‘इतिहास- मिशनरियों के गुप्त पत्रों का’

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-डॉ. मधुसूदन-history

ॐ– मिशनरियों को मतांतरण में दारूण निराशा क्यों हाथ लगी?

ॐ– क्योंकि जाति-संस्था ने एक गढ़ की भांति मतान्तरण रोक रखा था।

ॐ– इसीलिए, जाति रूपी गढ तोड़कर इसाई मिशनरी हमारा मतान्तरण करना चाह्ते थे।

ॐ– इसलिए हमें भ्रमित कर जाति समाप्त करना उद्देश्य था, ताकि कन्वर्ज़न का धंधा सरल हो।

ॐ — स्वस्थ जाति-व्यवस्था हमारी रक्षक थी, भक्षक नहीं ?

ॐ– पूर्वी-भारत की (आज बंगला-देशी ) प्रजा, बौद्ध हुयी –जाति-हीन हुयी– तो इस्लामिक हो गयी।

ॐ– अफगानिस्तान भी पहले हिंदु से बौद्ध हुआ, तो जाति-विहीन हुआ, अतः इस्लाम मे मतांतरित हो गया।

ॐ– विवेकानंद, सावरकर, नेहरू, (तीनों का अलग अलग ऐसा ही कथन है।)

ॐ –“जाति-संस्था ही धर्मांतरण में, सब से बड़ा अवरोध है।” –इसाई मिशनरी ड्युबोइस

(एक) मिशनरीयों का नेता, रॉबर्ट काल्ड्वेल

“कास्ट्स ऑफ माइण्ड ” पुस्तक में, मिशनरीयों का नेता, रॉबर्ट काल्ड्वेल निराश हो कर पृष्ठ १३६ पर जो लिखता है; उसका भावानुवाद:

“देशी (भारतीय) सुसंस्कृत हो या असंस्कृत हो; ऊंची जातिका हो, या नीची जाति का ; सारा हिंदू समाज जाति के ताने-बाने से सुसंगठित है। और सारे समाज की मान्यताएं युगानुयुगों से, धर्म के ऐसे कड़े  संगठन से जाति जाति में -कुछ ऐसी बंधी होती है, कि, सारा हिंदू-समाज, बिलकुल नीचले स्तर तक, संगठित होता हैं। बस इसी कारण उसका इसाई मत में धर्मान्तरण बहुत कठिन होता है। ऐसी कठिनाइयां उन उद्धत जंगली अनपढ़ वनवासियों के धर्मान्तरण की अपेक्षा कई गुना अधिक होती है।

(दो) मिशनरियों के अनुभव

बार-बार मिशनरियों को भारत में इस प्रकार के अनुभव हुए थे। ये अनुभव उनके आपसी गुप्त पत्र व्यवहार के अंश थे, जो अब प्रकाश में आए हैं, पर वो भी परदेशी विद्वान के शोध से, पता चल रहें हैं। और ये अनुभव मिशनरियों की वार्षिक बैठकों के विवरण से लिए गए हैं। अब ’कास्ट्स ऑफ माइण्ड’ नामक पुस्तक जो कोलम्बिया युनिवर्सिटी के प्रो. निकोलस डर्क्स ने लिखी है, उस पुस्तक से ये जानकारी मिली है। विद्वान फ्रान्सीसी लेखक, लुई ड्युमोंट ने भी, फ्रेंच भाषा में ’होमो हायरार्किकस’ नामक पुस्तक लिखी थी। उसका भी अनुवाद अंग्रेज़ी में हुआ है जिसका आधार भी निकोलस डर्क्स लेता है। ऐसी दो पुस्तकें जब परदेश में लिखी गयी, वो भी भारत के विषय में, तो जिस भारत के लिए, इस विषय का विशेष महत्त्व है, उस भारत के विद्वान क्या कर रहे हैं?

(तीन) हमारे विद्वान क्या कर रहें हैं?

लगता है, कि, हमारे भारत में आज भी अंधेरा छाया है। किसी विद्वान ने इस विषय पर, ऐसी शोध आधारित पुस्तक नहीं लिखी। पर क्यों नही? मैं चिल्ला चिल्लाकर पूछना चाहता हूँ। क्या स्वतंत्रता मिलने पर भी कोई रुकावट थी? हमारी इस स्वतंत्रता से “स्व” कहां चला गया? कुछ विद्वान है अवश्य। पर हिंदी में लिखना नहीं चाहते, तो भारत इस इतिहास से अनजान ही रह जाता है। जिस भारत के लिए इन तथ्यों का सर्वाधिक महत्त्व है, उस भारत को कौन बताएगा? क्या अंग्रेज़ी में उसे बताओगे?

(चार) मिशनरियों को असफलता क्यों मिली?

जैसे कोई मिशनरी कड़ा परिश्रम कर किसी देशी को ईसाइयत की महिमा समझा देता और धर्मान्तरण के लिए वह देशी सम्मत हो जाता। और फिर जैसे, बड़े उत्साह से उसके मतांतरण की विधि सम्पन्न हो रही होती कि कहीं से उसकी जाति के मुखिया लोग टपक पड़ते, या कोई चुपके से दौड़कर उन्हें बुला लाता’ और मिशनरियों के किए कराए पर पानी फेर देता; और कन्वर्ज़न रूक जाता। उस बेचारे (?) मिशनरी का अथाह परिश्रम, क्षण भर में मट्टी में मिल जाता। ऐसा मिशनरियों के अनुभवों का सार है। अत्तर छिड़क-छिड़क कर कागज़ के फूल को, इस अमृतस्य पुत्रों के नन्दनवन में बेचने निकला मिशनरी जब असफल होता, तो अपनी असफलता का ठीकरा जाति व्यवस्था पर ही प्रहार कर फोड़ता।आंगन ही टेढ़ा हो जाता। जाति के आधार पर भेदभाव करना अवश्य गलत है; पर, आज जाति संस्था का विश्लेषण करने का उद्देश्य नहीं है। हमारे स्वर्ण रूपी जाति को पीतल बताकर हमें मतिभ्रमित करने में और उस स्वर्ण के प्रति घृणा उपजाने में, ये ढकोसले परदेशी पादरी सफल हुए कैसे? क्या हम इतने बुद्धु थे?

(पाँच) मिशनरियों का गुप्त पत्र व्यवहार

सामान्य रीति से ’जाति-संस्था’ को हिंदू समाज का एक अनिच्छनीय अंग माना जाता है। और साधारण सुधारक-वृत्ति के पढे लिखे जानकार भी, इस जाति-संस्था की ओर हेय दृष्टिसे ही देखा करते हैं। कुछ लज्जा का अनुभव भी होता है, जब कोई परदेशी हमारी इस संस्था की ओर अंगुलि-निर्देश करता है। हमें नीचा दिखाने के हेतुसे ही इस विषय को छेड़ा जाता हुआ भी अनुभव होता है। क्या ऐसी जाति संस्था का कोई सकारात्मक योगदान भी है?

(छः) ऐतिहासिक सच्चाइयां

ऐसी जाति संस्था के विषय में कुछ ऐतिहासिक सच्चाइयां बाहर लाने के विचार से यह आलेख बनाया गया है। विगत डेढ़-दो सौ वर्षों के अंग्रेज़ शासनकाल में भारत के राष्ट्रीय समाज पर अनगिनत प्रहार हुए थे। जब शासन ही अंग्रेज़ी इसाइयोंका था, सारी शासकीय निष्ठाएँ भी उन के पक्षमें ही थीं,यंत्रणाएँ भी उन्हीं की थी। भौतिक सुविधाओं का, और धनका प्रलोभन भी था। पर ऐसे विपरित संकट-काल में भी, हमें हमारी जाति संस्था की प्रतिभाने ही बचाया था, यह ऐतिहासिक सच्चाई बहुतों को पता नहीं होगी। यह सत्य मिशनरियों ने तो छिपाया था। वे चाहते तो थे ही, कि सारे हिंदू समाज के मतांतरण के लिए, जाति समाप्त होनी चाहिए; जो हिंदू समाज के लिए,एक गढ का काम करती थी। इसी उद्देश्य से हमें बुद्धिभ्रमित किया गया, और हम जाति-प्रथा को लेकर लज्जा अनुभव करने लगे।

(सात) जाति तोड़ो, धर्मांतरण के लिए

इसपर एक उपचार के रूप में, मिशनरियों का कहना था, कि “शासन ने, जाति पर प्रखर हमला बोल कर,कुचल देने का समय आ गया है।”.. मिशनरी शिकायत करते ही रहते थे, कि “जाति धर्मान्तरण के काम में सबसे बड़ी बाधा है और जाति से बाहर फेंके जाने का भय धर्मान्तरण में सबसे बड़ा रोड़ा है।”… “कुछ मिशनरियों ने अन्य तर्क भी दिए थे पर सभी ने एक स्वर में जातियों को बलपूर्वक तोड़ देने का परामर्श दिया था; धर्मांतरण सरल बनाने के लिए। पर शासकों को यह, (पादरियों का ) विवेचन ही, १८५७ के बलवे (विप्लव) का कारण लगने लगा था। बहुत सारे मिशनरियों ने, इस स्वर्ण अवसर का लाभ उठाने की दृष्टि से लिखा था, कि- “भारतपर ईसाइयत बलपूर्वक लादी जानी चाहिए, इस “विद्रोह के रोग” के उपचार के लिए, ना कि दंड (सज़ा)के लिए। {दया वान जो ठहरे ! वे शासनको भी उकसाने में लगे हुए थे।-लेखक }

(आठ) मिशनरी पाठ्यक्रम का रचयिता

मिशनरी पाठ्य क्रम का रचयिता, मिशनरी अलेक्ज़ान्डर डफ़, १८२९ में भारत आया तभी से जाति का कटु-निंदक था। उसे चिन्ता बनी रहती थी, कि उस की ईसाई पाठ-शालाओ में आने वाले छात्र केवल नी़ची जातियोंके ही क्यों आते है? (यह “नीची जाति” उन्हीं का शब्द है।) वह कहा करता, कि,”मूर्ति-पूजा और अंध-विश्वास, इस महाकाय (हिन्दू) समाज के ढाँचे के, ईंट और पत्थर है; और जाति है, इस ढांचे को जोडकर रखनेवाला सिमेन्ट।” {वाह! फिर से पढें।}, पर उसी के प्रस्तावित करने के कारण, १८५० की, मद्रास मिशनरी कान्फ़रेन्स ने, अपने (रपट) वृत्तान्त में लिखा था, कि “यह जाति ही, इसाइयत के दिव्य संदेश (Gospel) को, भारत में, फैलाने में सबसे बड़ी बाधा है।” आगे कहा था, “यह जाति कहांसे आयी, पता नहीं, पर अब हिन्दु धर्मका अंग बन चुकी है।”( page 131)। ऐसे, जाति बुरी मानी गयी मतांतरण के लिए। पर हमारे लिए तो वो एक गढ था, जो ढह नहीं रहा था।

(नौ) मिशनरी डब्ल्यु. बी. एड्डीस ई. १८५२

(पृष्ठ ४२- डब्ल्यु. बी. एड्डीस का, चर्च बोर्ड को पत्र, जनवरी. ६ १८५२)

हरेक मिशनरी के सैंकडों अनुभव थे,जिसमें धर्मांतरण संभवनीय लगता था, जब तक जाति का हस्तक्षेप नहीं होता था: उसके शब्द —“जाति ऐसी बुराई है, जो कभी कभी, दीर्घ काल तक सुप्त पड़ी होती है, पर समय आते ही सचेत हो जाती है, जब व्यक्ति उसके सम्पर्क में आ जाता है, या कुटुंब या अन्य परिस्थितियां इसका कारण बन जाती है।”

“… जैसे कोई, ईसाइयत स्वीकार करने का समाचा फैलता है, तो उस व्यक्तिके परिवार वाले या मित्र जाकर जाति को बुला लाते हैं। जाति के आतेही, जाति के बाहर फेंके जाने के डर से धर्मान्तरण रूक जाता है।” सारा किया कराया प्रयास विफल हो जाता है।

(दस) झायगनबाल्ग

पण्डितों से २२ बार वादविवाद करके झायगनबाल्ग नामका पुर्तगाली मिशनरी हार गया था।अंत में पण्डितों के तर्कशक्ति का ही गुणगान कर उनकी श्रेष्ठता स्वीकार कर गया था।तब से मिशनरी गठ्ठन बाँध चुके हैं, कि भारत में शिक्षितों का धर्मान्तरण असंभव है। अनपढ़, अज्ञानियों निर्धन, असहाय का धर्मान्तरण ही प्रलोभनों के आधारपर संभव होगा। इसलिए निर्धन, अनपढ, असहाय, वनवासी इत्यादि प्रजाजनों को प्रलोभनों के बलपर ही, जीता जा सकता है, हिंदू धर्म की तार्किक और ज्ञानमार्गी आधार-शिला को किंचित भी धक्का देकर खिसकाया नहीं जा सकता और जान भी गए हैं कि जब तक जातियां रहेंगी इसाइयत का प्रचार नहीं किया जा सकता।

( ग्यारह ) मिशनरी ड्युबोइस

ड्युबोइस का उद्धरण: जाति-व्यवस्था की प्रतिभा और नीति नियमोंने ही, भारत को उसी के अपने धार्मिक मंदिरों की दीवालों पर की(खजुराहो, कोणार्क इत्यादि) स्वैराचारी और स्वच्छंदी शिल्पकला के कुपरिणामोंसे भी बहुतांश में बचाकर सुरक्षित रखा है। भारत जाति प्रथा से लिप्त होनेसे ही, इस प्रतिभाशाली प्रथा ने भारत की परदेशी प्रभावों से भी रक्षा की है। ड्युबोइस आगे पृष्ठ २५ पर कहता है।”जिसकी, रूढियां नियम, आदि बिल्कुल अलग थे; ऐसे परकीय धर्म के आक्रमण तलेसे हिंदू अनेक बार,गुज़रे हैं, पर,रूढि में बदलाव लाने के सारे परकीय प्रयास विफल हुए हैं।ऐसा परकीय वास्तव्य भारतीय परंपराओं पर विशेष प्रभाव नहीं छोड पाया है। सबसे पहले और सबसे अधिक जातिव्यवस्था ने ही उसकी रक्षा की थी। जाति व्यवस्थाने ही हिंदुओं को बर्बरता में गिरनेसे बचाया था, पर यही कारण है, कि इसाई मिशनरी भी उनके धर्मांतरण के काम में सफल होने की संभावना नहीं है।

(बारह ) जाति -संस्था सनातनता का प्रबल घटक

जाति संस्था ने एक बांध की भाँति अडिगता से, खड़ा होकर, हमारे राष्ट्रीय समाज के धर्मान्तरण को, प्रवाह में बहकर, बाहर बह जाने से रोका था। ऐसे हमारी जाति-संस्थानें, धर्म और संस्कृति की रक्षा की है, हिंदू समाज के धर्मांतरण को रोका था। जाति संस्था हमारी सनातनता का एक प्रबल घटक है। हिंदू समाज के हितैषियों को स्पष्ट रूपसे इनका पता चले, इस उद्देश्य से,आलेख सोच समझ कर लिखा है।

(तेरह) जाति संस्था का दोष

इस संसार में, कोई भी परम्परा शत प्रतिशत दोषरहित नहीं होती। जाति संस्था का दोष है, जाति के आधारपर भेदभाव करना। पर ऐसे भेदभाव का मूल लोगों की मानसिकता में ही होता है। इस लिए उस मूलको ही उखाडने का प्रयास हमारा होना चाहिए। मानसिकता यदि ना बदली तो और कोई अन्य कारण ढूंढ़कर भी भेदभाव होता ही रहेगा। दूसरा जातियाँ विशेष आचार और विशेष आहार, व्यवहार की विविधता पर भी अधिष्ठित है। उसमें विविधता है, पर भेदभाव अभिप्रेत नहीं है। ऐसा हमारा समाज जाति के और अन्य परस्पर संबंधों के ताने बाने से अस्तित्व में बना रहता है। और संकट काल में सहकार, सहायता और लेन देन पर टिका रहता है। सामाजिक संबंधों के ताने बाने से अस्तित्व में बना रहता है। जितना सक्षम और सशक्त ऐसा ताना-बाना होगा, उतना सशक्त और सुदृढ समाज होगा।

(चौदह) स्वस्थ जाति व्यवस्था

स्वस्थ जाति व्यवस्था हमारी रक्षक थी। जाति शब्द का मूल ’ज्ञाति’ है, जिसकी एक व्याख्या है, ज्ञाताः परस्पराः स ज्ञाति॥ परस्पर एक दूसरे को जानने वाले, समुदाय का नाम है जाति। शिष्ट गुजराती में शब्द प्रयोग ’ज्ञाति’ ही होता है, जाति नहीं। जहां जातियां नहीं थी, जहां के हिन्दू बौद्ध बन चुके थे,और बौद्ध धर्ममें जातियां नहीं थी, इस लिए वहां,सरलता से धर्मांतरण हो गया। पूर्वी भारत में समाज बौद्ध धर्म में मतांतरित होने के कारण परस्पर सहायता पर निर्भर जातियाँ नहीं थीं। उसी प्रकार अफगानीस्थान में भी बौद्ध धर्म का वर्चस्व था, समाज जाति विहीन ही था। ऐसे प्रदेशों में आज उन बौद्धों का इस्लामी मत में मतान्तरण हुआ देखा जा सकता है। पर जहां हिंदू और उसकी जाति संस्था का अस्तित्व बचा था, वहां आज भी हिंदू टिका हुआ है। साथ उसकी उदार संस्कृति भी टिकी हुयी है। आठ शतकों के थपेड़ों ने उसे शिथिल बना दिया, अवश्य है; पर उसका यह टिका रहना कोई नगण्य, उपेक्षणीय उपलब्धि भी नहीं है। प्रबुद्ध पाठक विचार करें।

14 COMMENTS

  1. अब बात कुछ कुछ समझ में आ रही है । यदि भारतीय समाज को एक माला माना जाए, तो इस माला को बनाने वाले हमारे ऋषिओं मुनिओं ने मनुष्यों को पुष्प के रूप में माला में योजित करने की बजाय जाती रूपी पुष्प योजित किये । और जाति-पुष्प का निर्माण कुछ इस प्रकार किया कि उन्हें समाज-माला तोड पाना अत्यन्त कठिन हो जाये । यानि कि समान व्यवहार एवं मान्यताओं वाले मनुष्यों को ही एक पुष्प में एक साथ योजित किया गया । एक अकेली लकडी को तोड पाना सरल, और लकडियों के एक साथ बन्धे हुए गट्ठर को तोड पाना कठिन होता है न ! सङ्गठन में शक्ति है !

    बहुत बहुत धन्यवाद, मान्यवर मधुसूदन जी, इस तथ्य पर प्रकाश डालने के लिए ।

  2. नेपाल के माओवादियों को लोग चीन द्वारा संचालित समझते रहे है. लेकिन सच्चाई यह है की वह पश्चिमी मुलको एवं चर्च की नीतियों पर काम करता है. नेपाल के माओवदियो ने भी जातीय घुलामिलिकरण की निति घोषित की थी. अब उसका कारण स्पष्ट हो रहा है.

  3. जाती व्यवस्था की कई अच्छाईया है. यह बात कई बार मेरे अनुभव में आई. लेकिन पहली बार किसी विद्वान ने इस विषय पर लिखा है. बहुत अच्छा है. हम किसी अच्छी चीज को इसलिए त्याग दे की किसी ने प्रचार कर दिया की वह गलत है तो ठीक नहीं होगा. जाती प्रथा से सम्बन्धित कुछ विसंगतियो को समझना और युतिपुर्वाक उन्हें दूर करना भी नितांत आवश्यक है.

    • सही कहा, आपने हिमवंत जी।
      बहुत बहुत धन्यवाद।
      और भी गहरा विचार करने पर पाता हूँ, कि, और भी कुछ प्रथाएं हमारे सनातनत्व को परिपुष्ट कर रही हैं।उसमें से एक, वर्ण व्यवस्था जिसका विस्तरित स्वरूप हमारी जाति व्यवस्था है, वही हमारे सनातनत्व के (बहुत सारे )अनेक घटकोंमें, का एक महत्व पूर्ण घटक है।
      कभी विस्तार से आलेख डालने का प्रयास करूंगा।
      जहाँ जनता बौद्ध धर्म स्वीकृति के कारण जातियोंका अंत हो चुका था, वहाँ ही मतांतरण हो गया था; जैसे, आजका बंगलादेश और अफगानीस्तान दोनों स्थानों पर बौद्ध विहार (हमारा बिहार भी) और बौद्धधर्मियों की बहुसंख्या के कारण प्रचण्ड बदलाव आ चुके हैं। वहाँ परस्पर सहायता के लिए जातियाँ समाप्त हो चुकी थीं। परिणाम आज सामने हैं। जातिभेद गलत है, पर जाति-व्यवस्था का स्वागत हो।

  4. It is appreciated that the issue has been raked up for the dissemination of truth among the ALIK (false) Hindus who have fallen easy victim to the fallacious and malicious propaganda of the missionaries and their henchmen.
    Dr N.R. Sengupta the renowned physician of India from Calcutta, a veritable saint and an erudite scholar of History earlier stated that -After the advent of the Prophet Mohammad Islamic forces swept over a large part of the World to establish Islam but took more than 400 years to intrude and establish on the Indian soil. All their earlier efforts were thwarted right at Sind and the western frontier regions only because of the strong institution of Varna Vyavastha and segregation. Hindus so far, were reluctant to get their daughters and sisters married to the conquerers , in spite of their prowess and wealth, and would actually maintain respectable distance and segregation ( for their Aachaar and Vichar) unlike in any other country where they were embraced with open arms and widely accepted.
    With the spread of Buddhism the tenets of Varnashramachaar were shaken and the situation continued for long years till Adi Shankara defeated the Buddhists by His logic, erudition tapasya (tapasya ) and vast spiritual powers to induce complete reversal back to Sanatan Vedic Dharma and Anushashana through out India. Only two parts of India the western part of Sind and the eastern part of Bengal continued to remain adhered to Buddhism, and even Tirthankars were sent from Bengal to propagate Buddism in Sri Lanka. This was the cause of loosened state of Varnanushashan in these two regions and finally gave way to Islam when there was an intrusion of Islamic influence. the local name of Moslems in East Bengal where the conversion to Islam was much more than in Eastern part of Bengal is Nerhe 9 in colloquial Bengali language), meaning with shaved head (the buddhists used to remain shaved head). But the Western part of Sindh and Eastern part of Bengal experienced significantly low rate of conversion.
    The very basis of God’s creation is – that every being in this world is the living embodiment of Sri Hari ( the Lord Almighty) and should be saluted respectfully. But due to the influence of Maayaa (the law of contradiction with 3 Gunas) i.e due to the influence of Gunas- Satwa, Raja and Tamaheach individuals should be treated according to his Jati or Varna. See all beings as equal but behave in a manner as per his position , his birth, knowledge, and devotion etc. Sama darshan is a must but Sama vyavahaar-not.. Mother, daughter,wife, wife of another person are all the image of the Divine mother but each of them should be treated differently in keeping with the Anushashan i.e. rules layed down by the Shastras. Here comes in the consideration of Sanga i.e. influence of association which should be accorded due importance and application in the society for the preservation of purity and humanity
    This ancient knowledge in our Shastras also leads to perfect understanding of Unity in Diversity ( Sarvam Khalwidam Brahma) and Diversity in Unity. May TRUTH reign supreme.

    • डॉ. शिव नारायण सेन जी—सादर नमस्कार।
      और बहुत बहुत धन्यवाद। आप ने मौलिक सच्चाइयाँ प्रस्तुत कर, इस लेखक को भी अनुग्रहित किया। आप से सम्पर्क रखना चाहता हूँ। वैचारिक पुष्टि के लिए हर्षित हूँ।

      विशेष: आप सहमत होंगे, कि, आज समाज को आपके विचारों की कडी आवश्यकता है; उसे भ्रमित विचारों से मुक्त करने के लिए। प्रवक्ता पर दर्शन देते रहें। अनुग्रहित करें। अलग आलेख भी डाल सकते हैं, मैं ऐसा अनुरोध करता हूँ। कृपा होगी।
      आप की टिप्पणी से भी हर्षित हूँ।
      कृपांकित—मधुसूदन

  5. सभी प्रबुद्ध पाठक डॉ. शर्मा, डॉ. घाटे, श्री. शुक्ल और श्री. गुप्ता जी।
    आप ने समय देकर आलेख पढा, मूल्यवान सुझाव दिए, और कुछ बिंदुओं पर प्रकाश फेंका, इस लिए सभीका मैं ऋणी हूँ, हृदय तल से धन्यवाद करता हूँ।
    (१)इस आलेख में जिस दृष्टि से मिशनरियों ने जाति की संगठित सामर्थ्य का अभेद्य गढ जैसा अनुभव किया था, उस को उजागर करने का उद्देश्य था। और मैं केवल उस गतिविधि का मेरा भाष्य प्रस्तुत कर रहा था।
    (२) निकोलस डर्क्स और लुइ ड्युमोंट –इन दो विद्वानों ने दो और दृष्टिकोणों से (क)हमारी संहिता का, और (ख) हमारी कृण्वन्तो विश्वं आर्यं की प्रक्रिया का अवलोकन किया है, समीक्षा की है।
    जिसे जानकर मैं स्वयं अत्यन्त चकित हूँ; किसी प्रकार की हीनता नहीं, उलटे गौरवान्वित -रोमांचित अनुभव कर रहा हूँ- आज खोखली नम्रता; नहीं दिखाउंगा। समय मिलते ही दो आलेख बनाने का विचार है।
    बंधुओं, कुछ तो अवश्य है, कि ब्राह्म मुहूर्त के ७२ मिनटों में ही अनुभव करता हूँ, कि, ऐसे बीजरूपी विचार आ कर मस्तिष्क में मँडराते रहते हैं।
    ॥आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः॥

  6. वास्तव में १८३५ में लागू की गयी मेकाले की शिक्षा नीति का उद्देश्य ही यही था कि भारतीयों में अपने धर्म, आस्थाओं और समाज व्यवस्था के प्रति जो लगाव है वह समाप्त हो जाये.उसने अपने पिता को पत्र भी लिखा था कि मैंने ऐसा काम कर दिया है कि बीस वर्ष बाद भारत के लोग शक्ल सूरत में भारतीय होंगे लेकिन सोच और विचार से पूरी तरह काले अँगरेज़ होंगे.और जब बीस वर्ष बाद काफी संख्या में ‘काले अँगरेज़’ तैयार हो गए तो आई.सी.एस. के दरवाज़े भारतीयों के लिए खोल दिए गए.इन्ही काले अंग्रेजों ने देश के स्व को नष्ट करने में सबसे अधिक योगदान किया.आज़ादी के बाद जिन लोगों के हाथों में भारत की बागडोर आई संयोग से वो भी काले अंग्रेज ही थे.और अंग्रेजों के मानस पुत्र थे.आज़ादी के बाद से देश को अपनी गौरवशाली परम्पराओं का स्मरण कराकर पुनः एक मजबूत स्व-तंत्र का विकास करा सकने वाला शासन स्थापित ही नहीं हुआ.जिसके लिए शायद एक नए स्वतंत्रता संग्राम की आवश्यकता होगी.

  7. आदरणीय डा. साहब,

    सादर प्रणाम,

    लेख के शुरुआत में मैं बड़ा ही परेशान हुआ की जिस जाती प्रथा को लेकर मेरी सोंच ये थी की ये अंग्रेजों द्वारा हमारी शिक्षा व्यवस्था में लायी गयी और असल में वेदों में वर्ण व्यवस्था का वर्णन मिलता है जो की हमारे कर्मों पर आधारित हुआ करती है और अब जाति वाद सही कैसे हो गया ? परन्तु लेख के अंत में जब जाती शब्द का अर्थ पढ़ा तो सारा संदेह और संशय दूर हो गया | ये बात सही है की भारत में सनातन धर्म को मानने वाले अलग अलग भौगोलिक परिस्थितियों में रहने के कारण अलग अलग परम्पराओं का निर्वहन करते रहे है और इस वजह से अलग अलग समूहों ने ही अंत में जातियों का स्वरुप ले लिया पर ये स्वरुप हमारे अस्तित्व को बनाये रखने में मददगार था ये जानकारी इसी लेख के द्वारा मिली है | इस बात ने तो मेरे मन में अपने राष्ट्र और इसकी परम्पराओं और विविधताओं के प्रति सम्मान और गौरव की भावना को और अधिक बढ़ा दिया है | ऐसे ज्ञान के लिए भारतीय सदा आपके ऋणी रहेंगे |

  8. डॉ. मधुभाई झवेरी इन्होने बहुत कुशलतासे यह लेख लिखकर वर्णाश्रम ओर जति-जति के बारे मे जो गलत समझ था उस का निर्मूलन करनेको बहुत सहायता की है.
    इस लिये मै उनका अति आभारी हू. आप ही पढकर निर्णय लीजिये.

  9. Thank you for your enlightening article. This needs to be further researched and must be produced in a small book form. The book must be translated in all Bharatya languages as wll as in English. Further to this this must be available at a very reasonable cost. In this age I hope it should be made available as ebook.
    I have put too much on your plate but awareness in the Hindus is needed more than ever before because Hindus are decreasing in number if you take the census of last 60 years. If you take the census of last 110 years taking the whole Indian subcontinent then we Hindus are the greatest losers because all Muslims and Christians in the subcontinent would have been Hindus.
    Buddhism weakened the Hindu society and led to foreign Muslim invaders enter through Sindh if care to read the story of Raja Dhir how he got defeated due to Buddhisttraitors helping Mohammad bin Kasim in 712A.D. and rest is a shameful history for Hindus which kept us under foreign and minority rule fist under Islam and then under Christians from Portugal, Denmark, France and UNITED KINGDOM and at present under Italian Christian with the help of opportunists .
    Ignorance is sin and Hindus are too ignorant and have no leader so ship without the captain cannot reach to a desired destination. Jaya Hind.

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