
(मधुगीति १९०८१९ अग्रसु)
आज उस में सब समा गया है,
आज रब उस में रम गया है;
आज रव अविरत हो गया है,
आज रवि रमणीक लग रहा है !
क्षण हर कणिका से मिल गया है,
अणु हर कलिका में खिल गया है;
तृण तल्लीनता में खो गया है,
अरुण चिर चेतनता से भर गया है !
आलोक लोक आ बिखर गया है,
तिमिर टिम- टिमा मिट रहा है;
चरम लख कलाकार गुनगुना उठा है,
नैतिक पथ पर राजनैतिक चल पारहा है !
अहं सिमट कर महत में मिल रहा है,
चित्त चितेरे से एक होना चह रहा है;
चाणक्य मन भूमि में पैठ मंद्रित है,
माणिक्य मुदित हो छन्दित स्पन्दित है !
आनन्द आल्ह्वादित हो थिरकित है,
ध्यान पुलकित हो अधर धाया है;
धरा धानी चुनर ओढ़ हर प्राण चूमी है,
‘मधु’ लहर लिये माधवी लय में हैं !
✍? गोपाल बघेल ‘मधु’