वर्धा हिन्दी शब्दकोश के बहाने से हिन्दी के विकास के संबंध में कुछ विचार

-प्रोफेसर महावीर सरन जैन-
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मैं दस पंद्रह दिन पहले अमेरिका से भारत लौटा तो मेरे अनेक मित्रों ने मुझे टेलिफोन करके यह सूचना दी कि महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय वर्धा ने ´वर्धा हिन्दी शब्दकोश’ का प्रकाशन किया है। मैंने कहा कि यह तो अच्छी सूचना है। मगर उनका कहना था कि यह कोश हिन्दी की प्रकृति और गरिमा के विरुद्ध है। यह कोश हिन्दी को ‘हिंग्लिश´ बनाने की कुटिल योजना है। आप इसके विरुद्ध लिखिए। मेरे एक मित्र ने मुझे बताया कि उन्होंने उस कोश के खिलाफ लिखा है तथा उसमें यह भी लिखा है कि वर्धा के वाइस चांसलर विभूति नारायण राय ने यह काम किसी रामप्रकाश सक्सेना से कराया है और उसकी सहायक सम्पादक कोई शोभा पालिवाल है। उन्होंने किसी भाषावैज्ञानिक को यह काम नहीं सौंपा। जब मैंने उन्हें सूचित किया कि मैं राम प्रकाश सक्सेना को जानता हूँ। वे नागपुर की यूनिवर्सिटी में भाषाविज्ञान विभाग में अध्यापक थे तथा भाषाविज्ञान का ज्ञान रखते हैं। उनका कहना था कि उसके सम्पादक मंडल में जो पाँच नाम हैं उनमें कोई भी देश का प्रसिद्ध भाषाविद् नहीं है। इसके बाद उन्होंने तीर चलाया कि मैंने अपने लेख में लिखा है कि विभूतिनारायण राय को देश के प्रसिद्ध भाषाविद् प्रोफेसर महावीर सरन जैन तथा प्रसिद्ध कोशकार बदरीनाथ कपूर एवं विमलेश कांति वर्मा को बुलाना चाहिए था। मैंने मित्र से निवेदन किया कि मैंने उक्त कोश देखा नहीं है। बिना देखे टिप्पण नहीं किया जा सकता। कोश को लेकर चर्चाएँ गरम हैं। सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि उसमें अंग्रेजी के विपुल शब्दों का घालमेल किया गया है। मैं उक्त कोश के बारे में कोई टिप्पण नहीं कर सकता। इसका कारण यह है कि मैंने उक्त कोश देखा तक नहीं है, पढ़ना तो दूर की बात है। भले ही मैं कोश के सम्बंध में कोई टिप्पण नहीं कर सकता मगर मैं विद्वानों से यह जरूर पूछना चाहता हूँ कि ब हम अपने रोजाना के व्यवहार में अंग्रेजी के जिन शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं उनको कोश में क्यों नहीं शामिल किया जाना चाहिए।

अंग्रेजी के जिन शब्दों को हिन्दी के अखबारों एवं टीवी चैनलों ने अपना लिया है तथा प्रचलन में आ गए हैं, उनको कोश में क्यों नहीं शामिल किया जाए। क्या केवल इस कारण कि उन शब्दों को भारत सरकार के वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग ने नहीं अपनाया है और भारत सरकार का आदेश है कि राजभाषा हिन्दी में आयोग की शब्दावली का तथा निदेशालय की मानक हिन्दी वर्तनी के नियमों का पालन किया जाए। यह नियम सरकार के राजभाषा अधिकारियों पर थोपा जा सकता है। मेरा मानना है कि यह भी गलत है। मैं भारत सरकार के राजभाषा विभाग के तथा मानव संसाधन विकास मंत्रालय के भाषा एकक के अधिकारियों तथा उक्त कोश में अंग्रेजी के विपुल शब्दों को शामिल करने के कारण उसकी आलोचना एवं भर्तस्ना करनेवाले विद्वानों से यह निवेदन करना चाहता हूँ कि वे पहले राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर हुई बहस का जो जबाब भारत के नवनिर्वाचित प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने संसद के दोनों सदनों में दिया उसको सुनलें एवं पढ़ लें। मैंने भाषण सुना तथा प्रयुक्त अंग्रेजी के शब्दों को अपनी शक्ति-सीमा के दायरे में लिखता गया। बहुत से शब्द छूट भी गए। मैं उस भाषण में बोले गए अंग्रेजी के जिन शब्दों को लिख पाया, वे शब्द निम्नलिखित हैं – (1) स्कैम इंडिया (2) स्किल इंडिया (3) एंटरप्रेन्योरशिप (4) स्किल डेवलपमेंट (5) एजेंडा (6) रोडमैप (7) रेप (8) एफ आई आर (9) रेंज (10) कॉमन (11) ब्रेक (12) इंडस्ट्रीज़ (13) फोकस (14) मार्केटिंग (15) प्रोडक्ट । हिन्दी को लोक की भाषा बनाएँ। जो शब्द चल गए हैं, उनको अपनालें। यदि लोक प्रचलित शब्द नहीं अपनाएँगे तो भाषा शब्दकोश की चीज़ बनकर रह जाएगी। चलेगी नहीं।

स्वाधीनता के बाद हमारे राजनेताओं ने हिन्दी की घोर उपेक्षा की। पहले यह तर्क दिया गया कि हिन्दी में वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली का अभाव है। इसके लिए वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग बना दिया गया। काम सौंप दिया गया कि शब्द बनाओ। आयोग ने तकनीकी एवं वैज्ञानिक शब्दों के निर्माण के लिए जिन विशेषज्ञों को काम सौंपा उन्होंने जन प्रचलित शब्दों को अपनाने के स्थान पर संस्कृत का सहारा लेकर शब्द गढ़े। शब्द बनाए नहीं जाते। गढ़े नहीं जाते। लोक के प्रचलन एवं व्यवहार से विकसित होते हैं। आयोग ने जिन शब्दों का निर्माण किया उनमें से अधिकांशतः अप्रचलित, जटिल एवं क्लिष्ट हैं। सारा दोष आयोग एवं विशेषज्ञों का भी नहीं है। मैं उनसे ज्यादा दोष मंत्रालय के अधिकारियों का मानता हूँ। प्रशासनिक शब्दावली बनाने के लिए अलिखित आदेश दिए गए कि प्रत्येक शब्द की स्वीकार्यता के लिए मंत्रालय के अधिकारियों की मंजूरी ली जाए। अधिकारियों की कोशिश रही कि जिन शब्दों का निर्माण हो, वे बाजारू न हो। सरकारी भाषा बाजारू भाषा से अलग दिखनी चाहिए। मैं अपनी बात को एक उदाहरण से स्पष्ट करना चाहता हूँ । प्रत्येक मंत्रालय में सेक्रेटरी तथा एडिशनल सेक्रेटरी के बाद मंत्रालय के प्रत्येक विभाग में ऊपर से नीचे के क्रम में अंडर सेक्रेटरी होता है। इसके लिए निचला सचिव शब्द बनाकर मंत्रालय के अधिकारियों के पास अनुमोदन के लिए भेजा गया। अर्थ संगति की दृष्टि से शब्द संगत था। मंत्रालयों के अधिकारियों को आयोग द्वारा निर्मित शब्द पसंद नहीं आया। आदेश दिए गए कि नया शब्द बनाया जाए। आयोग के चेयरमेन ने विशेषज्ञों से अनेक वैकल्पिक शब्द बनाने का अनुरोध किया। अंडर सेक्रेटरी के लिए नए शब्द गढ़ने में विशेषज्ञों ने व्यायाम किया। जो अनेक शब्द बनाकर मंत्रालय के पास भेजे गए उनमें से मंत्रालय के अधिकारियों को “अवर” पसंद आया और वह स्वीकृत हो गया। अंडर सेक्रेटरी के लिए हिन्दी पर्याय अवर सचिव चलने लगा। मंत्रालयों में सैकड़ों अंडर सेक्रेटरी काम करते हैं और सब अवर सचिव सुनकर गर्व का अनुभव करते हैं। शायद ही किसी अंडर सेक्रेटरी को अवर के मूल अर्थ का पता हो। स्वयंबर में अनेक वर विवाह में अपनी किस्मत आजमाने आते थे। जिस वर को वधू माला पहना देती थी वह चुन लिया जाता था। जो वर वधू के द्वारा अस्वीकृत कर दिए जाते थे उन्हें अवर कहते थे। चूँकि शब्द गढ़ते समय यह ध्यान नहीं रखा गया कि वे सामान्य आदमी को समझ में आ सकें, इस कारण आयोग के द्वारा निर्मित कराए गए लगभग 80 प्रतिशत शब्द प्रचलित नहीं हो पाए। वे कोशों की शोभा बनकर रह गए हैं।

भारत सरकार के मंत्रालय के राजभाषा अधिकारी का काम होता है कि वह अंग्रेजी के मैटर का आयोग द्वारा निर्मित शब्दावली में अनुवाद करदे। अधिकांश अनुवादक शब्द की जगह शब्द रखते जाते हैं। हिन्दी भाषा की प्रकृति को ध्यान में रखकर वाक्य नहीं बनाते। इस कारण जब राजभाषा हिन्दी में अनुवादित सामग्री पढ़ने को मिलती है तो उसे समझने के लिए कसरत करनी पड़ती है। मैं जोर देकर कहना चाहता हूँ कि लोकतंत्र में राजभाषा आम आदमी के लिए बोधगम्य होनी चाहिए। एक बात जोड़ना चाहता हूँ। कोई शब्द जब तक चलन में नहीं आएगा, प्रचलित नहीं होगा तो वह चलेगा नहीं। लोक में जो शब्द प्रचलित हो गए हैं उनके स्थान पर नए शब्द गढ़ना बेवकूफी है। रेलवे स्टेशन का एक कुली कहता है कि ट्रेन अमुक प्लेटफॉर्म पर खड़ी है। सिग्नल डाउन हो गया है। ट्रेन अमुक प्लेटफॉर्म पर आ रही है।बाजार में उसी सिक्के का मूल्य होता है जो बाजार में चलता है। हमें वही शब्द सरल एवं बोधगम्य लगता है जो हमारी जबान पर चढ़ जाता है। “भाखा बहता नीर”। लोक व्यवहार से भाषा बदलती रहती है। यह भाषा की प्रकृति है।.राजभाषा हिन्दी में अधिकारी अंग्रेजी की सामग्री का अनुवाद अधिक करता है। मूल टिप्पण हिन्दी में नहीं लिखा जाता। मूल टिप्पण अंग्रेजी में लिखा जाता है। अनुवादक जो अनुवाद करता है, वह अंग्रेजी की वाक्य रचना के अनुरूप अधिक होता है। हिन्दी भाषा की रचना-प्रकृति अथवा संरचना के अनुरूप कम होता है। मैं उदाहरण देता हूँ ताकि अपनी बात स्पष्ट कर सकूँ।हम कोई पत्र मंत्रालय को भेजते हैं तो उसकी पावती की भाषा की रचना निम्न होती है –

´पत्र दिनांक – – – , क्रमांक – – – प्राप्त हुआ’।
सवाल यह है कि क्या प्राप्त हुआ। क्रमांक प्राप्त हुआ अथवा दिनांक प्राप्त हुआ अथवा पत्र प्राप्त हुआ। अंग्रेजी की वाक्य रचना में क्रिया पहले आती है। हिन्दी की वाक्य रचना में क्रिया बाद में आती है। इस कारण जो वाक्य रचना अंग्रेजी के लिए ठीक है उसके अनुरूप रचना हिन्दी के लिए सहज, सरल एवं स्वाभाविक नहीं है। क्रिया (प्राप्त होना अथवा मिलना) का सम्बंध दिनांक से अथवा क्रमांक से नहीं है। पत्र से है। हिन्दी की रचना प्रकृति के हिसाब से वाक्य रचना निम्न प्रकार से होनी चाहिए।
´आपका दिनांक – – – का लिखा पत्र प्राप्त हुआ। उसका क्रमांक है – – – – ‘ ।
हिन्दी की वाक्य रचना भी दो प्रकार की होती है। एक रचना सरल होती है। दूसरी रचना जटिल एवं क्लिष्ट होती है। सरल वाक्य रचना में वाक्य छोटे होते हैं। संयुक्त एवं मिश्र वाक्य बड़े होते हैं। सरल वाक्य रचना वाली भाषा सरल, सहज एवं बोधगम्य होती है। संयुक्त एवं मिश्र वाक्यों की रचना वाले वाक्य होते हैं तो भाषा जटिल हो जाती है, कठिन लगने लगती है, जटिल हो जाती है और इस कारण अबोधगम्य हो जाती है।

मुझे विश्वास है कि यदि प्रशासनिक भाषा को सरल बनाने की दिशा में पहल हुई तो राजभाषा हिन्दी और जनभाषा हिन्दी का अन्तर कम होगा। सरल, सहज, पठनीय, बोधगम्य भाषा-शैली का विकास होगा। ऐसी राजभाषा लोक में प्रिय होगी। लोकप्रचलित होगी। यहाँ इसको रेखांकित करना अप्रसांगिक न होगा कि स्वाधीनता संग्राम के दौरान हिन्दीतर भाषी राष्ट्रीय नेताओं ने जहाँ देश की अखंडता एवं एकता के लिए राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार प्रसार की अनिवार्यता की पैरोकारी की वहीं भारत के सभी राष्ट्रीय नेताओं ने एकमतेन सरल एवं सामान्य जनता द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी का प्रयोग करने एवं हिन्दी उर्दू की एकता पर बल दिया था। इसी प्रसंग में एक बात और जोड़ना चाहता हूँ। प्रजातंत्र में शुद्ध हिन्दी, क्लिष्ट हिन्दी, संस्कृत गर्भित हिन्दी जबरन नहीं चलाई जानी चाहिए। जनतंत्र में ऐसा करना सम्भव नहीं है। ऐसा फासिस्ट शासन में ही सम्भव है। हमें सामान्य आदमी जिन शब्दों का प्रयोग करता है उनको अपना लेना चाहिए। यदि वे शब्द अंग्रेजी से हमारी भाषाओं में आ गए हैं, हमारी भाषाओं के अंग बन गए हैं तो उन्हें भी अपना लेना चाहिए। मैं हिन्दी के विद्वानों को बता दूँ कि प्रेमचन्द जैसे महान रचनाकार ने भी प्रसंगानुरूप किसी भी शब्द का प्रयोग करने से परहेज़ नहीं किया। उनकी रचनाओं में अंग्रेजी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। अपील, अस्पताल, ऑफिसर, इंस्पैक्टर, एक्टर, एजेंट, एडवोकेट, कलर, कमिश्नर, कम्पनी, कॉलिज, कांस्टेबिल, कैम्प, कौंसिल, गजट, गवर्नर, गैलन, गैस, चेयरमेन, चैक, जेल, जेलर, टिकट, डाक्टर, डायरी, डिप्टी, डिपो, डेस्क, ड्राइवर, थियेटर, नोट, पार्क, पिस्तौल, पुलिस, फंड, फिल्म, फैक्टरी, बस, बिस्कुट, बूट, बैंक, बैंच, बैरंग, बोतल, बोर्ड, ब्लाउज, मास्टर, मिनिट, मिल, मेम, मैनेजर, मोटर, रेल, लेडी, सरकस, सिगरेट, सिनेमा, सिमेंट, सुपरिन्टेंडैंट, स्टेशन आदि हजारों शब्द इसके उदाहरण हैं। प्रेमचन्द जैसे हिन्दी के महान साहित्यकार ने अपने उपन्यासों एवं कहानियों में अंग्रेजी के इन शब्दों का प्रयोग करने में कोई झिझक नहीं दिखाई है। शब्दावली आयोग की तरह इनके लिए विशेषज्ञों को बुलाकर यह नहीं कहा कि पहले इन अंग्रेजी के शब्दों के लिए शब्द गढ़ दो ताकि मैं अपना साहित्य सर्जित कर सकूँ। उनके लेखन में अंग्रेजी के ये शब्द ऊधारी के नहीं हैं; जनजीवन में प्रयुक्त शब्द भंडार के आधारभूत, अनिवार्य, अवैकल्पिक एवं अपरिहार्य अंग हैं। फिल्मों, रेडियो, टेलिविजन, दैनिक समाचार पत्रों में जिस हिन्दी का प्रयोग हो रहा है वह जनप्रचलित भाषा है। जनसंचार की भाषा है। समय समय पर बदलती भी रही है। पुरानी फिल्मों में प्रयुक्त होनेवाले चुटीले संवादों तथा फिल्मी गानों की पंक्तियाँ जैसे पुरानी पीढ़ी के लोगों की जबान पर चढ़कर बोलती थीं वैसे ही आज की युवा पीढ़ी की जुबान पर आज की फिल्मों में प्रयुक्त संवादों तथा गानों की पंक्तियाँ बोलती हैं। फिल्मों की स्क्रिप्ट के लेखक जनप्रचलित भाषा को परदे पर लाते हैं। उनके इसी प्रयास का परिणाम है कि फिल्मों को देखकर समाज के सबसे निचले स्तर का आम आदमी भी फिल्म का रस ले पाता है। मेरा सवाल यह है कि यदि साहित्यकार, फिल्म के संवादों तथा गीतों का लेखक, समाचार पत्रों के रिपोर्टर जनप्रचलित हिन्दी का प्रयोग कर सकता है तो भारत सरकार का शासन प्रशासन की राजभाषा हिन्दी को जनप्रचलित क्यों नहीं बना सकता। विचारणीय है कि हिंदी फिल्मों की भाषा ने गाँवों और कस्बों की सड़कों एवं बाजारों में आम आदमी के द्वारा रोजमर्रा की जिंदगी में बोली जाने वाली बोलचाल की भाषा को एक नई पहचान दी है।

फिल्मों के कारण हिन्दी का जितना प्रचार-प्रसार हुआ है उतना किसी अन्य एक कारण से नहीं हुआ। आम आदमी जिन शब्दों का व्यवहार करता है उनको हिन्दी फिल्मों के संवादों एवं गीतों के लेखकों ने बड़ी खूबसूरती से सहेजा है। भाषा की क्षमता एवं सामर्थ्य शुद्धता से नहीं, निखालिस होने से नहीं, ठेठ होने से नहीं, अपितु विचारों एवं भावों को व्यक्त करने की ताकत से आती है। राजभाषा के संदर्भ में यह संवैधानिक आदेश है कि संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्थानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे। भारत सरकार का शासन राजभाषा का तदनुरूप विकास कर सका है अथवा नहीं यह सोचने विचारने की बात है। इस दृष्टि से भी मैं फिल्मों में कार्यरत सभी रचनाकारों एवं कलाकारों का अभिनंदन करता हूँ।हिन्दी सिनेमा ने भारत की सामासिक संस्कृति के माध्यम की निर्मिति में अप्रतिम योगदान दिया है। बंगला, पंजाबी, मराठी, गुजराती, तमिल आदि भाषाओं एवं हिन्दी की विविध उपभाषाओं एवं बोलियों के अंचलों तथा विभिन्न पेशों की बस्तियों के परिवेश को सिनेमा की हिन्दी ने मूर्तमान एवं रूपायित किया है। भाषा तो हिन्दी ही है मगर उसके तेवर में, शब्दों के उच्चारण के लहजे़ में, अनुतान में तथा एकाधिक शब्द-प्रयोग में परिवेश का तड़का मौजूद है। भाषिक प्रयोग की यह विशिष्टता निंदनीय नहीं अपितु प्रशंसनीय है। मुझे प्रसन्नता है कि देर आए दुरुस्त आए, राजभाषा विभाग ने प्रशासनिक हिन्दी को सरल बनाने की दिशा में कदम उठाने शुरु कर दिए हैं। जैसे प्रेमचन्द ने जनप्रचलित अंग्रेजी के शब्दों को अपनाने से परहेज नहीं किया वैसे ही प्रशासनिक हिन्दी में भी प्रशासन से सम्बंधित ऐसे शब्दों को अपना लेना चाहिए जो जन-प्रचलित हैं। उदाहरण के लिए एडवोकेट, ओवरसियर, एजेंसी, ऍलाट, चैक, अपील, स्टेशन, प्लेटफार्म, एसेम्बली, ऑडिट, केबिनेट, केम्पस, कैरिटर, केस, कैश, बस, सेंसर, बोर्ड, सर्टिफिकेट, चालान, चेम्बर, चार्जशीट, चार्ट, चार्टर, सर्किल, इंस्पेक्टर, सर्किट हाउस, सिविल, क्लेम, क्लास, क्लर्क, क्लिनिक, क्लॉक रूम, मेम्बर, पार्टनर, कॉपी, कॉपीराइट, इन्कम, इन्कम टैक्स, इंक्रीमेंट, स्टोर आदि। भारत सरकार के राजभाषा विभाग को यह सुझाव भी देना चाहता हूँ कि जिन संस्थाओं में सम्पूर्ण प्रशासनिक कार्य हिन्दी में शतकों अथवा दशकों से होता आया है, वहाँ की फाइलों में लिखी गई हिन्दी भाषा के आधार पर प्रशासनिक हिन्दी को सरल बनाएँ। जब कोई रोजाना फाइलों में सहज रूप से लिखता है, तब उसकी भाषा का रूप अधिक सरल और सहज होता है बनिस्पत जब कोई सजग होकर भाषा को बनाता है। सरल भाषा बनाने से नहीं बनती, सहज प्रयोग करते रहने से बन जाती है, ढल जाती है। ‘भाखा बहता नीर’।

40 COMMENTS

  1. काविर शब्द हो सकता हे क्या मेने अपने बेटे का नाम रखा है इसके बारे में कुछ बताये

  2. आदरणीय जैन साहब,

    बिना कोश को देखे उस पर इतना बड़ा लेख दिया इसे कोई ‘विद्वान’ ही कर सकता है।

    ‘अंग्रेजी जो जो शब्द प्रचन में आ गये हैं’ कहकर आप बडे ही छिछले तरीके से निष्कर्ष निकाल ले रहे हैं कि उन्हें हिन्दी शब्दकोश में होना चाहिये।

    मेरे घर काम करने वाली ‘रविवार’ नहीं ‘संडे’ कहती है, फल बेचने वाला ‘आम’ नहीं ‘मंगो’ कहता है, टैक्सी का चालक अपने को ‘चालक’ नहीं ‘ड्राइवर’ कहता है और ‘हवाई अड्डा’ नहीं ‘एयरपोर्ट’ कहता है- इसलिये सण्डे, मैंगो, ड्राइवर, एयरपोर्ट आदि हिन्दी शब्द हो गये? क्या आप नहीं जानते कि ये लोग इन शब्दों को इसलिये बोलते हैं कि वे दिखाना चाहते हैं कि वे ‘गवाँर’ नहीं है। जैसे आपने शुरू में ही लिख दिया कि आप अमेरिका से आये। यह दिखाने के लिये कि आप अमेरिका भी जाते हैं।

    ‘हिन्दी शब्द’ की यह पहचान कुछ जमी नहीं। यह वैसे ही है जैसे बन्दूक की नोंक पर किसी से किसी कागज पर अंगूठा लगवा लिया जाय और फिर कहा जाय कि उसने स्वेच्छा से हामी भरी है। आप नहीं जानते कि देश में चापरासी से लेकर मैनेजर तक की ‘नौकरी’ के लिये अंग्रेजी में प्रवीणता जाँची जाती है? यही वह बन्दूक की नोंक है जो रविवार के स्थान पर सण्डे कहलवाती है। कल नियम बना दीजिये कि अंग्रेजी नहीं, चीनी की प्रवीणता की जाँच होगी तो आप एक ही दिन में सौ-दो सौ चीनी शब्द याद करके सुना देंगे और कल से कहने लगेंगे कि मैं चीनी भाषा का विद्वान हूँ। मुझे हिन्दी नहीं आती।

    आपने प्रधानमंत्री द्वारा कुछ अंग्रेजी के शब्दों के प्रयोग का उदाहरण देकर क्या सिद्ध करना चाहते हैं? क्या हिन्दी का शब्दकोश इस बात से तय होगा कि सोनिया, देवेगौड़ा या नरेन्द्र मोदी कैसी हिन्दी बोलते हैं? भगवान आप जैसे छिछले विचारकों से भारत की रक्षा करे।

    • भाषा का अध्ययन यदि ऐतिहासिक दृष्टि से किया जाता है तो यह विचार किया जाता है कि शब्द किस भाषा से आगत हुआ है। किंतु संकालिक अथवा एककालिक अध्ययन में किसी भाषा के शिक्षित प्रयोक्ता जिन शब्दों का प्रयोग करते हैं, वे समस्त शब्द उस भाषा की शब्द सम्पदा में समाहित होते हैं। आप सम्मति देने के पहले भाषाविज्ञान के सामान्य सिद्धांतों को जानने की कृपा करें। प्रत्येक व्यक्ति भाषाविज्ञान का जानकार नहीं होता। मगर भाषा से सम्बंधित विषय पर टिप्पण लिखते समय उसे विषय की जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए।

  3. मैं हिंदी भाषा विशेषज्ञ नहीं हूँ अतः प्रस्तुत वर्धा हिंदी शब्दकोश विवाद में सम्मिलित होने योग्य न होते हुए भी मात्र उपभोक्ता की दृष्टि से अपने विचार निवेदित करूँगा| वर्तमान राजनीतिक स्थिति व हिंदी भाषा में शब्दों के विकास, विस्तार व प्रचार के संदर्भ में वर्धा हिंदी शब्दकोश अपने में एक अच्छा प्रयास हो सकता था लेकिन विषय वस्तु में इसे मैं डॉ: हरदेव बाहरी (१९०७-२०००) के हिंदी शब्दकोश से भिन्न नहीं समझता हूँ| डॉ: बाहरी ने संभवतः समकालीन परिस्थिति और अंग्रेजी भाषा के प्रभाव के कारण शिक्षित द्विभाषी भारतीय के लिए शब्दकोश की रचना की थी| उनके हिंदी शब्दकोश (ग्यारहवें संस्करण, १९९७!) में

    रेज़िडेंट—“अ० (पु०) रियासतों में ब्रिटिश सरकार का प्रतिनिधि” शब्द समयानुकूल देखा जा सकता है लेकिन स्वतंत्र भारत में आज इक्कीसवीं सदी के चलते वर्धा हिंदी शब्दकोश में समाविष्ट रेज़िडेंट—“(इं.) [सं-पु.] 1. देशी रियासतों में ब्रिटिश सरकार का प्रतिनिधि 2. किसी संस्थान, छात्रावास आदि संवासी।“ अनुपयुक्त है|

    वर्धा हिंदी शब्दकोश में डकोटा—“(इं.) [सं-पु.] एक प्रकार का बड़ा वायुयान।“ शब्द अनावश्यक है और ऐसा लगता है कि भारतीय चरित्र से खिलवाड़ करते नवभारत टाइम्ज़ के जोशे-ए-जवानी, फोटो धमाल इत्यादि से लिए शब्द डोप—(इं.) [सं-पु.] 1. नशीली दवा के असर में होने की अवस्था 2. मादक द्रव्य 3. (पत्रकारिता) समाचार लेखन हेतु जिस मूल सामग्री या जानकारी का प्रयोग पत्रकार एवं मीडियाकर्मी करते हैं।“ अथवा डेटिंग—(इं.) [सं-पु.] दो व्यक्तियों (विशेषकर प्रेमी-प्रेमिका) का पूर्वनियत समय और स्थान के अनुरूप आमोद-प्रमोद हेतु सम्मिलन।“ केवल अंग्रेजी भाषा पर हमारी अविरल निर्भरता दर्शाते हैं|

    • मैंने अपने लेख में स्पष्ट किया है कि लेखक ने वर्धा कोश देखा नहीं है। मैंने अमेरिका प्रवास से लौटने के बाद अपने कुछ मित्रों से जो चर्चाएँ सुनी, उनके आलोक में हिन्दी भाषा के विकास से संबंधित अपने विचार व्यक्त किए थे। वर्धा के कोश के बारे में, मैं कोई टिप्पण नहीं कर सकता।

      • आपने वर्धा हिंदी शब्दकोश देखा नहीं है लेकिन वर्धा हिन्दी शब्दकोश के बहाने आप विद्वानों से यह अवश्य पूछना चाहते हैं कि “हम अपने रोजाना के व्यवहार में अंग्रेजी के जिन शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं उनको कोश में क्यों नहीं शामिल किया जाना चाहिए?” राजनैतिक संदर्भ में आज हिंदी की दुर्दशा देख भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नेतृत्व भारत सरकार के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक रह चुके व्यक्ति से ऐसी ही अपेक्षा की जा सकती है| यदि अमरीका में आपसे भेंट हो जाती तो आपके विचार जानने से पहले मैं आपसे आपकी व्यावसायिक संबद्धता पूछता लेकिन एक ही समाज में मामा भांजा सभी प्राणी जीवन निर्वाह करते अस्तव्यस्त भारत में विभिन्न परिस्थितियों से लाभान्वित अपना अपना राग अलाप रहे हैं| देश के प्रसिद्ध भाषाविद् प्रोफेसर महावीर सरन जैन ने कभी सोचा है कि स्वतंत्र भारत में अँग्रेज़ी शब्दों का धड़ल्ले से क्योंकर प्रयोग होता है? हिंदी-भाषा सम्बंधित यह लेख और प्रवक्ता.कॉम के इन्हीं पन्नों पर प्रकाशित मोदी शासन विरोधी निबंध-श्रृंखला में आपका राजनीतिक लेख, वित्त मंत्री जेटली का बजटीय भाषण तथा प्रस्तुत बजट, दोनों आपके विचारों में अदूरदर्शिता प्रदर्शित करते हैं|

        • स्वतंत्र भारत का समाज धड़ल्ले से अंग्रेजी के शब्दों का क्यों प्रयोग करता है। आपने यह सवाल किया है। स्वतंत्र भारत के समाज से यह पूछने की ताकत मेरे में नहीं है। आप भारत के नव निर्वाचित प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी से सवाल कीजिए कि संघ की पाठशाला में दीक्षित होने के बावजूद उन्होंने संसद सें दिए गए प्रसिद्ध भाषण में धड़ल्ले से अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग क्यों किया। आपमें सामर्थ्य है तो मोदी जी को आदेश दें अथवा नागपुर से आदेश दिलवाएँ कि वे अपने वक्तव्यों में अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करना बंद करदें। वे तो भारत के बाहर अंग्रेजी में बोल रहे हैं।

          • मैं यह क्या देखा रहा हूँ? मेरी टिप्पणी पर एक कांग्रेसी वक्तव्य दाग “देश के प्रसिद्ध भाषाविद् प्रोफेसर महावीर सरन जैन” अपने नैतिक उत्तरदायित्व से नहीं बच सकते| तथाकथित स्वतंत्रता के तुरंत पश्चात से ही शासन के सभी वर्गों में मध्यमता और अयोग्यता के बीच भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नेतृत्व भारत सरकार के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक से सचमुच ऐसी ही आशा थी| नव निर्वाचित प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी आयु में आप से छोटे हैं और संभवतः स्वयं आपके कार्यकाल में रचाए भाषाई चक्रव्यूह से पीड़ित हैं| मेरे प्रश्न का उत्तर आप ही को देना होगा|

          • अगर आप यह सोचते हैं कि भारत के प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी मेरे कार्यकाल में रचाए गए भाषाई चक्रव्यूह से पीड़ित है तो आपमें यदि सामर्थ्य है तो आप उनकी पीड़ा का हरण कीजिए। शुभकामनाएँ।

  4. बचपन में हमारे पड़ोसी रहे एक परिवार के यहाँ मैं दुबारा गया तब मैं 17 वर्ष का हो चुका था। आंटी ने देखते ही बोला अरे ये लोग तो बड़े टाल टाल हो गए हैं। बहुत देर तक “टाल” का मतलब समझता रहा फिर उन्हीं ने कहा “पहले तो तुम लोग बड़े शार्ट थे अब तो खूब टाल हो गए हो” तब समझ आया की वे Tall कह रहीं हैं। अभी तक तो मैं उनकी भाषायी समझ पर तरस खाता था लेकिन आपका प्रेरक लेख पढ़ा तो आँखें खुल गईं ….. आज से टाल, शार्ट जैसे सभी प्रचलित शब्द हिन्दी के ही समझूँगा …आखिर एक भाषाविज्ञानी (?) ने यह कहा है। धन्यवाद ……नो नो … सॉरी… थेंक यू।

    • जैसे नदी की धारा बहती रहती है वैसे ही भाषा भी परिवर्तित होती रहती है। कबीरदास ने इसी कारण कहा था – भाखा बहता नीर।

      • आ. जैन साहब-नमस्कार।
        कबीर दास का निम्न उद्धरण भी सुना ही होगा।
        “भाषा तो सन्तन ने कहिया ,
        संसकिर्त्त रिषिन की बानी है जी।
        ज्यों काली-पीली धेनु दुहिया,
        एक हीं छीर सों जानी है जी ॥”
        – कबीरदास

        • प्रिय मधु सूदन जी
          आपने कबीर का दोहा उद्धृत किया है। कबीर ने अपनी रचनाओं में कहीं भी भाषा शब्द का प्रयोग नहीं किया है। कबीरदास ने सर्वत्र भाखा का प्रयोग किया है। उद्धृत दोहे का अर्थ है –
          संस्कृत तो वैदिक ऋषियों की वाणी है। संत तो भाखा बोलते हैं। जिस प्रकार अटल जी की राजधर्म का पालन न करने की प्रसिद्ध वाणी में से नकारात्मक प्रत्यय को हटाकर यू ट्यूब पर नकली सी. डी. डाल दी गई और आपने मुझसे उस नकली सीडी को देखने की वकालत की थी, कृपया करके वही हाल कबीर के साथ करने का उपक्रम न करें। जो शब्द हमारे जीवन में घुलमिल गए हैं, वे हमारी भाषा के अंग है। जिस प्रकार ताजमहल हमारा गौरव है, वैसे ही जो शब्द हमारे व्यवहार में घुलमिल गए हैं, वे हमारी भाषा के गौरव हैं। सन् 1958 से लेकर सन् 1962 तक मेरा संघ के रज्जू भैया से विचार विमर्श हो चुका है। मैं उस समय छात्र था। वे अध्यापक थे। हमारी मुलाकात विश्वविद्यालय के तत्कालीन रजिस्ट्रार श्री के. एल. गोविल जी के घर पर होती थी। हम दोनों गोविल साहब को चाचा जी कहते थे। मैं भारत की सामासिक संस्कृति को नहीं छोड़ सकता। मेरे विचारों से आपकी भावनाएँ आहत हुई हों, तो इसके लिए आपसे माँफी माँगता हूँ।

    • बहुत सुन्दर| आप की टिप्पणी ने विषय की नीरसता को भंग करते क्षण भर के लिए अधेड़ उम्र में मेरी आँखों में मुस्कान भर दी है| विस्मयाभिभूत, अब सोचता हूँ कि नदी पर बाँध द्वारा उसके प्राकृतिक प्रवाह को नियंत्रित करते किस क्षेत्र को सींचा जा रहा है?

      • आपकी सकारात्मक टिप्पणी के लिए आपको धन्यवाद।

        • अनुपम दीक्षित की टिप्पणी पर उनकी सराहना करते प्रतिक्रिया में मेरी टिप्पणी के दो वाक्यों में पहला अनुपम दीक्षित व दूसरा प्रश्नवाचक वाक्य आपके लिए है| आप बहुत सरलता से पूछे हुए प्रश्नों को टाल जाते हैं| भाषाई चक्रव्यूह के कारण पीड़ा के हरण करने का काम मुझ पर सौंप आप मीठी नींद कैसे सो सकते हैं? आपके कार्यकाल में रचाए गए भाषाई चक्रव्यूह से पीड़ित किसी की पीड़ा का हरण कर पाने का मेरे में सामर्थ्य न भी हो, प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी अब इस स्थिति में हैं कि भाषाई चक्रव्यूह को भेद राष्ट्र हित में कोई स्थाई समाधान अवश्य ढूँढ़ निकालें गे| परन्तु मेरे प्रश्न के उत्तर का क्या हुआ?

          • जिसको आप भाषाई चक्रव्यूह मानते हैं, वैसा मैं नहीं मानता। लगता है आप किसी विशेष विचारधारा के चक्रव्यूह से आक्रांत हैं। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से विचार कीजिए। आपको उत्तर मिल जाएगा। सन् 1958 से लेकर सन् 1961 के दौरान हमारी मुलाकात संघ के रज्जू भैया से होती थी। उनका विचार था कि हमारे देश की मूल गंगा को आक्रांताओं की संस्कृतियों ने गंदा कर दिया है। हमें गंगा को निर्मल बनाना है। हमारी सोच अलग थी। हम उनसे कहते थे कि आगत धाराएँ हमारी गंगा की मूल स्रोत भागीरथी में आकर मिलने वाली अलकनंदा,धौली गंगा,अलकन्दा, पिंडर और मंदाकिनी धाराओं की श्रेणी में आती हैं। हमारी सोच आज भी यही है। हमारे भाजपा के बहुत से मित्र रहे हैं और अब भी हैं। मगर जो लोग समाज की समरसता को तोड़ते हैं, वे देशद्रोही हैं। वे सीमा पार के आतंकवादियों के मंसूबों के सहायक हैं। गोवा के भाजपा के मुख्य मंत्री मनोहर पारिर्कर ने राज्य विधान सभा में जो वक्तव्य दिया है, हम उसका स्वागत करते हैं और इसके लिए उनका अभिनंदन करते हैं। उन्होंने विधान सभा को आश्वस्त किया कि गोवा के समुद्र तटों पर महिलाएँ पहले की तरह बिकनी पहन सकेंगी। उस पर कोई पाबंदी नहीं लगाई जाएगी। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण और प्रासंगिक बयान यह है कि हमारी सरकार श्री राम सेना के प्रमुख प्रमोद मुतालिक को राज्य में साम्प्रदायिकता नहीं बढ़ाने देगी।

  5. समाज और लोग न तो व्‍याकरण पढ़कर भाषा का प्रयोग करते हैं और शब्‍द प्रयोग के लिए भी शब्‍दकोश नहीं देखते हैं, समाज के लोग शब्‍दों पर अर्थ आरोपित करते हैं। भाषाविदों की भी जरूरत नहीं पढ़ती। गांव के लोग अंग्रेजी का नेटवर्क नहीं बोल पाते तो उन्‍होंने उसे अपनी सुविधा के मुताबिक नेटाउर, नटौर, और कहीं कहीं तो नटवर भी बना डाला है। इसी प्रकार सिमकार्ड उन्‍हें लम्‍बाा और बोझिल लगा तो इसे सिम्मिया, सिमा, सिमवा आदि बना डाला है। मैमोरी कार्ड भी ऐसा ही लगा तो इसे चिपा या चिप्पिया कह डाला। ई-टॉपअप का इटाप बनाकर अपने प्रीपेड कार्ड का बैंलेन्‍स डलाते रहते हैं। ऐसे ही एटीएम आदि आदि भी। कुल मिलाकर भाषा को लेकर भाषाविद परेशान हैं, काम चलाने वाले तो अपना काम चला ही रहे हैं। सारा जीवन बहुत हुआ तो 2000 शब्‍दों में बीत जाता है। बहुत पढ़े लिखे और साहित्‍यकार हुए तो 5000 शब्‍द प्रयोग कर लेंगे।
    बस ऐसे ही चलता रहेगा – कोश बने थे, बने हैं और बनते रहेंगे। ऐसे ही भाषा भी चलती रहेग

    • आपके विचारों से सहमत हूँ।भाषा का अन्तिम निर्णायक उसका प्रयोक्ता होता है। दूसरे काल की भाषा के आधार पर उस काल का वैयाकरण संकालिक भाषा के व्याकरण के पुनः नए नियम बनाता है। व्याकरण के नियमों में भाषा को बाँधने की कोशिश करता है। भाषा गतिमान है। पुनः पुनः नया रूप धारण करती रहती है। भाषा वह है जो भाषा के प्रयोक्ताओं द्वारा बोली जाती है। सन् 2014 में हमारी और आपकी संतति जो हिन्दी बोल रही है उस भाषा को हिन्दी के समाचार पत्र, हिन्दी के विविध टी. वी. चैनल तथा हिन्दी की फिल्मों के संवाद लेखक अपना रहे हैं। उसका प्रयोग कर रहे हैं। भविष्य में हिन्दी भाषा का रूप वह होगा जो हमारे एवं आपके प्रपौत्रों तथा प्रपौत्रियों के काल की पीढ़ी द्वारा बोली जाएगी। भाषा का मूल आधार उस के समाज के पढ़े लिखे द्वारा बोली जानेवाली भाषा ही होती है। इसी के आधार पर किसी काल का वैयाकरण मानक भाषा के नियमों का निर्धारण करता है। जिनको संस्कृत के प्रति अगाध श्रद्धा है उनकी जानकारी के लिए निवेदन करना चाहता हूँ कि संस्कृत के महान वैयाकरण पाणिनी ने वैदिक काल की दैव भाषा को आधार मानकर अपने ग्रंथ ´अष्टाध्यायी’ की रचना नहीं की। मेरे इस कथन एवं मत को जानने के लिए ´शिक्षा ग्रंथों’ एवं ´प्रातिशाख्यों’ का गहन अध्ययन करना जरूरी है। पाणिनी ने अपने काल के गुरुकुलों में बोली जाने वाली (जो वेदों की छान्दस भाषा से अलग थी) लौकिक संस्कृत को आधार बनाकर अष्टाधायायी की रचना की । महाभाष्यकार पतंजलि के ´पतंजलिमहाभाष्य’ से एक प्रसंग प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसमें उन्होंने भाषा के प्रयोक्ता का महत्व प्रतिपादित किया है। प्रयोक्ता व्याकरणिक नियमों का भले ही जानकार नहीं होता किन्तु वह अपनी भाषा का प्रयोग करता है। व्याकरणिक नियमों के निर्धारण करने वाले तथा भाषा का प्रयोग करनेवाले का पतंजलि-महाभाष्य में रोचक प्रसंग मिलता है। वैयाकरण तथा रथ चलानेवाले के बीच के संवाद का प्रासंगिक अंश उद्धृत है-
      “वैयाकरण ने पूछा – इस रथ का ‘प्रवेता´ कौन है?
      सारथी का उत्तर – आयुष्मान्, मैं इस रथ का ‘प्राजिता´ हूँ।
      (प्राजिन् = सारथी, रथ-चालक, गाड़ीवान)
      वैयाकरण – ´प्राजिता’ अपशब्द है।
      सारथी का उत्तर – (देवानां प्रिय) आप केवल ‘प्राप्तिज्ञ´ हैं; ‘इष्टिज्ञ´ नहीं।
      (‘प्राप्तिज्ञ´ = नियमों का ज्ञाता; ‘इष्टिज्ञ´ = प्रयोग का ज्ञाता)
      वैयाकरण – यह दुष्ट ‘सूत´ हमें ´दुरुत’ (कष्ट पहुँचाना) रहा है।
      सूत- आपका ´दुरुत’ प्रयोग उचित नहीं है। आप निंदा ही करना चाहते हैं तो ´दुःसूत’ शब्द का प्रयोग करें।

  6. Adarniya Jain Sahib, Maine apke hindi visayak vichar padhe. Anya vidvano ke bhi vichar jo apke vichar par adharit hain padhe. Main apane ko aap se sahamat is liye pata hun ki veda men bhi kaha gaya hai “let the noble thoughts come from all sides” Hamara kaam tab accha chalega jab ham aadaan bhi karen aur pradaan bhi karane ki sthiti men hon.Bhasa ko bojhil na bana kar sampresan ke gunon se yukta rakha jaaya tabhi usame svaad aayega.

    • यह पढ़कर सुखद प्रतीति हुई कि आप मेरे विचारों से सहमत है। भाषा का प्रमुख गुण एवं धर्म उसकी संप्रेषण शक्ति है। इसी को लक्ष्य करके मैंने लेख में यह प्रतिपादित किया कि ‘भाषा की क्षमता एवं सामर्थ्य शुद्धता से नहीं, निखालिस होने से नहीं, ठेठ होने से नहीं, अपितु विचारों एवं भावों को व्यक्त करने की ताकत से आती है’.

  7. हिन्दी के विरुद्ध एक सुनियोजित षड्यंत्र किया जा रहा है. हमारे शब्दकोश में इतने अच्छे भले शब्द होने के बावजूद हम अंगरेजी शब्दों को सिर्फ इसलिए स्वीकार कर ले क्योंकी कुछ काले अंग्रेजो की आदत हो गई है की प्रत्येक वाक्य में डो अंगरेजी शब्द घुसाएंगे. थोड़े बहुत अंगरेजी शब्दों का निभाव सम्भव है. लेकिन इसे अनियंत्रित होने से रोकना होगा.

    • किसी भी भाषा रूपी नदी का प्रवाह उसके व्याकरण के तटों द्वारा नियंत्रित एवं मर्यादित होता है।

  8. Are we free as Hindusthanis? As far asI can see this is doubtful.
    We are leaderless nation and there is no pride in us for our own things.
    Without pride in our own language our freedom is not a freedom.
    We all wish to have pure food, pure milk, pure gold and silver for ourselves but when it comes to the language it is a shame on us that from teacher to student, president to sar punch, prime minister to peon,no body can speak in one language and it looks so disgusting that it is a mixture of language and this is the reason that we are unable to express properly.
    We must communicate in one language at a time and insist on the purity of language and it must start from childhood and schools.
    Unless this happens we shall remain second grade nation.
    The media, news papers, television , films are also responsible for this shameful situation.
    Now the question is how to change all this?
    This will be the most challenging job but we must start from some where to correct it.

    • यदि आपमें साहस है तो नव निर्वाचित प्रधान मंत्री को आदेशित करें कि वे अपने भाषणों में अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग न करें।

  9. “वर्धा हिन्दी शब्दकोश” के बहाने से हिन्दी के विकास के संबंध में कुछ विचार शीर्षक लेख पर प्राप्त विद्वानों की प्रतिक्रियाओं के संदर्भ में पुनः विचार
    प्रोफेसर महावीर सरन जैन

    मेरे लेख पर जिन विद्वानों ने प्रतिक्रियाएँ व्यक्त की हैं उन सबके प्रति मैं यथायोग्य स्नेह, आदर, अत्मीय भाव व्यक्त करता हूँ। हम सबका एक ही लक्ष्य है – हिन्दी का विकास हो। हम सबके रास्ते अलग हो सकते हैं। हम सबकी सोच भिन्न हो सकती है। मैंने अपने अब तक के पूरे जीवन में हिन्दी की प्रगति और विकास के लिए काम किया है। आपने भी यही किया है। इस दृष्टि से हम सब एक ही पथ के पथिक हैं। मैं सबके अलग अलग बिन्दुवार उत्तर नहीं देना चाहता। केवल अपनी सोच एवं चिंतन के कुछ विचार सूत्र आपके विचार के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ –
    1. ऐतिहासिक भाषाविज्ञान एवं एककालिक अथवा संकालिक भाषाविज्ञान की दृष्टियाँ समान नहीं हैं। उनमें अन्तर हैं। शब्द प्रयोग के संदर्भ में जब ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की दृष्टि से विचार किया जाता है तो यह पता लगाने की कोशिश की जाती है कि भाषा के शब्द का स्रोत कौन सी भाषा है। शब्द प्रयोग के संदर्भ में जब एककालिक अथवा संकालिक भाषाविज्ञान की दृष्टि से विचार किया जाता है तो भाषा का प्रयोक्ता जिन शब्दों का व्यवहार करता है, वे समस्त शब्द उसकी भाषा के होते हैं। उस धरातल पर कोई शब्द स्वदेशी अथवा विदेशी नहीं होता।
    2. प्रत्येक जीवन्त भाषा में अनेक स्रोतों से शब्द आते रहते हैं और उस भाषा के अंग बनते रहते हैं।
    3. भाषा में शुद्ध एवं अशुद्ध का, मानक एवं अमानक का, सुसंस्कृत एवं अपशब्द का तथा आजकल भाषा के मानकीकरण एवं आधुनिकीकरण के बीच वाद-विवाद होता रहा है और होता रहेगा। व्याकरणिक भाषा के नियमों का निर्धारण करता है। वह शब्दों को बाँटता है। उसकी दृष्टि में कुछ शब्द सुसंस्कृत होते हैं एवं कुछ अपशब्द होते हैं। निर्धारित नियम स्थिर होते हैं। इसके विपरीत भाषा की प्रकृति बदलना है। भाषा बदलती है। यह बदली भाषा निर्धारित नियमों के अनुरूप नहीं होती। व्याकरणिक को बदली भाषा भ्रष्ट लगती है। मगर उसके कहने से भाषा अपने प्रवाह को, अपनी गति को, अपनी चाल को रोकती नहीं है। बहती रहती है। बहना उसकी प्रकृति है। इसी कारण कबीर ने कहा था – ‘भाखा बहता नीर´।
    4. भाषा का अन्तिम निर्णायक उसका प्रयोक्ता होता है। दूसरे काल की भाषा के आधार पर उस काल का व्याकरणिक संकालिक भाषा के व्याकरण के पुनः नए नियम बनाता है। व्याकरण के नियमों में भाषा को बाँधने की कोशिश करता है। भाषा गतिमान है। पुनः पुनः नया रूप धारण करती रहती है।
    5. भाषा वह है जो भाषा के प्रयोक्ताओं द्वारा बोली जाती है। सन् 2014 में हमारे आपकी संतति जो हिन्दी बोल रही है उसके अनुरूप भाषा को हिन्दी के समाचार पत्र, हिन्दी के विविध टी. वी. चैनल, हिन्दी की फिल्में आदि अपना रही है। उसका प्रयोग कर रही है। भविष्य में हिन्दी भाषा का रूप वह होगा जो हमारे एवं आपके प्रपौत्रों तथा प्रपौत्रियों के काल की पीढ़ी द्वारा बोली जाएगी। भाषा का मूल आधार उस के समाज के पढ़े लिखे द्वारा बोली जानेवाली भाषा ही होती है। इसी के आधार पर किसी काल का वैयाकरण मानक भाषा के नियमों का निर्धारण करता है। जिनको संस्कृत के प्रति अगाध श्रद्धा है उनकी जानकारी के लिए निवेदन करना चाहता हूँ कि संस्कृत के महान वैयाकरण पाणिनी ने वैदिक काल की दैव भाषा को आधार मनाकर अपने ग्रंथ ´अष्टाध्यायी’ की रचना नहीं की। मेरे इस कथन एवं मत को जानने के लिए ´शिक्षा ग्रंथों’ एवं ´प्रातिशाख्यों’ का गहन अध्ययन करना जरूरी है। पाणिनी ने अपने काल के गुरुकुलों में बोली जाने वाली (जो वेदों की छान्दस भाषा से अलग थी) लौकिक संस्कृत को आधार बनाकर अष्टाधायायी की रचना की ।
    6. महाभाष्यकार पतंजलि के ´पतंजलिमहाभाष्य’ से एक प्रसंग प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसमें उन्होंने भाषा के प्रयोक्ता का महत्व प्रतिपादित किया है। प्रयोक्ता व्याकरणिक नियमों का भले ही जानकार नहीं होता किन्तु वह अपनी भाषा का प्रयोग करता है। व्याकरणिक नियमों के निर्धारण करने वाले तथा भाषा का प्रयोग करनेवाले का पतंजलि-महाभाष्य में रोचक प्रसंग मिलता है। वैयाकरण तथा रथ चलानेवाले के बीच के संवाद का प्रासंगिक अंश उद्धृत है-
    “वैयाकरण ने पूछा – इस रथ का ‘प्रवेता´ कौन है?
    सारथी का उत्तर – आयुष्मान्, मैं इस रथ का ‘प्राजिता´ हूँ।
    (प्राजिन् = सारथी, रथ-चालक, गाड़ीवान)
    वैयाकरण – ´प्राजिता’ अपशब्द है।
    सारथी का उत्तर – (देवानां प्रिय) आप केवल ‘प्राप्तिज्ञ´ हैं; ‘इष्टिज्ञ´ नहीं।
    (‘प्राप्तिज्ञ´ = नियमों का ज्ञाता; ‘इष्टिज्ञ´ = प्रयोग का ज्ञाता)
    वैयाकरण – यह दुष्ट ‘सूत´ हमें ´दुरुत’ (कष्ट पहुँचाना) रहा है।
    सूत- आपका ´दुरुत’ प्रयोग उचित नहीं है। आप निंदा ही करना चाहते हैं तो ´दुःसूत’ शब्द का प्रयोग करें।
    7.हिन्दी में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग हो रहा है। संसार की प्रत्येक भाषा अन्य भाषा से शब्द ग्रहण करती है और उसे अपनी भाषा में पचा लेती है। संसार की प्रत्येक प्रवाहशील भाषा में परिवर्तन होता है। संस्कृत भाषा के भारत के विभिन्न भागों एवं विभिन्न सामाजिक समुदायों में व्यवहार एवं प्रसार के कारण दो बातें घटित हुईं। संस्कृत ने भारत के प्रत्येक क्षेत्र की भाषा को तो प्रभावित किया ही और इस तथ्य से सब सुपरिचित हैं, सम्प्रति मैं यह निवेदन करना चाहता हूँ कि संस्कृत भी अन्य भाषाओं से प्रभावित हुई। संस्कृत में ‘आर्य भाषा क्षेत्र’ की संस्कृतेतर जन भाषाओं एवं आर्येतर भाषाओं से शब्दों को ग्रहण कर उन्हें संस्कृत की प्रकृति के अनुरूप ढालने की प्रवृत्ति का विकास हुआ। इसके कारण एक ओर जहाँ संस्कृत का शब्द भंडार अत्यंत विशाल हो गया, वहीं आगत शब्द संस्कृत की प्रकृति के अनुरूप ढलते चले गए। भारतीय संस्कृति का गहन अध्ययन करने वाले विद्वानों का मत है कि संस्कृत वाङ्मय की अभिव्यक्ति में दक्षिणात्य कवियों, चिन्तकों, दार्शनिकों एवं कलाकारों का अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है (रामधारी सिंह ‘दिनकर’: संस्कृति के चार अध्याय, पृ0 44-47)।
    संस्कृत भाषा में अधिकांश शब्दों के जितने पर्याय रूप मिलते हैं उतने संसार की किसी अन्य भाषा में मिलना विरल है। ‘हलायुध कोश’ में स्वर्ग के 12, देव के 21, ब्रह्मा के 20, शिव के 45, विष्णु के 56 पर्याय मिलते हैं। इसका मूल कारण यह है कि संस्कृत भाषा का जिन क्षेत्रों में प्रचार-प्रसार एवं प्रयोग-व्यवहार हुआ, उन क्षेत्रों की भाषाओं के शब्द संस्कृत में आते चले गए।
    8.एक लेख में, मैंने प्रतिपादित किया था कि भाषा की प्रकृति नदी की धारा की तरह होती है। कुछ विद्वानों ने सवाल उठाया कि क्या नदी की धारा को अनियंत्रित, अमर्यादित एवं बेलगाम हो जाने दें। मैंने उत्तर दिया कि नदी की धारा अपने तटों के द्वारा मर्यादित रहती है। भाषा अपने व्याकरण की व्यवस्था एवं संरचना के तटों के द्वारा मर्यादित रहती है। भाषा में बदलाव एवं ठहराव दोनों साथ साथ रहते हैं। ‘शब्दावली’ गतिशील एवं परिवर्तनशील है। व्याकरण भाषा को ठहराव प्रदान करता है। ऐसा नहीं है कि ‘व्याकरण’ कभी बदलता नहीं है। बदलता है मगर बदलाव की रफ़तार बहुत धीमी होती है। ‘शब्द’ आते जाते रहते हैं। हम विदेशी अथवा अन्य भाषा से शब्द तो आसानी से ले लेते हैं मगर उनको अपनी भाषा की प्रकृति के अनुरूप ढाल लेते हैं। ‘शब्द’ को अपनी भाषा के व्याकरण की पद रचना के अनुरूप विभक्ति एवं परसर्ग लगाकर अपना बना लेते हैं। हम यह नहीं कहते कि मैंने चार ‘फिल्म्स’ देखीं; हम कहते हैं कि मैंने चार फिल्में देखीं।
    9.हिन्दी में कुछ शुद्धतावादी विद्वान हैं जो ‘भाषिक शुद्धता’ के लिए बहुत परेशान, चिन्तित एवं उद्वेलित रहते हैं और इस सम्बंध में आए दिन, गाहे बगाहे लेख लिखते रहते हैं। मैंने वे तमाम लेख पढ़े हैं और इसके बावजूद यह लेख लिखा है और इसी संदर्भ में, मैंने लेख में लिखा है कि ““प्रजातंत्र में शुद्ध हिन्दी, क्लिष्ट हिन्दी, संस्कृत गर्भित हिन्दी जबरन नहीं चलाई जानी चाहिए”। विद्वान महोदय से निवेदन है कि संदर्भ को ध्यान में रखकर “शुद्ध” शब्द का अभिधेयार्थ नहीं अपितु व्यंग्यार्थ ग्रहण करने की अनुकंपा करें।
    10. कोई भी जीवंत एवं प्राणवान भाषा ‘अछूत’ नहीं होती। कोई भी जीवंत एवं प्राणवान भाषा अपने को शुद्ध एवं निखालिस बनाने के व्यामोह में अपने घर के दरवाजों एवं खिड़कियों को बंद नहीं करती। यदि किसी भाषा को शुद्धता की जंजीरों से जकड़ दिया जाएगा, निखालिस की लक्ष्मण रेखा से बाँध दिया जाएगा तो वह धीरे धीरे सड़ जाएगी और फिर मर जाएगी।
    11. जब प्रेमचंद ने उर्दू से आकर हिन्दी में लिखना शुरु किया था तो उनकी भाषा को देखकर छायावादी संस्कारों में रँगे हुए आलोचकों ने बहुत नाक भौंह सिकौड़ी थी तथा प्रेमचंद को उनकी भाषा के लिए पानी पी पीकर कोसा था। मगर प्रेमचंद की भाषा खूब चली। खूब इसलिए चली क्योंकि उन्होंने प्रसंगानुरूप किसी भी शब्द का प्रयोग करने से परहेज़ नहीं किया।
    12. ऐसा नहीं है कि केवल हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में ही अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग होता है और अंग्रेजी बिल्कुल अछूती है। अंग्रेजी में संसार की उन सभी भाषाओं के शब्द प्रयुक्त होते हैं जिन भाषाओं के बोलने वालों से अंग्रेजो का सामाजिक सम्पर्क हुआ। चूँकि अंग्रेजों का भारतीय समाज से भी सम्पर्क हुआ, इस कारण अंगेजी ने हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों का आदान किया है। यदि ब्रिटेन में इंडियन रेस्तरॉ में अंग्रेज समोसा, इडली, डोसा, भेलपुरी खायेंगे, खाने में ‘करी’, ‘भुना आलू’ एवं ‘रायता’ मागेंगे तो उन्हें उनके वाचक शब्दों का प्रयोग करना पड़ेगा। यदि भारत का ‘योग’ करेंगे तो उसके वाचक शब्द का भी प्रयोग करना होगा और वे करते हैं, भले ही उन्होंने उसको अपनी भाषा में ‘योगा’ बना लिया है जैसे हमने ‘हॉस्पिटल’ को ‘अस्पताल’ बना लिया है। जिन अंग्रेजों ने भारतविद्या एवं धर्मशास्त्र का अध्ययन किया है उनकी भाषा में अवतार, अहिंसा, कर्म, गुरु, तंत्र, देवी, नारद, निर्वाण, पंडित, ब्राह्मन, बुद्ध, भक्ति,भगवान, भजन, मंत्र, महात्मा, महायान, माया, मोक्ष, यति, वेद, शक्ति, शिव, संघ, समाधि, संसार, संस्कृत, साधू, सिद्ध, सिंह, सूत्र, स्तूप, स्वामी, स्वास्तिक, हनुमान, हरि, हिमालय आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। भारत में रहकर जिन अंग्रेजों ने पत्र, संस्मरण, रिपोर्ट, लेख आदि लिखे उनकी रचनाओं में तथा वर्तमान इंगलिश डिक्शनरी में अड्डा, इज्जत, कबाब, कोरा, कौड़ी, खाकी, खाट, घी, चक्कर, चटनी, चड्डी, चमचा, चिट, चोटी, छोटू, जंगल, ठग, तमाशा, तोला, धतूरा, धाबा, धोती, नबाब, नमस्ते, नीम, पंडित, परदा, पायजामा, बदमाश, बाजार, बासमती, बिंदी, बीड़ी, बेटा, भाँग, महाराजा, महारानी, मित्र, मैदान, राग, राजा, रानी, रुपया, लाख, लाट, लाठी चार्ज, लूट, विलायती, वीणा, शाबास, सरदार, सति, सत्याग्रह, सारी(साड़ी), सिख, हवाला एवं हूकाह(हुक्का) जैसे शब्दों को पहचाना जा सकता है। डॉ. मुल्क राज आनन्द ने सन् 1972 में ‘पिजि़न-इंडियन: सम नोट्स ऑन इंडियन-इंगलिश राइटिंग’ में यह प्रतिपादित किया था कि ऑॅक्सफोर्ड इंगलिश डिक्शनरी में 900 से अधिक भारतीय भाषाओं के शब्द हैं तथा इनकी संख्या हर साल बढ़ती जा रही है।
    (देखें – आस्पेक्ट्स ऑॅफ् इंडियन राइटिंग इन इंगलिश, सम्पादकः एम. के. नाइक, मद्रास, पृ. 24-44,(1979))
    सन् 2012 में ऑॅक्सफोर्ड इंगलिश डिक्शनरी के अधिकारी की प्रेस रिलीज़ हुई जिसमें उनका वक्तव्य था कि इस साल डिक्शनरी में विदेशी भाषाओं के करीब दो हजार शब्द सम्मिलित किए गए हैं और उनमें से करीब दो सौ शब्द भारतीय भाषाओं से आगत हैं।
    प्रोफेसर महावीर सरन जैन
    सेवानिवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, भारत सरकार
    123, हरि एन्कलेव
    बुलन्द शहर – 203001

    • hindi bhasa ke vikas ke sambandha men aapke kucha vichar lekh padha. atyanta tazgi prapta hui. apki rachna dharmita ko pranam. Pradyumna Shah Singh

      • प्रिय सिंह जी
        आपके व्यक्त विचारों के लिए आपको साधुवाद।

  10. ‘भाषा की क्षमता एवं सामर्थ्य शुद्धता से नहीं, निखालिस होने से नहीं, ठेठ होने से नहीं, अपितु विचारों एवं भावों को व्यक्त करने की ताकत से आती है’.
    Sadhuwad!

    • आपको मेरा कथन पसंद आया। यह जानकर प्रसन्नता हुई।

  11. शब्दों के त्याग और ग्रहण को लेकर ,काफ़ी विचार-विमर्ष हुआ .शब्दों का किसी संस्कृति विशेष और जातीय संस्कारों से गहन संबध होता है ,नए शब्द अपने परिवेश साथ लाते हैं .एक सीमा तक उनके साथ निभाव उचित है , लेकिन हिन्दी भाषा की प्रकृति और प्रवृत्ति की अनुकूलता का विचार भी आवश्यक है .इस विषय में मेरा आग्रह -.

    कुछ नहीं है मेरे पास इनके सिवा ,
    मत छीनो मुझसे ये शब्द !
    धरोहर है पीढ़ियों की .
    शताब्दियों की ,सहस्राब्दियों की.
    बहुत कुछ खो चुकी हैं आनेवाली पीढ़ियाँ ,
    अब ग्रहण करने दो
    मुक्त मन यह दाय !
    *
    दुरूह नहीं शब्द ,
    अपने बोध समेट लाए हैं,
    उन्हें अतीत से मत काटो
    कि उस निरंतरता से बिखर
    वर्तमान का अनिश्चित खंड-भर रह जाएँ !
    हम, हम नहीं रहेंगे .
    बहुत से शब्दों से कट कर
    जिनमें हमारी संस्कृति की,
    सुगंध भरी पहचान समाई है.
    *
    केवल शब्द नहीं ,
    ध्वनित काल है यह,
    जो पुलक भर देता है
    मानस में ,
    अलभ्य मनोभूमियों तक पहुँचा कर
    सेतु बन कर
    दूरस्थ काल-क्रमों के बीच
    और अखंड हो जाते हैं हम !

    – प्रतिभा सक्सेना.
    *

    • प्रतिभा जी अभिभूत हुआ आपकी कविता पढ़ कर आधुनिक विद्वानों की समन्वयात्मक बातों को सुन कर मन उदास हो गया था पर अब हर्षित हूँ.

      बिपिन कुमार सिन्हा

  12. “प्रजातंत्र में शुद्ध हिन्दी, क्लिष्ट हिन्दी, संस्कृत गर्भित हिन्दी जबरन नहीं चलाई जानी चाहिए”; लेखक महोदय ने ऐसा लिखा। परन्तु क्या अशुद्ध फारसी-अरबी-अंग्रेजी़ गर्भित-भाषा लिखनी चाहिये? यह कौन सी, कहाँ की और कैसी विचित्र परिभाषा है प्रजातन्त्र की?

    क्या पडौ़सी पाकिस्तान अथवा बंगला देश में भी ऐसा ही हो रहा है, किया जा रहा है तथा माना जा रहा है कि केवल यहीं पर ‘इण्डिया दैट इज़ भारत’ में ही?

    यही गति और विचार शैली यदि बनी रही तो अचिर काल में ही हम देखेंगे कि अंग्रेजी-उर्दू-फारसी में कतिपय हिन्दी संस्कृत के शब्दों का छौंका लगायी हुई नवनिर्मित नवीन भाषा ही हिन्दी नाम से परोसी जा रही होगी – प्रचारित प्रसारित की जा रही होगी; और तब हम पूर्णतः एक​ प्रजातान्त्रिक देश कहलाने के योग्य हो जाँयगे!

    डा० रणजीत सिंह

    • हिन्दी में कुछ शुद्धतावादी विद्वान हैं जो ‘भाषिक शुद्धता’ के लिए बहुत परेशान, चिन्तित एवं उद्वेलित रहते हैं और इस सम्बंध में आए दिन, गाहे बगाहे लेख लिखते रहते हैं। मैंने वे तमाम लेख पढ़े हैं और इसके बावजूद यह लेख लिखा है और इसी संदर्भ में, मैंने लेख में लिखा है कि ““प्रजातंत्र में शुद्ध हिन्दी, क्लिष्ट हिन्दी, संस्कृत गर्भित हिन्दी जबरन नहीं चलाई जानी चाहिए”। विद्वान महोदय से निवेदन है कि संदर्भ को ध्यान में रखकर “शुद्ध” शब्द का अभिधेयार्थ नहीं अपितु व्यंग्यार्थ ग्रहण करने की अनुकंपा करें। प्रजातंत्र में और जबरन चलाने पर विशेष ध्यान देंगे तो शब्द प्रयोग का व्यंग्यार्थ स्वतः स्पष्ट हो जाएगा। कोई भी जीवंत एवं प्राणवान भाषा ‘अछूत’ नहीं होती। कोई भी जीवंत एवं प्राणवान भाषा अपने को शुद्ध एवं निखालिस बनाने के व्यामोह में अपने घर के दरवाजों एवं खिड़कियों को बंद नहीं करती। यदि किसी भाषा को शुद्धता की जंजीरों से जकड़ दिया जाएगा, निखालिस की लक्ष्मण रेखा से बाँध दिया जाएगा तो वह धीरे धीरे सड़ जाएगी और फिर मर जाएगी।
      समाचार पत्रों में तथा टी. वी. के हिन्दी चैनलों एवं हिन्दी की फिल्मों में उस भाषा का प्रयोग हो रहा है जिसे हमारी संतति बोल रही है। भविष्य की हिन्दी का स्वरूप हमारे प्रपौत्र एवं प्रपौत्रियों की पीढ़ी के द्वारा बोली जानेवाली हिन्दी के द्वारा निर्धारित होगा जिसका निर्धारण उनके अपने काल में भाषा के वैयाकरण बनाएँगे ।

  13. Namaskar Mahbeer Saran ji,mera naam suresh kumar Binjola hai.”Vardh Hondi kosh ” se sambandhi lekh 2bar padha,apka Hindi ke geyan,anubhav ke sarahana karta hun,sath hi apke sujhwe-Lok parchelit Hindi Shabdon ko paryog aam jan dwara karna awm un shabdon ko Hindi Sabdekosh mein asthan dene se ush shabdekosh ko Hindi Shabde Kosh na kahkar -“Hindi shabda kosh-dainik paryog ke liye” likha jana chahiye,jisse Hindi Sanskiriti/Bhasha ka mool jo ki Sanskirit Bhasa se koi anwasek bhranti paida na ho.dhanyevad.

  14. शब्दों को स्वीकार करने में उदार दृष्टि अपनानी चाहिए,इस से सहमत हैं॰लेकिन हिन्दी भाषा के किसी भी शब्द कोश में हिंदीतर भाषाओं और विदेशी भाषाओं से जो नए शब्द आ गए हैं,उन को भी समाहित करना होगा॰कारण यह है कि आज हिन्दी केवल हिन्दी प्रदेश की स्थानीय भाषा ही नहीं है,वह तो विश्व भर में एक संपर्क और जन सम्प्रेषण की भाषा बन गयी है॰स्वाभाविक है कि उस का शब्द कोश भी अंतर राष्ट्रीय होगा॰खेद इस बात का है कि वर्धा कोश तो एक स्थानीय हिन्दी कोश जैसा बन गया है,इस के निर्माण में अपेक्षित व्यापक दृष्टि नहीं है,यही मुख्य आपत्ति है॰महावीर शरणजी के विचार ध्यातव्य हैं॰

  15. आदरणीय जैन जी हिन्दी के प्रखर विद्वान हैं, सम्माननीय हैं, अत; उनका आदर रखते हुए मेँ जो कि हिन्दी का कोई विशेषज्ञ नहीं है, मात्र एक विदयार्थी है, कुछ पंक्तियां विचारार्थ प्रस्तुत कर रहा हूं :
    1. श्री मधुसूदन झवेरी जी के, जो कि गुजराती भाषी हैं और अनुपम हिन्दीप्रेमी हैं, विचार सटीक हैं, ध्यातव्य हैं और अधिकांशतया मान्य हैं।
    2. पूरे लेख में अनेक बिन्दु हैं, उनमें मुझे अंग्रेजी का बिन्दु सर्वाधिक महत्वपूर्ण लगता है ।
    3. “अंग्रेजी के प्रचलित शब्दों को स्वीकार करना चाहिये” यह एक मंत्र की तरह उपयोग किया गया है, और जो तर्कसंगत तथा व्यावहारिक भी लगता है।
    4. क्या हम भूल गए हैं कि अंग्रेजी हम गुलामों पर लादी गई थी ? और हम उसे स्वतंत्रता के बाद भी सहर्ष ढो रहे हैं – क्या यह गुलामी की चरमस्थिति नहीं है ! सच्चा गुलाम वही है जो गुलाम होते हुए माने कि वह स्वतंत्र है!!
    5. अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भी नहीं है – वह अंग्रेजों के पुराने गुलाम देशों की ही भाषा है, सभी गुलामी के कारण मजबूर है – भाषा की गुलामी !!
    6. कोई भी विकसित देश दूसरी भाषा में कार्य नहीं करता, सब की अपनी भाषा है।
    7. अग्रेजी को छोडना कठिन तो होगा, बहुत कठिन, किन्तु क्या कोई भी गुलामी की बेडियों को काटना सरल होता है ?
    8. यदि हम सम्मानपूर्वक तथा समृद्ध जीना चाहते हैं तब यह भाषा की गुलामी की जंजीर काटें ! अन्यथा हम द्वितीय श्रेणी के देश ही बने रहेंगे।

  16. आ. जैन महोदय। सादर नमस्कार।
    (१)
    संक्षेप में, लिखता हूँ, कि, इस काम को करने में दक्षिण और मध्य-स्थित भारत का भी विचार होना चाहिए।
    (२)
    संस्कृताधारित शब्द अपना पूरा परिवार लेकर भाषामें प्रवेश करता है– अंग्रेज़ी अकेला आता है;उर्दू भी अकेला आता है।
    (३)
    कुछ, घुल मिल गये शब्दों को जैसे कि, राह, रास्ता, लालटेन, कप्तान इत्यादि और नामाधारित शब्द स्वीकार करनेपर कठिनाई नहीं है।
    (४)
    नया गढा हुआ, संस्कृत शब्द भी प्रचलित होनेपर सरल लगने लगता है।
    (५)
    संस्कृत-निष्ठ हिंदी शब्द दक्षिण भारत में भी स्वीकृत हो सकता है। एक बार विपरित गलती के कारण स्वीकृति नहीं हो सकी।
    (६)
    भाषा बदलती है–स्वीकार करता हूँ। पर उसे सुसंस्कृत भी की जा सकती है;और विकृत भी। संस्कृत रचित शब्द सहज स्वीकृत होकर कुछ काल के पश्चात रूढ हो जाएंगे।
    (७)
    अंग्रेज़ी के शब्द जब हिंदी में प्रायोजित होते हैं, तो लुढकते लुढकते चलते हैं। उनमें बहाव का अनुभव नहीं होता।और कौनसा स्वीकार करना, कौनसा नहीं? इसका क्या निकष?
    (८)
    अभियांत्रिकी और अन्य विषयक शब्द रचना पर मैं ने कुछ काम अवश्य किया है।
    (९)
    मोदी जी की भाषा का उदाहरण अनुचित है। वें ६५ वर्षों की उपेक्षा का परिणाम है। नेतृत्व को धन्यवाद(?)
    (१०)
    मेरे लेखन में भी दोष हो सकते है। मैं गुजराती भाषी, हिन्दी शाला में मात्र २ वर्ष सीखा हूँ। फिर संस्कृत के बलपर प्रयास करता रहा हूँ।
    (११)
    हिंदी राष्ट्र भाषा की क्षमता रखती है। उसे मात्र, उत्तर भारतीयों के वर्चस्वी पैंतरे से भी बचाना होगा। यह किसी का एकाधिकार नहीं है।
    (१२)
    आज, प्रदूषित हिंदी को, उसी के प्रदूषित शब्दों द्वारा विचार और प्रयोग करके शुद्ध करना है। जैसे रक्त का क्षयरोग उसी रक्त को शुद्ध कर किया जाता है।मुझे भी कुछ ही जानकारी है।
    (१३)
    इस विषय को चुनौती मानकर चलना चाहिए। हम पहले ही हार स्वीकार कर ना चलें।
    (१४)
    मुझे संदेह नहीं है, हमे परम्परा से अर्थात भूतकाल से और भविष्य से भी जोडने वाली भाषा चाहिए। जो संस्कृत बहुल, (१००% आवश्यक नहीं) होनी चाहिए, ऐसा मेरा प्रांजल मत है।
    (१५)
    आलेख का विषय है, टिप्पणी का नहीं।मैं ने, ४९ भाषा विषयक आलेख प्रवक्ता में ही डाले हैं।
    विनय पूर्वक आप से आंशिक सहमति प्रकट करता हूँ।
    अनादर नितान्त ना समझें।
    सविनय –मधुसूदन

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