किश्तवाड दंगे का दूसरा सरकारी अध्याय/सज्जाद अहमद किचलू की बहाली

डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

सुनियोजित दंगों में दो चीज़ें बहुत ही ज़रुरी होती हैं । पहला दंगे का उद्देश्य और दूसरा उस उद्देश्य को प्राप्त करने का तरीक़ा । 9 अगस्त २०१३ को ईद के दिन किश्तवाड में हुये दंगों को इसी पृष्ठभूमि में समझना होगा । उस दंगे में हिन्दुओं का जान माल का बहुत नुक़सान हुआ था । प्रश्न है कि इस दंगे का मक़सद क्या था । दंगा करवाने वालों ने और उसकी योजना तैयार करने वालों ने किस मक़सद से यह दंगा करवाया था ? इसके लिये पुराने डोडा ज़िले की भौगोलिक और जनसांखियकी स्थिति को समझना होगा । वर्तमान में इस पुराने डोडा ज़िले में डोडा , रामबन और किश्तवाड ज़िले आते हैं । यह सारा इलाक़ा जम्मू संभाग के अन्त में आता है और इसके दूसरी ओर पीर पंचाल पर्वत श्रृंखला पार करते ही कश्मीर घाटी शुरु हो जाती है । कश्मीर घाटी में जब मुस्लिम आक्रान्ताओं के ज़ुल्म बढ़ते थे तो बहुत से कश्मीरी पीर पंचाल पार कर , इस डुग्गर क्षेत्र में शरण ले लेते थे । यही कारण है कि इन तीन जिलों में कश्मीरी भाषा बोलने वालों की संख्या बहुत ज़्यादा है । यह अलग बात है कि ये कश्मीरी भी कालान्तर में इस्लाम में मतान्तरित हो गये ।

अब जब आतंकवादियों ने कश्मीर घाटी को दारूल हरब से दारूल इस्लाम बनाने का अभियान शुरु किया तो घाटी से हिन्दु सिक्खों को निकालना इस आन्दोलन की पहली और आख़िरी शर्त थी । उसके लिये घाटी में दंगा करने की ज़रुरत नहीं पड़ी । बक़ौल तसलीमा नसरीन दंगा तब होता है , जब दो अलग अलग मज़हबों को मानने वाले आपस में लड़ते हैं और उस में दोनों को ही क्षति होती है । कश्मीर घाटी में दंगा होने का प्रश्न ही नहीं था । वहाँ सीधा सीधा नरसंहार हुआ । जिसमें एक हज़ार के लगभग हिन्दू सिक्खों को सार्वजनिक रुप से मौत के घाट उतार दिया गया । उसके बाद कश्मीर घाटी में से चार लाख के लगभग हिन्दु अपना घर बार छोड़कर देश के अन्य हिस्सों में शरणार्थी बन कर चले गये । राज्य सरकार ने इस महानिष्कासन में सहायक की भूमिका निभाई और केन्द्र सरकार शायद इस नरसंहार को भी अनुच्छेद ३७० के तहत राज्य सरकार का संरक्षित विषय मान कर चुप रही । घाटी में दारुल इस्लाम की दिशा में क्रियान्वित की गई इस योजना की सफलता से उत्साहित होकर मुसलमानों ने अब योजना के दूसरे चरण पर कार्य शुरु किया ।

इस योजना के दो हिस्से थे । घाटी में तो इस योजना का दूसरा चरण प्रारम्भ होना था और रामबन , किश्तवाड इत्यादि में पहला चरण । घाटी में दूसरे चरण के तहत वहाँ से शिया समाज और गुज्जर समाज को भगाना था । इसके लिये बडगाम व श्रीनगर में शिया समाज पर आक्रमण होने लगे । लेकिन डोडा , रामबन और किश्तवाड से पहले चरण में हिन्दुओं को ही निकालना था । किश्तवाड में नौ अगस्त २०१३ को दंगा हुआ । व्यावहारिक दृष्टि से इसे दंगा न कह कर हिन्दुओं पर सुनियोजित प्रहार ही कहना चाहिये । उससे पहले रामबन जिला के गूल में मुसलमानों ने सीमा सुरक्षा बल के शिविर पर आक्रमण कर वहाँ अल्पसंख्यकों का मनोबल तोड़ने का प्रयास किया । किश्तवाड में हिन्दुयों पर प्रहार सुनियोजित था , इसमें कोई संशय ही नहीं है । राज्य सरकार के एक मंत्री सज्जाद अहमद किचलू , जो कश्मीरी मूल के हैं , वहाँ स्वयं उपस्थित थे । रामबन से लेकर किश्तबाड तक की इन सभी गतिविधियों का एक ही मक़सद था । भय एवं असुरक्षा का वातावरण पैदा करके , वहाँ से हिन्दुयों को , कश्मीर घाटी के हिन्दुओं की तरह, भागने के लिये विवश करना । इस लिये आक्रमणकारियों ने एक ओर तो अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर आक्रमण कर उन्हें भगाने का उपक्रम शुरु किया , दूसरी ओर घाटी के आतंकवादी संगठनों ने हल्ला मचाना शुरु कर दिया कि गाँवों में ग्राम सुरक्षा समितियों के हिन्दुओं से हथियार वापिस लिये जायें । गिलानी से लेकर जिलानी तक सब सक्रिय हुये । परिणाम ? जब आतंकवादी हमला करें तो हिन्दु उनका मुक़ाबला न कर सकें , क्योंकि ग्राम सुरक्षा समिति के जवानों ने इन्हीं हथियारों के बल पर राज्य में अनेक स्थानों पर आतंकवादियों को भागने के लिये विवश किया था । लेकिन किश्तवाड के इन दंगों में पहली बार राज्य सरकार अपनी दंगा सहायक नीति के कारण लोगों के निशाने पर आने लगी ।

ऐसे अवसर पर राज्य सरकार ने वही तरीक़ा अपनाया जो नया कश्मीर लिखते समय प्यारे लाल वेदी समझा गये थे । उन दिनों भी माओ कहा करते थे कि युद्ध जीतने के लिये छोटी लड़ाई हार जाना भी रणनीति का ही हिस्सा होता है । किश्तवाड के दंगे में सज्जाद अहमद किचलू की भूमिका फ़ोकस में आ चुकी थी । पूरे जम्मू संभाग , लद्दाख में तो लोग किचलू की कुचालों के खिलाफ सड़कों पर उतर आये थे , उधर कश्मीर में भी गुज्जर और शिया समाज दबी ज़बान में सज्जाद अहमद किचलू की किश्तवाड दंगों में भूमिका की चर्चा करने लगा था । नैशनल कान्फ्रेंस समझ गई थी अब उसे एक क़दम पीछे हटना ज़रुरी हो गया था । जम्मू के अधिकांश हिस्सों में सरकारी कामकाज ठप्प हो गया था । उमर अब्दुल्ला ने किचलू को मंत्रिमंडल से हटा दिया । दंगों के एक अध्याय का पटाक्षेप हुआ ।

लेकिन तब सोनिया कांग्रेस और नैशनल कान्फ्रेंस ने पर्दे के पीछे दंगों का दूसरा अध्याय लिखना शुरु किया । पहले अध्याय में तो अल्पसंख्यक समाज की जान माल की क्षति हुई थी , लेकिन इस दूसरे अध्याय में उन्हें ऐसा सबक़ सिखाने की तैयारी की जा रही थी , ताकि उनकी हिम्मत टूट जाये और वे इन इलाक़ों से अपना बोरियाँ विस्तार समेटना शुरु कर दें । लेकिन दंगों के इस दूसरे अध्याय के लिये , जो सरकारी स्तर पर खेला जाना था , उसके लिये एक ऐसे पात्र की तलाश थी , जो इस सरकारी दंगे में , उन के मनमाफिक भूमिका निभा सके । इतिहास गवाह है कि हर युग में , हर शासक को ऐसे पात्र आसानी से मिल ही जाते हैं । सोनिया कांग्रेस और नैशनल कान्फ्रेंस को भी इसमें दिक़्क़त नहीं हुई । यह सरकारी दंगा , पहले दंगे की जाँच के नाम पर करवाया जाने वाला था । उसके लिये एक अदद जाँच अधिकारी की तलाश थी । वह जाँच जम्मू के रिहाडी में रहने वाले रत्न चन्द गान्धी पर जाकर खत्म हुई । दंगों के इस दूसरे सरकारी अध्याय पर चर्चा करने से पहले रत्न चन्द गान्धी की जन्म पत्री बाँच लेना ज़रुरी है , क्योंकि जिस प्रकार दंगे के पहले अध्याय में सज्जाद अहमद किचलू की भूमिका को प्रमुख माना जा रहा था , उसी प्रकार इस अध्याय में इन्हीं की भूमिका प्रमुख रहने वाली है ।

रत्न चन्द ने १९७४ में पलीडर के रुप में अपना काम शुरु किया और १९८१ में जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय की बार कौंसिल में वक़ील के नाते अपना पंजीकरण करवाया । जनवरी १९९५ में इनको राज्य के उच्च न्यायालय में अतिरिक्त न्यायाधीश नियुक्त किया गया । उन दिनों राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू था और केन्द्र में कांग्रेस के नर सिम्हा राव प्रधानमंत्री थे । दो साल के बाद जनवरी १९९७ में इनको उच्च न्यायालय का स्थायी न्यायाधीश बना दिया गया । तब राज्य में भी फ़ारूक़ अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बन चुके थे । २००६ तक कार्य कर चुकने के बाद रत्न चन्द का तबादला राजस्थान उच्च न्यायालय में कर दिया गया । कुछ दिन तक वहाँ कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश भी रहे और जनवरी २०१० को वहीं से सेवा निवृत्त हो गये ।

लेकिन राजस्थान में रत्न चन्द ने जो गुल खिलाये , उसकी चर्चा जयपुर में आज भी इनके जाने के तीन साल बाद भी होती रहती है । प्रदेश के न्यायिक इतिहास में पहली बार हुआ कि उच्च न्यायालय के किसी पीठासीन न्यायाधीश पर भ्रष्ट आचारण और आर्थिक लाभ कमाने और पैसा लेकर नियुक्तियां करने के आरोप लगे हों । लेकिन रत्न चन्द पर ये सारे आरोप लगे । इतना ही नहीं , उन पर ये सारे आरोप और किसी ने नहीं बल्कि उच्च न्यायालय के वकीलों ने ही लगाये । आम तौर पर होता यह है कि यदि वकीलों को पता भी हो कि अमुक न्यायाधीश नाजायज़ पैसा कमाने के धन्धे में लगा हुआ है , तो वे विरोध करने के लिये प्राय सामाजिक संगठनों को ही आगे करते हैं , लेकिन रत्न चन्द के मामले में तो लगता है , पानी सर के ऊपर ही आ गया था । इसलिये वक़ील ख़ुद ही मैदान में आ डटे थे । वकीलों ने राज्य के मुख्य न्यायाधीश के आवास के सामने प्रदर्शन किया । उन्होंने मांग की कि रत्न चन्द की सम्पत्ति की जाँच सी बी आई से करवाई जाये । इतना ही नहीं उन्होंने यह भी मांग की कि रत्न चन्द ने पिछले दो सालों में जो निर्णय किये हैं , उन सभी की पुर्नसमीक्षा करवाई जाये । राज्य में ज्यूडिशियल एसिसटैंट के पदों के लिये परीक्षा ली गई थी । अभी परीक्षा का परिणाम आया नहीं था कि रतन चन्द ने २१ ज्यूडिशियल एसिसटैंटों की तदर्थ आधार पर नियुक्ति कर दी । जब परीक्षा परिणाम आया तो वे फेल थे । लेकिन इसके बावजूद उनको पक्का कर दिया गया । यह तो रत्न चन्द का सौभाग्य माना जाना चाहिये कि जिन दिनों इनके इन चिट्ठों को लेकर राजस्थान के वक़ील सड़कों पर उतरे , उसके कुछ दिन बाद ही इनकी रिटायर होने की उम्र आ पहुँची । लेकिन राजस्थान में जब न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार की चर्चा होती है , तो रतन चन्द के नाम की चर्चा ज़रुर होती है ।

जनवरी २०१० में रिटायर होकर रतन चन्द जम्मू आ पहुँचे । जम्मू कश्मीर में तब तक सोनिया कांग्रेस की सहायता से जनाब उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हो चुके थे । राज्य में लोक सुरक्षा अधिनियम के तहत नज़रबन्द लोगों के केसों की समीक्षा करने के लिये सलाहकार बोर्ड के अनिवार्य गठन का प्रावधान है । इस बोर्ड के चेयरमैन अपनी उम्र के आठ दशक पूरे कर चुके थे । उनके स्थान पर नया चेयरमैन नियुक्त किया जाना था । राज्य का गृह मंत्रालय चार नामों पर माथापच्ची कर रहा था । लेकिन शायद उमर अब्दुल्ला रतन चन्द के राजस्थान के क़िस्सों से बहुत ज़्यादा प्रभावित हो चुके थे । न्यायपालिका में इस प्रकार की अनोखी क़ाबलियत वाले लोग बहुत कम मिलते हैं । शायद राज्य सरकार को इसी प्रकार के लोगों की तलाश थी । विधि विभाग ने रतन चन्द का नाम भी गृह मंत्रालय की फ़ायलों में चुपचाप खिसका दिया । वह तो भला हो मीडिया का कि खबर बाहर आ गई और रतन चन्द चेयरमैन बनते बनते रह गये । बन जाते तो २०१८ तक कुछ काम धाम करने की जरुरत ही नहीं थी । परन्तु सरकार भी अडिग थी । रतन चन्द नहीं तो कोई भी नहीं । उसने उम्र के आठ दशक पार कर चुके पूर्व चेयरमैन को ही एक्सटेंशन दे दी । लेकिन नैशनल कान्फ्रेंस की एक बात के लिये दाद देनी पड़ेगी । जिसकी एक बार बाँह पकड़ लेते हैं , उसे जल्दी छोड़ते नहीं । यह तो हुई रतन चन्द की पुरानी जन्म कुंडली ।

अब बात एक बार फिर किश्तवाड के दंगे की । उस दंगे के पहले अध्याय में , दंगाइयों ने अपना काम पूरा कर दिया था । अब उसका दूसरा अध्याय शुरु हुआ । इसमें सब कुछ राज्य सरकार को ही करना था । उसके लिये दंगे की जाँच के नाम पर एक आयोग गठित करना ज़रुरी है, इतना तो ट्विटर पर टवीट करते करते उमर अब्दुल्ला भी सीख चुके थे । इस मौक़े पर रतन चन्द काम आये । राज्य सरकार ने उनको कहा कि आप दंगे की जाँच कर , एक रपट दे दीजिए । रतन चन्द को उन हालातों की जाँच करनी थी , जिसके कारण वहाँ हिंसा और लूटपाट हुई और उसके कारण जान माल का नुक़सान हुआ । स्थिति को संभालने में यदि प्रशासकीय चूक हुई है तो उसका भी पता लगाना था । इन सभी कारनामों के पीछे कौन लोग हैं , उनकी शिनाख्त करनी थी । रतन चन्द को यह जाँच रपट एक महीने में देनी थी । उनकी नियुक्ति २४ अगस्त को हुई थी । ख़ैर इतना तो रतन चन्द भी जान गये थे कि यह एक महीना तो कहने सुनने के लिये होता है , ऐसे ऐसे जाँच आयोग हुये जो अपनी उम्र दो दशकों तक बढ़ाते गये । जाँच आयोग का अपने प्रकार का सुख होता है । रतन चन्द ने एक महीने में रपट नहीं दी । उसका काम लम्बा चलने वाला था । यह जाँच आयोग भी जानता है और उसको सरकारी सुविधाएँ उपलब्ध करवाने वाली सरकार भी जानती है । लेकिन इधर राज्य में चुनाव सिर पर आ रहे थे । इसलिये नैशनल कान्फ्रेंस को दंगे के दूसरे अध्याय की सरकारी इबारत लिखनी थी । इसलिये बीच का रास्ता निकाला गया । जांच तो अपने हिसाब से चलती रहेगी और रपट भी अपने समय के अनुसार आराम से आती रहेगी , लेकिन सरकारी काम रुके नहीं , इसके लिये रतन चन्द एक अंतरिम रपट दे देंगे, तब भी काम चल सकता था । और वह अंतरिम रपट रतन चन्द ने २० दिसम्बर २०१३ को राज्य सरकार को दे दी ।

वैसे तो जब १७ दिसम्बर को किश्तवाड की मरवाह तहसील के चंगर गाँव में कुछ लोगों ने रात्रि को मंदिर में से देव मूर्ति चुरा कर देवस्थान पर तोड़फोड़ की , तभी अंदेशा होने लगा था कि आगामी दिनों के लिये कोई खिचड़ी पक रही है । बाद में यह देवमूर्ति एक नाले में से एक फिरन में लपेटी हुई मिली । देवस्थान के इस षडयंत्रकारी अपमान का गुस्सा अभी ठंडा भी नहीं हुआ था कि उसके कुछ दिन बाद ही रतन चन्द की रपट आ गई । ।

एक सौ साठ पन्नों की इस अंतरिम रपट में क्या लिखा है , यह तो या रतन चन्द जानते होंगे या फिर उमर अब्दुल्ला , क्योंकि रपट अभी गोपनीय है । लेकिन गोपनीय होने के बावजूद रपट के जमा करवाये जाने के कुछ घंटों के भीतर ही , रपट के चुने हुये अंश राज्य के अख़बारों की सुर्ख़ियाँ बन गये । रपट के ये अंश रतन चन्द या उमर अब्दुल्ला में से किसने लीक किये , क़ायदे से तो इसकी भी जाँच हो सकती है ताकि किसी और निठल्ले की रोज़ी रोटी का इंतज़ाम हो सके । लेकिन फ़िलहाल यह मुद्दा अप्रासांगिक है । सरकार दंगों के दूसरे अध्याय में अपनी भूमिका तभी निभा सकती थी , यदि रपट लीक होती ,और वह हो गई । रपट की लीक हो रही धार में स्पष्ट पढा जा रहा था कि राज्य के पूर्व मंत्री सज्जाद अहमद किचलू , जिन्हें जनता अब तक किश्तवाड दंगों का खलनायक मान रही थी , बिल्कुल निर्दोष है । इधर रपट लीक हो रही थी और कहा जा रहा है , उधर दिल्ली से तीन महारथी , ग़ुलाम नबी आज़ाद (जो एक साथ ही ग़ुलाम भी हैं और आज़ाद भी । किसके ग़ुलाम हैं और किससे आज़ाद होने की कोशिश में हैं , ये तो वही बेहतर जानते होंगे) , प्रदेश सोनिया कांग्रेस के अध्यक्ष प्रो० सैफुद्दीन सोज और तीसरे नैशनल कान्फ्रेंस की नजर में किश्तवाड दंगों के तथाकथित नायक सज्जाद अहमद किचलू एक साथ जम्मू के लिये निकले । ज़ाहिर है लीक हो रही रपट की धार दिल्ली तक भी पहुँच रही होगी और कौन जाने मामला लीक ही दिल्ली से हो रहा हो । रपट के लीक होते ही किचलू की दोबारा ताजपोशी की तैयारियाँ राजभवन में शुरु हो गईं थीं । किचलू फिर मंत्री बनाये गये । रतन चन्द से अंतरिम रपट लेना और कुछ घंटों में ही किचलू को आरोपें के कीचड से निकाल कर राजभवन पहुंचा देना , कहीं आपस में मिली भगत का संकेत नहीं देता ? नैशनल कान्फ्रेंस और सोनिया गान्धी ने मिल कर किश्तवाड में दंगों का दूसरा अध्याय बाँचना शुरु कर दिया है । इबारत साफ़ और संदेश स्पष्ट करने वाली है । केवल , बिटविन दी लाइन्स ,पढ़ने की ज़रुरत है । नैशनल कान्फ्रेंस और सोनिया कांग्रेस द्वारा रचें गये किश्तवाड दंगे के इस दूसरे अध्याय की इबारत इतनी स्पष्ट है कि इसे जम्मू कश्मीर का कोई भी अल्पसंख्यक हिन्दू आसानी से डिकोडिफाई कर सकता है । संदेश साफ़ है-

” आप लोगों ने जितना हल्ला मचाना था मचा लिया न कि किश्तवाड दंगों के पहले अध्याय का खलनायक सज्जाद अहमद किचलू है । आप लोगों ने आसमान सिर पर उठा लिया था कि इसकी जाँच करवाई जाये । आप को लगता था कि आपके इस चीख़ने चिल्लाने से आसमान फट जायेगा । लो हमने करवा दी जाँच । अब तो आपकी बोलती बंद हो गई । आपके रतन चन्द ने ही जाँच में हमारे किचलू को पाक साफ़ बता दिया । उसने तो यहाँ तक कह दिया कि किचलू अपराधी नहीं बल्कि ‘विकटिम’ है । इतनी दूर तक जाने के लिये तो हमने भी उसे नहीं कहा था । अब बन गया हमारा सज्जाद दोबारा मंत्री और महकमा भी उसका वही पुराने वाला है । दल रहे हैं आपके सीने पर मूंग । उखाड के दिखा दो जम्मू कश्मीर में से शेखशाही की मूंछ का एक बाल भी । तुम्हें जिस कांग्रेस पर इतना भरोसा है न , वह तो १९४७ से ही हमारे आगे पीछे पूँछ हिला रही है । हमारी सरकार तो ऐसे ही चालेगी , तुम अपने बारे में सोच विचार कर लो ।”

यह किश्तवाड के दंगों की नैशनल कान्फ्रेंस और सोनिया गान्धी द्वारा सिखी गई नई इबारत है । अल्पसंख्यक हिन्दू सिक्ख क्या करें ? क्या कश्मीर घाटी के हिन्दुओं की तरह डोडा , रामबन और किश्तवाड से पलायन शुरु कर दें ? क्योंकि दंगों के इस दूसरे अध्याय ने तो ऐसा ही संदेश दिया है । किचलू को मंत्री बनाना एक प्रकार से अल्पसंख्यक हिन्दुओं के घावों पर नमक छिड़कने के समान ही है । दंगों का यह दूसरा अध्याय , जो नैशनल कान्फ्रेंस और सोनिया कांग्रेस ने मिल कर लिखा है , एक प्रकार से दंगों के पहले अध्याय का विस्तार ही है । सोनिया कांग्रेस समझती है कि उसके कुछ मंत्रियों के किचलू के शपथ ग्रहण समारोह में न जाने से ही हिन्दू उसकी इस साजिश को शायद पहचान नहीं पायेंगे । लेकिन एक बात और भी ध्यान में रखनी चाहिये कि दंगों के इस दूसरे अध्याय का यह संदेश कालान्तर में दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों यथा गुज्जर समाज और शिया समाज के लिये भी एक जैसा है । कश्मीर घाटी में हिन्दुओं के बाद शिया समाज और गुज्जर समाज ही मुसलमानों के निशाने पर है । यही कथा किश्तवाड समेत समीपवर्ती जिलों में भी क्रमानुसार दोहराया जा सकती है ।

अब एक बार फिर रतन चन्द की जन्म पुत्री खोली जाये क्योंकि दंगों के इस दूसरे अध्याय में तो उनकी भूमिका भी घेरे में आ रही है । अंतरिम रपट का जो हिस्सा लीक किया गया है , उसके अनुसार सज्जाद अहमद किचलू को छोड़ कर बाक़ी लगभग सभी लोग इस दंगे के दोषी हैं । यह अलग बात है कि अहमद दोषी नहीं है , रतन चन्द की इस बात पर कोई अहमक ही विश्वास कर सकता है । दंगे के पहले अध्याय का एक मक़सद इस इलाक़े में गाँव सुरक्षा समितियों को नपुंसक बनाना भी था क्योंकि समितियों के हथियारबन्द हिन्दू नौजवान आतंकवादियों के हमलों में , उनका डट कर मुक़ाबला करते रहे हैं । दंगे के बीच में ही इस मक़सद की पूर्ति के लिये विधायक शेख अब्दुल रशीद ने राज्य के उच्च न्यायालय में भी इन समितियों को खत्म किये जाने की गुहार लगा दी थी । अब बाबू रतन चन्द ने भी अपनी अंतरिम रपट में परोक्ष रुप से सलाह दी है कि इन समितियों में मुसलमानों को भी हथियार दिये जाने चाहिये ताकि इन पर साम्प्रदायिकता का आरोप न लग सके । जम्मू से प्रकाशित हिन्दी दैनिक कश्मीर टाईम्स के अनुसार रतन चन्द ने गांवों में मुसलमान सुरक्षा समितियां बनाने की सिफ़ारिश की है । यदि ये नहीं बनाई जा सकती तो वर्तमान सुरक्षा समितियाँ भी समाप्त कर देनी चाहिये ।( दैनिक कश्मीर टाईम्स २४/१२/२०१३) अखबार ने अंदेशा प्रकट किया है कि इसके खतरनाक परिणाम निकलेंगे । वी.डी.सी को लेकर चाहे अखवार की अपनी अलग राय है , लेकिन इन समितियों को समाप्त करने की मांग आतंकवादी लम्बे अरसे से कर रहे हैं । अब अपने इस आन्दोलन में रतन चन्द की इस तथाकथित गोपनीय रपट का भी साथ मिल जायेगा । रतन चन्द जी को काम तो दिया गया था दंगों के तथ्यों का पता लगाने का और दोषियों की शिनाख्त का , लेकिन उन्होंने अनेक विषयों पर अपनी क़ीमती सलाह का भजन शुरु कर दिया । यदि उन्हें इस भजन कीर्तन का इतना ही शौक़ था तो अपनी अंतिम रपट में वे यह शौक़ भी पूरा कर सकते थे , लेकिन वे बीच में ही तानपूरा लेकर बैठ गये । आये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास । उमर अब्दुल्ला ही यदि इस पूरे प्रकरण में पाक साफ़ होते तो अंतरिम रपट की बजाय असली अंतिम रपट की प्रतीक्षा कर सकते थे , लेकिन दुर्भाग्य से वही तो इस प्रकरण के दूसरे अध्याय की इबारत लिख रहे थे और इसमें रतन चन्द सहायता कर रहे थे । आजकल जम्मू में एक चुटकुला प्रसिद्ध हो गया है कि अंतरिम रपट में रतन चन्द ने सज्जाद अहमद किचलू को विकटिम यानि दंगों में पीड़ित घोषित किया है , कहीं अंतिम रपट में उन्हें मुआवज़ा देने की सिफ़ारिश न कर दें । रतन चन्द ने जब राज्य सरकार के सामान्य प्रशासन विभाग को अपनी अंतरिम रपट सौंपी थी तो विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने टिप्पणी की थी कि,” रपट को पढ़ने और समझने में दो तीन दिन लगेंगे तभी उस पर अमल किया जा सकेगा ।” जिस रपट को , इन मामलों के विशेषज्ञ विभाग को समझने बूझने में तीन दिन लगने वाले थे , उसे प्रदेश के मुख्यमंत्री तीन घंटे में ही समझ गये । कहीं ऐसा तो नहीं कि रपट आने से पहले ही वे उसे समझ चुके थे ? दंगे के पहले अध्याय का मक़सद किचलू के क़द को बढ़ाना और ग्राम सुरक्षा समितियों की उपादेयता पर प्रश्न चिन्ह लगाना था , वे दोनों काम रतन चंद ने अपनी अंतरिम रपट से पूरे कर दिये हैं । और यहाँ तक सवाल उमर अब्दुल्ला का , हाल ही में उन्हीं के एक टवीट की तर्ज पर अर्ज है, ” सारा प्रदेश जानता बूझता है कि किश्तवाड के दंगों के पीछे कौन है । केवल दो लोग नहीं जानते , एक उमर अब्दुल्ला और दूसरे रतन चन्द ।” आमीन ।

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