंकाएं की जाती रहीं। इजरायल ने जासूसी करके कुछ ऐसे सबूत जुटाए जिनसे यूरेनियम संवर्धन की आशंका मजबूत हुई। 2000 में वैश्विक परमाणु निरीक्षकों को नतांज में सवंर्धित यूरेनियम मिला। हालांकि ईरान ने पहले संवर्धन रोक दिया था, लेकिन इजरायल की बढ़ती सामरिक क्षमता के चलते उसने गुपचुप परमाणु कार्यक्रम षुरू कर दिया था। इस कारण ईरान पर पश्चिमी देशों ने यह कहते हुए अनेक आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए थे कि ईरान परमाणु बम बनाने के निकट पहुंच गया है। बाद में कई साल चली वार्ता के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने प्रतिबंध हटा लिए थे। इस समझौतें में ईरान को असैन्य यूरेनियम संवर्धन को 3.67 प्रतिशत तक रखना मान्य कर लिया था। लेकिन 2018 में जब डोनाल्ड ट्रंप पहली बार राष्ट्रपति बने तो उन्होंने समझौते से हाथ खींच लिए और ईरान पर कई प्रतिबंध लगा दिए। 2023 में आईएईए ने कहा कि ईरान में 83.7 प्रतिशत शुद्धता के यूरेनियम कण मिले हैं और उसके पास 128.3 किलो संवर्धित यूरेनियम है। मई 2025 में आईएईए ने दावा किया कि ईरान के पास 60 प्रतिशत संवर्धित यूरेनियम की मात्रा 408 किलो है। इससे कई परमाणु बम बनाए जा सकते है। इसे ही नष्ट करने के लिए युद्ध और युद्ध विराम का यह खेल खेला गया। लेकिन अब ईरान ने कह दिया है कि वह अपना परमाणु कार्यक्रम जारी रखेगा। तब फिर इस युद्ध के परिणाम क्या निकले।
प्रमोद भार्गव