साहित्‍य

‘इतिहास- मिशनरियों के गुप्त पत्रों का’

-डॉ. मधुसूदन-history

ॐ– मिशनरियों को मतांतरण में दारूण निराशा क्यों हाथ लगी?

ॐ– क्योंकि जाति-संस्था ने एक गढ़ की भांति मतान्तरण रोक रखा था।

ॐ– इसीलिए, जाति रूपी गढ तोड़कर इसाई मिशनरी हमारा मतान्तरण करना चाह्ते थे।

ॐ– इसलिए हमें भ्रमित कर जाति समाप्त करना उद्देश्य था, ताकि कन्वर्ज़न का धंधा सरल हो।

ॐ — स्वस्थ जाति-व्यवस्था हमारी रक्षक थी, भक्षक नहीं ?

ॐ– पूर्वी-भारत की (आज बंगला-देशी ) प्रजा, बौद्ध हुयी –जाति-हीन हुयी– तो इस्लामिक हो गयी।

ॐ– अफगानिस्तान भी पहले हिंदु से बौद्ध हुआ, तो जाति-विहीन हुआ, अतः इस्लाम मे मतांतरित हो गया।

ॐ– विवेकानंद, सावरकर, नेहरू, (तीनों का अलग अलग ऐसा ही कथन है।)

ॐ –“जाति-संस्था ही धर्मांतरण में, सब से बड़ा अवरोध है।” –इसाई मिशनरी ड्युबोइस

(एक) मिशनरीयों का नेता, रॉबर्ट काल्ड्वेल

“कास्ट्स ऑफ माइण्ड ” पुस्तक में, मिशनरीयों का नेता, रॉबर्ट काल्ड्वेल निराश हो कर पृष्ठ १३६ पर जो लिखता है; उसका भावानुवाद:

“देशी (भारतीय) सुसंस्कृत हो या असंस्कृत हो; ऊंची जातिका हो, या नीची जाति का ; सारा हिंदू समाज जाति के ताने-बाने से सुसंगठित है। और सारे समाज की मान्यताएं युगानुयुगों से, धर्म के ऐसे कड़े  संगठन से जाति जाति में -कुछ ऐसी बंधी होती है, कि, सारा हिंदू-समाज, बिलकुल नीचले स्तर तक, संगठित होता हैं। बस इसी कारण उसका इसाई मत में धर्मान्तरण बहुत कठिन होता है। ऐसी कठिनाइयां उन उद्धत जंगली अनपढ़ वनवासियों के धर्मान्तरण की अपेक्षा कई गुना अधिक होती है।

(दो) मिशनरियों के अनुभव

बार-बार मिशनरियों को भारत में इस प्रकार के अनुभव हुए थे। ये अनुभव उनके आपसी गुप्त पत्र व्यवहार के अंश थे, जो अब प्रकाश में आए हैं, पर वो भी परदेशी विद्वान के शोध से, पता चल रहें हैं। और ये अनुभव मिशनरियों की वार्षिक बैठकों के विवरण से लिए गए हैं। अब ’कास्ट्स ऑफ माइण्ड’ नामक पुस्तक जो कोलम्बिया युनिवर्सिटी के प्रो. निकोलस डर्क्स ने लिखी है, उस पुस्तक से ये जानकारी मिली है। विद्वान फ्रान्सीसी लेखक, लुई ड्युमोंट ने भी, फ्रेंच भाषा में ’होमो हायरार्किकस’ नामक पुस्तक लिखी थी। उसका भी अनुवाद अंग्रेज़ी में हुआ है जिसका आधार भी निकोलस डर्क्स लेता है। ऐसी दो पुस्तकें जब परदेश में लिखी गयी, वो भी भारत के विषय में, तो जिस भारत के लिए, इस विषय का विशेष महत्त्व है, उस भारत के विद्वान क्या कर रहे हैं?

(तीन) हमारे विद्वान क्या कर रहें हैं?

लगता है, कि, हमारे भारत में आज भी अंधेरा छाया है। किसी विद्वान ने इस विषय पर, ऐसी शोध आधारित पुस्तक नहीं लिखी। पर क्यों नही? मैं चिल्ला चिल्लाकर पूछना चाहता हूँ। क्या स्वतंत्रता मिलने पर भी कोई रुकावट थी? हमारी इस स्वतंत्रता से “स्व” कहां चला गया? कुछ विद्वान है अवश्य। पर हिंदी में लिखना नहीं चाहते, तो भारत इस इतिहास से अनजान ही रह जाता है। जिस भारत के लिए इन तथ्यों का सर्वाधिक महत्त्व है, उस भारत को कौन बताएगा? क्या अंग्रेज़ी में उसे बताओगे?

(चार) मिशनरियों को असफलता क्यों मिली?

जैसे कोई मिशनरी कड़ा परिश्रम कर किसी देशी को ईसाइयत की महिमा समझा देता और धर्मान्तरण के लिए वह देशी सम्मत हो जाता। और फिर जैसे, बड़े उत्साह से उसके मतांतरण की विधि सम्पन्न हो रही होती कि कहीं से उसकी जाति के मुखिया लोग टपक पड़ते, या कोई चुपके से दौड़कर उन्हें बुला लाता’ और मिशनरियों के किए कराए पर पानी फेर देता; और कन्वर्ज़न रूक जाता। उस बेचारे (?) मिशनरी का अथाह परिश्रम, क्षण भर में मट्टी में मिल जाता। ऐसा मिशनरियों के अनुभवों का सार है। अत्तर छिड़क-छिड़क कर कागज़ के फूल को, इस अमृतस्य पुत्रों के नन्दनवन में बेचने निकला मिशनरी जब असफल होता, तो अपनी असफलता का ठीकरा जाति व्यवस्था पर ही प्रहार कर फोड़ता।आंगन ही टेढ़ा हो जाता। जाति के आधार पर भेदभाव करना अवश्य गलत है; पर, आज जाति संस्था का विश्लेषण करने का उद्देश्य नहीं है। हमारे स्वर्ण रूपी जाति को पीतल बताकर हमें मतिभ्रमित करने में और उस स्वर्ण के प्रति घृणा उपजाने में, ये ढकोसले परदेशी पादरी सफल हुए कैसे? क्या हम इतने बुद्धु थे?

(पाँच) मिशनरियों का गुप्त पत्र व्यवहार

सामान्य रीति से ’जाति-संस्था’ को हिंदू समाज का एक अनिच्छनीय अंग माना जाता है। और साधारण सुधारक-वृत्ति के पढे लिखे जानकार भी, इस जाति-संस्था की ओर हेय दृष्टिसे ही देखा करते हैं। कुछ लज्जा का अनुभव भी होता है, जब कोई परदेशी हमारी इस संस्था की ओर अंगुलि-निर्देश करता है। हमें नीचा दिखाने के हेतुसे ही इस विषय को छेड़ा जाता हुआ भी अनुभव होता है। क्या ऐसी जाति संस्था का कोई सकारात्मक योगदान भी है?

(छः) ऐतिहासिक सच्चाइयां

ऐसी जाति संस्था के विषय में कुछ ऐतिहासिक सच्चाइयां बाहर लाने के विचार से यह आलेख बनाया गया है। विगत डेढ़-दो सौ वर्षों के अंग्रेज़ शासनकाल में भारत के राष्ट्रीय समाज पर अनगिनत प्रहार हुए थे। जब शासन ही अंग्रेज़ी इसाइयोंका था, सारी शासकीय निष्ठाएँ भी उन के पक्षमें ही थीं,यंत्रणाएँ भी उन्हीं की थी। भौतिक सुविधाओं का, और धनका प्रलोभन भी था। पर ऐसे विपरित संकट-काल में भी, हमें हमारी जाति संस्था की प्रतिभाने ही बचाया था, यह ऐतिहासिक सच्चाई बहुतों को पता नहीं होगी। यह सत्य मिशनरियों ने तो छिपाया था। वे चाहते तो थे ही, कि सारे हिंदू समाज के मतांतरण के लिए, जाति समाप्त होनी चाहिए; जो हिंदू समाज के लिए,एक गढ का काम करती थी। इसी उद्देश्य से हमें बुद्धिभ्रमित किया गया, और हम जाति-प्रथा को लेकर लज्जा अनुभव करने लगे।

(सात) जाति तोड़ो, धर्मांतरण के लिए

इसपर एक उपचार के रूप में, मिशनरियों का कहना था, कि “शासन ने, जाति पर प्रखर हमला बोल कर,कुचल देने का समय आ गया है।”.. मिशनरी शिकायत करते ही रहते थे, कि “जाति धर्मान्तरण के काम में सबसे बड़ी बाधा है और जाति से बाहर फेंके जाने का भय धर्मान्तरण में सबसे बड़ा रोड़ा है।”… “कुछ मिशनरियों ने अन्य तर्क भी दिए थे पर सभी ने एक स्वर में जातियों को बलपूर्वक तोड़ देने का परामर्श दिया था; धर्मांतरण सरल बनाने के लिए। पर शासकों को यह, (पादरियों का ) विवेचन ही, १८५७ के बलवे (विप्लव) का कारण लगने लगा था। बहुत सारे मिशनरियों ने, इस स्वर्ण अवसर का लाभ उठाने की दृष्टि से लिखा था, कि- “भारतपर ईसाइयत बलपूर्वक लादी जानी चाहिए, इस “विद्रोह के रोग” के उपचार के लिए, ना कि दंड (सज़ा)के लिए। {दया वान जो ठहरे ! वे शासनको भी उकसाने में लगे हुए थे।-लेखक }

(आठ) मिशनरी पाठ्यक्रम का रचयिता

मिशनरी पाठ्य क्रम का रचयिता, मिशनरी अलेक्ज़ान्डर डफ़, १८२९ में भारत आया तभी से जाति का कटु-निंदक था। उसे चिन्ता बनी रहती थी, कि उस की ईसाई पाठ-शालाओ में आने वाले छात्र केवल नी़ची जातियोंके ही क्यों आते है? (यह “नीची जाति” उन्हीं का शब्द है।) वह कहा करता, कि,”मूर्ति-पूजा और अंध-विश्वास, इस महाकाय (हिन्दू) समाज के ढाँचे के, ईंट और पत्थर है; और जाति है, इस ढांचे को जोडकर रखनेवाला सिमेन्ट।” {वाह! फिर से पढें।}, पर उसी के प्रस्तावित करने के कारण, १८५० की, मद्रास मिशनरी कान्फ़रेन्स ने, अपने (रपट) वृत्तान्त में लिखा था, कि “यह जाति ही, इसाइयत के दिव्य संदेश (Gospel) को, भारत में, फैलाने में सबसे बड़ी बाधा है।” आगे कहा था, “यह जाति कहांसे आयी, पता नहीं, पर अब हिन्दु धर्मका अंग बन चुकी है।”( page 131)। ऐसे, जाति बुरी मानी गयी मतांतरण के लिए। पर हमारे लिए तो वो एक गढ था, जो ढह नहीं रहा था।

(नौ) मिशनरी डब्ल्यु. बी. एड्डीस ई. १८५२

(पृष्ठ ४२- डब्ल्यु. बी. एड्डीस का, चर्च बोर्ड को पत्र, जनवरी. ६ १८५२)

हरेक मिशनरी के सैंकडों अनुभव थे,जिसमें धर्मांतरण संभवनीय लगता था, जब तक जाति का हस्तक्षेप नहीं होता था: उसके शब्द —“जाति ऐसी बुराई है, जो कभी कभी, दीर्घ काल तक सुप्त पड़ी होती है, पर समय आते ही सचेत हो जाती है, जब व्यक्ति उसके सम्पर्क में आ जाता है, या कुटुंब या अन्य परिस्थितियां इसका कारण बन जाती है।”

“… जैसे कोई, ईसाइयत स्वीकार करने का समाचा फैलता है, तो उस व्यक्तिके परिवार वाले या मित्र जाकर जाति को बुला लाते हैं। जाति के आतेही, जाति के बाहर फेंके जाने के डर से धर्मान्तरण रूक जाता है।” सारा किया कराया प्रयास विफल हो जाता है।

(दस) झायगनबाल्ग

पण्डितों से २२ बार वादविवाद करके झायगनबाल्ग नामका पुर्तगाली मिशनरी हार गया था।अंत में पण्डितों के तर्कशक्ति का ही गुणगान कर उनकी श्रेष्ठता स्वीकार कर गया था।तब से मिशनरी गठ्ठन बाँध चुके हैं, कि भारत में शिक्षितों का धर्मान्तरण असंभव है। अनपढ़, अज्ञानियों निर्धन, असहाय का धर्मान्तरण ही प्रलोभनों के आधारपर संभव होगा। इसलिए निर्धन, अनपढ, असहाय, वनवासी इत्यादि प्रजाजनों को प्रलोभनों के बलपर ही, जीता जा सकता है, हिंदू धर्म की तार्किक और ज्ञानमार्गी आधार-शिला को किंचित भी धक्का देकर खिसकाया नहीं जा सकता और जान भी गए हैं कि जब तक जातियां रहेंगी इसाइयत का प्रचार नहीं किया जा सकता।

( ग्यारह ) मिशनरी ड्युबोइस

ड्युबोइस का उद्धरण: जाति-व्यवस्था की प्रतिभा और नीति नियमोंने ही, भारत को उसी के अपने धार्मिक मंदिरों की दीवालों पर की(खजुराहो, कोणार्क इत्यादि) स्वैराचारी और स्वच्छंदी शिल्पकला के कुपरिणामोंसे भी बहुतांश में बचाकर सुरक्षित रखा है। भारत जाति प्रथा से लिप्त होनेसे ही, इस प्रतिभाशाली प्रथा ने भारत की परदेशी प्रभावों से भी रक्षा की है। ड्युबोइस आगे पृष्ठ २५ पर कहता है।”जिसकी, रूढियां नियम, आदि बिल्कुल अलग थे; ऐसे परकीय धर्म के आक्रमण तलेसे हिंदू अनेक बार,गुज़रे हैं, पर,रूढि में बदलाव लाने के सारे परकीय प्रयास विफल हुए हैं।ऐसा परकीय वास्तव्य भारतीय परंपराओं पर विशेष प्रभाव नहीं छोड पाया है। सबसे पहले और सबसे अधिक जातिव्यवस्था ने ही उसकी रक्षा की थी। जाति व्यवस्थाने ही हिंदुओं को बर्बरता में गिरनेसे बचाया था, पर यही कारण है, कि इसाई मिशनरी भी उनके धर्मांतरण के काम में सफल होने की संभावना नहीं है।

(बारह ) जाति -संस्था सनातनता का प्रबल घटक

जाति संस्था ने एक बांध की भाँति अडिगता से, खड़ा होकर, हमारे राष्ट्रीय समाज के धर्मान्तरण को, प्रवाह में बहकर, बाहर बह जाने से रोका था। ऐसे हमारी जाति-संस्थानें, धर्म और संस्कृति की रक्षा की है, हिंदू समाज के धर्मांतरण को रोका था। जाति संस्था हमारी सनातनता का एक प्रबल घटक है। हिंदू समाज के हितैषियों को स्पष्ट रूपसे इनका पता चले, इस उद्देश्य से,आलेख सोच समझ कर लिखा है।

(तेरह) जाति संस्था का दोष

इस संसार में, कोई भी परम्परा शत प्रतिशत दोषरहित नहीं होती। जाति संस्था का दोष है, जाति के आधारपर भेदभाव करना। पर ऐसे भेदभाव का मूल लोगों की मानसिकता में ही होता है। इस लिए उस मूलको ही उखाडने का प्रयास हमारा होना चाहिए। मानसिकता यदि ना बदली तो और कोई अन्य कारण ढूंढ़कर भी भेदभाव होता ही रहेगा। दूसरा जातियाँ विशेष आचार और विशेष आहार, व्यवहार की विविधता पर भी अधिष्ठित है। उसमें विविधता है, पर भेदभाव अभिप्रेत नहीं है। ऐसा हमारा समाज जाति के और अन्य परस्पर संबंधों के ताने बाने से अस्तित्व में बना रहता है। और संकट काल में सहकार, सहायता और लेन देन पर टिका रहता है। सामाजिक संबंधों के ताने बाने से अस्तित्व में बना रहता है। जितना सक्षम और सशक्त ऐसा ताना-बाना होगा, उतना सशक्त और सुदृढ समाज होगा।

(चौदह) स्वस्थ जाति व्यवस्था

स्वस्थ जाति व्यवस्था हमारी रक्षक थी। जाति शब्द का मूल ’ज्ञाति’ है, जिसकी एक व्याख्या है, ज्ञाताः परस्पराः स ज्ञाति॥ परस्पर एक दूसरे को जानने वाले, समुदाय का नाम है जाति। शिष्ट गुजराती में शब्द प्रयोग ’ज्ञाति’ ही होता है, जाति नहीं। जहां जातियां नहीं थी, जहां के हिन्दू बौद्ध बन चुके थे,और बौद्ध धर्ममें जातियां नहीं थी, इस लिए वहां,सरलता से धर्मांतरण हो गया। पूर्वी भारत में समाज बौद्ध धर्म में मतांतरित होने के कारण परस्पर सहायता पर निर्भर जातियाँ नहीं थीं। उसी प्रकार अफगानीस्थान में भी बौद्ध धर्म का वर्चस्व था, समाज जाति विहीन ही था। ऐसे प्रदेशों में आज उन बौद्धों का इस्लामी मत में मतान्तरण हुआ देखा जा सकता है। पर जहां हिंदू और उसकी जाति संस्था का अस्तित्व बचा था, वहां आज भी हिंदू टिका हुआ है। साथ उसकी उदार संस्कृति भी टिकी हुयी है। आठ शतकों के थपेड़ों ने उसे शिथिल बना दिया, अवश्य है; पर उसका यह टिका रहना कोई नगण्य, उपेक्षणीय उपलब्धि भी नहीं है। प्रबुद्ध पाठक विचार करें।