
प्रमोद भार्गव
पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा के बाद भाजपा और तृणमूल कांग्रेस
के बीच तेज हुई राजनीतिक जंग में निर्वाचन आयोग भी निशाने पर है। हिंसा के बाद
चुनाव प्रचार की अवधि में कटौती के फैसले को लोकतंत्र के लिए ‘काला धब्बा‘ करार
दिया है। इस कटौती को तृणमूल समेत अन्य विपक्षी दल उनके साथ हुआ अन्याय मानकर चल
रहे हैं, क्योंकि वे इस हिंसा के लिए पश्चिम बंगाल में
सत्तारूढ़ दल तृणमूल को दोषी न मानते हुए भाजपा को दोषी मान रहे हैं। हालांकि आजादी
के बाद बंगाल का यह इतिहास रहा है कि जब-जब सत्ता परिवर्तन हुआ है,
तब-तब बंगाल
में हिंसा हुई है। बावजूद चुनाव के समय हिंसा पर नियंत्रण नहीं होना निर्वाचन आयोग
की भूमिका पर सवाल खड़े करता है। ढाई महीने तक चुनाव प्रक्रिया का चलना भी हिंसा की
एक संभावित वजह हो सकती है ? इस लंबे दौर में नेताओं ने मर्यादा की सभी सीमाएं
लांघते हुए कुछ न कुछ ऐसा अनर्गल कहा, जो गुस्सा और धु्रवीकरण की वजह बना। बंगाल में
सांप्रदयिक धु्रवीकरण की पृष्ठ भूमि को बचाए रखने की चुनौती पेश आई,
जिसके
परिणामस्वरूप हिंसा हुई। नतीजतन समाज सुधारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर की मूर्ति को
भी उपद्रवियों ने नहीं बख्शा ।
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के रोड शो में सामने आई हिंसा ने तय कर दिया है कि पश्चिम
बंगाल में वर्तमान राजनीतिक हालात भयावह हैं। अब तक हुए सभी चरणों के चुनाव में
वहां हिंसा देखने में आई है, इससे ऐसा लगता है कि बंगाल की जनता उस रास्ते पर
आ खड़ी हुई है, जो सत्ता परिवर्तन की ओर जाता है। हिंसा की इस
राजनीतिक संस्कृति की पड़ताल करें तो पता चलता है कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का
पहला सैनिक विद्रोह इसी बंगाल के कलकत्ता एवं बैरकपुर में हुआ था,
जो मंगल
पाण्डे की शहादत के बाद 1947 में भारत की आजादी का कारण बना। बंगाल में जब
मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार थी,
तब सामाजिक व
आर्थिक विषमताओं के विद्रोह स्वरूप नक्सलवाड़ी आंदोलन उपजा। लंबे समय तक चले इस
आंदोलन को क्रूरता के साथ कुचला गया। हजारों दोषियों के दमन के साथ कुछ निर्दोष भी
मारे गए। इसके बाद कांग्रेस से सत्ता हथियाने के लिए भारतीय मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट
पार्टी के नेतृत्व में वाममोर्चा आगे आया। इस लड़ाई में भी विकट खूनी संघर्ष सामने आया और आपातकाल के बाद 1977
में हुए
चुनाव में वामदलों ने कांग्रेस के हाथ से सत्ता छीन ली। लगातार 34
साल तक बंगाल
में मार्क्सवादियों का शासन रहा है। इस दौरान सियासी हिंसा का दौर नियमित चलता
रहा। तृणमूल सरकार द्वारा जारी सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 1977 से 2007 के कालखंड में 28
हजार
राजनेताओं की हत्याएं हुईं।
सर्वहारा और किसान की पैरवी करने वाले वाममोर्चा ने जब सिंगूर
और नंदीग्राम के किसानों की खेती की जमीनें टाटा को दे दीं तो इस जमीन पर अपने हक
के लिए उठ खड़े हुए किसानों के साथ ममता बनर्जी आ खड़ी हुईं। ममता कांग्रेस की पाठशाला
में ही पढ़ी थीं। जब कांग्रेस उनके कड़े तेवर झेलने और संघर्ष में साथ देने से बचती दिखी तो उन्होंने कांग्रेस
से पल्ला झाड़ा और तृणमूल कांग्रेस को अस्तित्व में लाकर वामदलों से भिड़ गईं। इस
दौरान उन पर कई जानलेवा हमले हुए, लेकिन उन्होंने अपने कदम पीछे नहीं खींचे। जबकि 2001
से लेकर 2010
तक 256
लोग सियासी
हिंसा में मारे गए। यह काल ममता के रचनात्मक संघर्ष का चरम था। इसके बाद 2011 में बंगाल में विधानसभा चुनाव हुए
और ममता ने वाममोर्चा का लाल झंडा उतारकर तृणमूल की विजय पताका फहरा दी। इस साल भी
38 लोग मारे गए।
ममता बनर्जी के कार्यकाल में भी राजनीतिक लोगों की हत्याओं का दौर बरकरार रहा। इस
दौर में 58 लोग मौत के घाट उतारे गए हैं।
बंगाल की माटी पर एकाएक उदय हुई हुई भाजपा ने ममता के वजूद को
संकट में डाल दिया। ममता को झटका तब लगा, जब मिदनापुर में ममता का चुनावी काफिला सड़क से
गुजर रहा था। इसी समय सड़क किनारे खड़े कुछ लोगों ने जय-जय श्रीराम के नारे लगा दिए।
ममता को यह नारे कानों में शीशा भर देने की तरह अनुभव हुए। गोया,
उन्होंने
गाड़ी रुकवाई और नारे लगाने वालों को फटकार लगाई। इस घटना का वीडियो वायरल हो गया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नजरों से जब यह वीडियो गुजरा तो उन्होंने इसे
प्रभावी मुद्दे में बदल दिया। बांगाल में करीब 27 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं। इनमें 90
फीसदी तृणमूल
के खाते में जाते हैं। इसे तृणमूल का पुख्ता वोट-बैंक मानते हुए ममता ने अपनी ताकत
मोदी व भाजपा विरोधी छवि स्थापित करने में झांक दी। इसमें मुस्लिमों को भाजपा का
डर दिखाने का संदेश भी छिपा था। किंतु इस क्रिया की विपरीत प्रतिक्रया हिंदुओं में
स्व-स्फूर्त धु्रवीकरण के रूप में दिखाई देने लगी। बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठिए
भाजपा को वजूद के लिए खतरा मानकर देख रहे हैं, नतीजतन बंगाल के चुनाव में हिंसा का
उबाल आया हुआ है। इस कारण बंगाल में जो हिंदी भाषी समाज है,
वह भी भाजपा
की तरफ झुका दिखाई दे रहा है।
हैरानी इस बात पर भी है कि जिस ममता ने ‘मां माटी और मानुष‘ एवं
‘परिवर्तन‘ का नारा देकर वामपंथियों के कुशासन और अराजकता को चुनौती दी थी,
वही ममता इसी
ढंग की भाजपा की लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बौखला गई हैं। उनके बौखलाने का एक कारण
यह भी है कि 2011 में उनके सत्ता परिवर्तन के नारे के साथ जो
वामपंथी और कांग्रेसी कार्यकर्ता आ खड़े हुए थे, वे भविष्य की राजनीतिक दिशा भांपकर
भाजपा का रुख कर गए हैं।
2011 के विधानसभा चुनाव में जब बंगाल में
हिंसा नंगा नाच, नाच रही थी, तब ममता ने अपने कार्यकताओं को
विवेक न खोने की सलाह देते हुए नारा दिया था, ‘बदला नहीं, बदलाव चाहिए।‘ किंतु अब जब अमित शाह
के रोड शो पर पथराव हुआ तो ममता इस हिंसा
को आंदोलन कह रही हैं। यह कथन असामाजिक व अराजक तत्वों को हिंसा के लिए उकसा रहा
है। विडंबना देखिए कि हकीकत से रूबरू होने के बावजूद पूरा विपक्ष
ममता और तृणमूल के साथ खड़ा है। देश के राजनीतिक भविष्य के लिए
विपक्ष कल खड़ा हो अथवा न हो, लेकिन इस हिंसा के पक्ष में जरूर एक मजबूत
महागठबंधन के रूप में मोदी व भाजपा के विरुद्ध खड़ा दिखाई दे रहा है। आयोग द्वारा
बंगाल में चुनाव प्रचार में की गई कटौती का विरोध करके विपक्ष ने यही दर्शाया है।
ममता को हिंसा के परिप्रेक्ष्य में आत्ममंथन करने की जरूरत है कि बंगाल में ही
हिंसा परवान क्यों चढ़ी है ? भाजपा शासित देश में 16 राज्य हैं, छह चरणों के चुनाव में वहां हिंसा
दिखाई नहीं दी। बिहार की छुट-पुट हिसंक घटनाओं को छोड़ दे ंतो अन्य किसी राज्य में
हिंसा नहीं हुई। कांग्रेस की भी कई राज्यों में सरकारें हैं,
लेकिन कहीं
भी हिंसा नहीं हुई। लिहाजा ममता को लोकतांत्रिक मूल्यों और मान्यताओं को ठेंगा
दिखाने से बचना चाहिए ?
लंबी चुनाव प्रक्रिया और आचार संहिता के उल्लंघन संबंधी मामलों
में शिथिलता को लेकर आयोग भी कठघरे में है। लोग टीएन शेषन के रवैये को याद कर रहे
हैं। सात चरणों में चुनाव संपन्न करने को लेकर आयोग का तर्क रहा है कि चुनाव
तारीखों के अंतराल में सुरक्षाकर्मियों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाने
में आसानी रहेगी। बावजूद यदि अराजक तत्व रोड शो में बाधा बन रहे हैं, नेताओं पर पत्थर बरसा रहे हैं और
मूर्तिभंजक की भूमिका में आ गए हैं,ं तो साफ है, इस संदर्भ में आयोग की रणनीति नाकाम
रही है। शायद आयोग ने इस व्यावहरिक समझ से काम नहीं लिया कि यदि सुरक्षाकर्मियों
को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने में सुगमता होगी तो यही सुगमता असामाजिक तत्वों
को भी स्वाभाविक रूप से हासिल हो जाएगी ? यदि चुनाव तीन या चार चरणों में सवा-डेढ़ माह के
भीतर संपन्न हो गए होते तो समय का दुरुपयोग नहीं हुआ होता ?
नेताओं को
बिगड़े बोल बोलने का अवसर नहीं मिलता ? यदि इतना लंबा समय नहीं मिलता तो बंगाल में भाजपा
और तृणमूल के बीच जो खुला हिंसक टकराव देखने में आया है, शायद वह भी नहीं आता ?
अतएव आयोग पर
यह सवाल उठ रहे हैं कि सात चरण में चुनाव का फैसला केंद्र सरकार के दबाव में लिया
गया है, तो इसमें आंशिक
सच्चाई हो भी सकती है ? अब भविष्य
में आयोग को यह ख्याल रखने की
जरूरत है कि चुनाव सीमित समय और कम चरणों में हो। आयोग को भविष्य में
सख्त रवैया भी अपनाने की जरूरत है।