विश्वरूप धरती ओर मिट्टी के दीये

                  आत्माराम यादव पीव

      मिट्टी तो मिट्टी है, हमें इसी तात्विक ज्ञान का परिचय है लेकिन परमात्म विषयक चिंतन की मान्यता है कि मिट्टी के कण-कण में परमतत्व प्राण व्याप्त है। मिट्टी जो पृथ्वी तत्व है ओर पृथ्वी में स्थित सर्वन्त्यामी है। पृथ्वी अखिल विश्व की सृष्टि को धारण करती है अर्थात अपने वक्षस्थल पर धारती है इसलिए धरती मैया भी कहाती है ओर इसी धरती मैया की सत्ता चिरन्तन है। मिट्टी धरती की आत्मा है ओर आत्मा सुषुप्तावस्था में मिट्टी में रोपे जाने वाले बीजों के प्राणों में प्राण भरती है। मिट्टी मिट्टी भी है ओर चराचर की स्थिति इसी मिट्टी यानी धरती मैया की दया पर अवलम्बित है। मिट्टी मृत भी है ओर मिट्टी प्राणों का प्राण राम भी है तभी पंचतत्व को अपने में समेटे इसी मिट्टी का मानव पंचतत्व की काया लिए अंत में इसी मिट्टी में मिल जाता है। प्राणकर्ता परमात्मा राम के लिए जो संभव है वह सभी प्राणियों –जीवात्माओं में प्राणों के प्राण लेने देने कि अपनी सृष्टि की उत्पत्ति, पालन ओर संहार का एक सर्वकालीन हिस्सा भी है वहीं पृथ्वी का अंश मिट्टी अपनी आत्मा को पेड़ पौधे ओर वनस्पति सहित मौसमकालीन फसलों में प्राणवान बनाए रखती है ओर बीजों को हजारगुणा लौटाकर एक जननी की भांति जगत का भरण पोषण करती है, यही मिट्टी सर्वलोक, सर्वभूत, सर्वात्मा को अन्न प्रदान कर अन्न को ब्रम्हा स्वरूप प्रतिष्ठित करती है ओर गृह नक्षत्र राशि आदि के लाभ हानि आदि दोषों सहित दिशाओं में जातक के आवास व अन्य कृषि कार्याधि हेतु शुभ अशुभता प्रदान करती है। मानव जाति के जीवन का आधार अन्नादि धरती पर ही उत्पन्न होता है ओर धन संपत्ति का उपार्जन विशंभरा धरती पर ही सारा संसार प्राप्त कर रहा है, कहना होगा की संसार में सभी की गति ओर आकर्षण धरती पर निर्भर है इसलिए यह धरती जगत जननी है, पुज्या है।

      पञ्चभूत में धरती भी एक तत्व है ओर उसकी मिट्टी में शेष चार तत्व जल, तेज, वायु और आकाश की धारणा की गई है जो सभी तत्व मनुष्य के चित्त में बंधे हुए हैं ओर ये पाँचों भूत, जो उसकी इन्द्रियों से बाहर दीख रहे हैं,  सब-के-सब उसके मन के अंदर हैं। मनुष्य- शरीर में ये पांच तत्व है। इन पांच तत्वों से इस प्रकृति का निर्माण हुआ है ओर मनुष्य ही की भांति मिट्टी के इन दीपों में ये पांच तत्व की मौजूदगी की मान्यता है। भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीला हो या माता पार्वती या गणेश के जन्म की कहानी. मिट्टी का हर युग में वर्णन मिलता है. धार्मिक अनुष्ठानों में दीप प्रज्वलन की प्रक्रिया तीनों लोकों और तीनों कालों का भी प्रतिनिधित्व करती है. इसमें मिट्टी का दीया पृथ्वी लोक व वर्तमान को दिखाता है जबकि उसमें जलने वाला तेल और घी भूतकाल व पाताल लोक का प्रतिनिधित्व करता है. वहीं इसमें रुई की बाती प्रज्जवलित को लौ आकाश, स्वर्ग लोक व भविष्य काल काल का सूचक है। दुनिया के अन्य देश की तुलना में, भारत में सबसे अधिक कुम्हार रहते हैं. जो मिट्टी का बख़ूबी इस्तेमाल करते हैं. यहां तक कि हमारे आराध्य देवताओं की मूर्तियां भी मिट्टी की बनी हुई रहती है. मिट्टी को धरती मां कहा गया है, इसलिए बिना पकी हुई मिट्टी में बनाई गई छवियों को देवताओं को बनाने के लिए सबसे उपयुक्त माना है.

      धरती विश्व का भरण पोषण करने वाली,धन को धारण करने वाली गृह रूपा, सुवर्ण की खान रूप वक्षस्थल वाली, समस्त संसार को आश्रय देने वाली, सबमें प्रविष्ट अग्नि को धारण करने वाली है तभी भगवान भी बाल रूप में इसी धरा की गोद में बैठते है। यह धरती मैया कभी लक्ष्मी स्वरूपा होती है, कभी पार्वती स्वरूप  तो कभी ज्ञान की देवी सरस्वती के रूप में अज्ञान रूपी अंधकार को समाप्त करती है।  विश्वस्वरूप धरती माँ रिद्धि-सिद्धि है, महिमा-गरिमा है इसका स्वरूप विराट है सम्पूर्ण संसार इस धरती की छाया के अंतर्गत आता है ओर प्रत्येक प्राणी इसी धरा की संतान है। यह धरती अपने दो हाथों से कर्म करने वाली है, एक हाथ से सृष्टि में जीवन के रंग भरकर जीने की उमंग तरंगित  कर जीवन देती है तो दूसरे हाथ में महाप्रलय को लिए अपनी ही सृष्टि में जीवन के रंग भरने वाले मनुष्यों को भूकंप,अतिवृष्टि, महामारी ओर विनाशकारी तूफानों के बवंडर की विनाशलीलाओं से सबक सिखाती है। आज दुनिया के कई देशों में चल रहे विनाशकारी युद्धों से नष्ट होने वाली प्रकृति ओर इंसान की मौत इसी का एक स्वरूप है । अथर्ववेद के बारहवें कांड का प्रथम सूक्त पृथ्वी सूक्त है जिसमे 63 मंत्र है जो पृथ्वी सूक्त, भूमि सूक्त ओर मातृ सूक्त भी कहे गए है जिसमे हमें पृथ्वी कि प्रकृति ओर पर्यावरण का विस्तृत विवेचित परिचय है जिसमे उल्लेखित है कि मिट्टी रूपी ब्रम्हविद ही परमतत्व है जो तम के अज्ञान से चंद्र, सूर्य , तारे आदि को अपने आलोक से ज्योतिर्मय करता है, जो सभी परमात्मा से व्याप्त है। मिट्टी मिट्टी होकर भी अपनी मिट्टी के बने दीप में प्रज्वलित रोशनी के सहारे उपासना करने वाले को इस संदेश के साथ कि वह खुद अमावस्या के घने काले अंधेरे को विदा कर निशिथ के महामार्ग को प्रशस्त करने तत्पर है ताकि पृथ्वी कि आत्मा रूपी  मिट्टी के दीये अपनी रश्मियों कि पावन जीवनदायिनी ऊष्मा से नहाते रहे। यही मिट्टी कि दीये जीवात्मा के ज्ञान ओर आनंद आदि गुणों को परमात्मा ज्योति में विकसित कर सभी कामनाओं को पूर्ण कर सुखद जीवन संदेश देते आ रहे है।

        मिट्टी के दीप जिसे कौन नहीं जानता है , खुद मिट्टी को अपने अस्तित्व का पता होता है पर इंसान भूल जाता है कि आखिर में उसे भी तो मिट्टी हो जाना है। संत कबीरदास जी संसार कि असारता को समझते थे तभी उनके हृदय से मिट्टी कि पीड़ा बाहर आ सकी। मिट्टी की  पहचान क्या है ? उसका अस्तित्व क्या है ? खुद कबीर बताते है कि माटी कहे कुंभार से तू क्यों रोंधे मोय, एक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदूगी तोय। मिट्टी एक तरह से मृत्यु ही तो है, दोनों का सार भी है ओर संसार में दोनों की असारता भी है। सार देखे तो हम ओर आप मिट्टी में जन्मते है, मिट्टी में खेलकूदकर बड़े होते है, सारा जीवन मिट्टी से तादात्म्य में रहकर खिलते है, मुरझाते  है ओर अंत में मिट्टी में मिल जाते है। माटी नाना प्रकार के रूप धरती है, मनुष्य रूप में वह सुघड बन जाती  है लेकिन मनुष्य अपने को मन से सुघड नही बना पाया जबकि वह जानता है कि  इसी माटी में मिल  जाना है। आज हम  जिसे कंचन की काया कहते है वह कंचन नही है माटी ही है। इस माटी से बने दीप ने सदियों से मनुष्य के जीवन को प्रकाश दिया और अंधकार से लडऩा सिखाया। मिट्टी सदियों से हमारी मित्र है, हमारे शरीर को निरोगी ओर कंचनकाया बनाने के लिए मिट्टी परम ओषधी है पर हम मिट्टी से अपना नाता तोड़कर मिट्टी के इस दिव्य स्वरूप के लाभ से वंचित है। मिट्टी मौन रहकर सक्रिय है ओर जाने अंजाने जब मिट्टी हमारे शरीर को अपने आगोश में ले लेती है तब मिट्टी का सुख आभास होता है ओर व्यक्ति धरा की गोद में परम सुख पाता है।

       सदियाँ बीत गई, कई युग बीत गए मिट्टी से हमारा नाता आज भी उतना ही है जितना पहले था। आज भी मिट्टी के बने दीप मौन रहकर सक्रिय है ओर पूरी मनुष्यता इस मिट्टी के दीप की ऋणी है । मनुष्य तो दीपक की कृतज्ञता से भरा है किन्तु दीपक को शायद पता न हो की मनुष्य के दिल में उसे लेकर क्या भावनाए है। मिट्टी के दीपक से मिटे अंधकार ओर मनुष्य के जीवन में आए प्रकाश से मिले सुख शांति आनंद, उल्लास ओर पवित्रता ने दीपक की परम सत्ता को स्वीकारा है। जब धरा पर मनुष्यों के घरों में पहली बार मिट्टी के दीपक ने रोशनी बिखेरी  तब यही मनुष्य प्रज्जल वित दीप के प्रकाश में देवत्व की आभा से अनुग्रहित हो उठा। फिर नन्हे-नन्हे दीप की यात्रा तब से अब तक दीपोत्सव पर शुभ प्रभा में हमें परम सत्ता का आभास देने लगी, मंदिरों में देवी देवताओं के श्रीविग्रह के समक्ष दीपदान का क्रम शुरू हुआ ओर तुलसी चौरे पर दीपक को प्रतिष्ठिïत करने की परंपरा को घर की माताएं बहने ओर बहुए आजीवन काल तक  सुहागन स्वर्णिम आभा से मंडित होकर अखंड सौभाग्य का विश्वास प्राप्त कर दीपदान करते आ रही है।  

      मां शारदा के समक्ष इसके प्रज्जवलन के साथ ही उसकी अलौकिक वीणा के तार झंकृत हो  उठते है हर  अवसर को मांगलिकता प्रदान करने वाला दीप जीवन को भी आलोकमय बना देता है यह  जगमगाहट कहां से आई इसे दीप अपने  मुख से नही कहता क्योकि परमानंद को प्रदान करने वाला दीप तो  अपने जन्म  काल से ही  अहंकार रहित है अहंकार तो  मनुज रखता है मिट्टी नही इसलिए दीप का जलाना आवश्यक है हमे उसकी  ज्योति  आवश्यक है॥ परंतु मनुष्य  की ही  तरह दीपक को भी अपनी यात्रा संघर्षो के बीच ही तो पूरी करनी होती है वैसे दीप की यात्रा अनंत है मनुष्य की नही, दीप गहन अंधकारमयी निशा को भी आलोकित करती  है और भेार को भी । आपको यह प्रश्न अटपटा लगेगा कि भोर को कैसे आलोकित करती है? भोर होते ही अंधकार तो विदा हो जाता है लेकिन देव मंदिरों में देवी देवताओं ओर भगवान के श्री विग्रह के समक्ष दीपक जलता है ओर उनका आशीर्वाद लेता दीप मनुष्य की तरह मंदिर से  चला नहीं जाता  वह आरती  आराधना अर्चना को निरंतर जीता रहता  है उसकी आयु इसीलिए दीर्घ होती है। अंधकार दीपों के लिए सबसे  बड़ी चुनौती है  वह  तीव्र वायु का वेग भी  सहता  है और फिर भी प्रकाश फैलाता  है उसे मालूम  है कि  मनुष्य को उसके पथ से विचलित नही होने देता है। वायु अंधकार प्रलय सब  उसके लिए चुनौतियां बनकर आते है परंतु माटी के दीप उनका साहस से सामना करते है।

      अंधकार जीवन के मार्ग में बार-बार बाधा बनकर आता है। वह  तन-मन-वचन और हमारे कर्म तक में समाविष्ट हो जाता है वह  आकाश से धरती से आच्छादित कर देता है जब वह  मौन जड़ता से सक्रिय हो उठता है तो हिंसा,उत्पाद,अन्याय,उत्पीडऩ, अनैतिकता और प्रलय को जन्म देता है  वह रूदन ओर अश्रुओं से अप्रभावित  रहता है क्योंकि वह  हृदयीन ओर विवेक हीन है कभी कभी उसकी रंगत  माटी में भी तो दिखाई  दे जाती है। यह तो मिट्टी की बलिहारी है उसके रंग को सदियों  से  सहती  आई है। अंधकार का प्रकोप बढ़ते-बढ़ते अमावस में बदल गया तो  माटी ने इस चुनौती को स्वीकार किया और वह दीपक बन गई इस विराट अंधेरे कें सामने एक नन्हा सा दीपक इस दीपक ने अपार अंधकार को पी जाने का इस पर विजय पाने ओर इसका विनाश करने का संकल्प कर लिया है, इसलिए वह अपनी पराजय स्वीकार नहीं कर लड़ता है ताकि वह  अपने संकल्प की आंच में  इतना तपा कि पक्का हो  गया उसमें अंधकार से लडऩे  की अपार शक्ति जाग गई ओर सदियों से यह  दीपक संस्कृति की सुरभि प्रकाश के  रूप में बिखेर रहा है  उसने धरती का स्नेह संजोना प्रारंभ कर दिया है वह उस स्नेह में आप्लावित हो उठा उसमें नये प्राण संचारित हुए बाती उसमें इस प्रकार तैरने लगी जैसे  जीवन लहरों की तरह तैर रहा हों दीप की यह उत्कर्श मय यात्रा कर रहा हो, इस माटी के दीप के निर्माण के पहले माटी ने यही कोमल और सदाशयता जी होगी कि उससे निर्मित हेनेवाली दीप इस धरती का अंधकार  पीयेगा ओर वही  हुआ भी कि आज गहरा अंधकार जाने कहां छिप गया? माटी के नन्हे-नन्हे दीप बडे ही जिद्दी  है ये  युग-युग से गहरे अंधेरे का पीछा कर रहे  है ये घोर तमिश्रा में भी नही डरते  इन दीपों ने विश्व की बड़ी-बड़ी प्रतिभाओं को भी  प्रकाश किया ओर उसने हमें ज्ञान की अतुल  राशि का जन्म ही इन दीपों के कारण हुआ।

      मिट्टी के ये दीये सही मायने में  सूरज के वंशज है  इसलिए इनकी यात्रा अकेले ही होती  आई है। इन दीपों के रूप, रस, गंध,स्पर्श ओर निसशब्द मौन की विचित्रता का वर्णन नही किया जा सकता है जब भी इन्हे ये चर्म चक्षु निहारते है तो उन नेत्रों में बनने वाली झांकी से उमड़ने वाला प्रेम भावना से भर देता है। जिनके मन में क्रोध, ईर्ष्या की ज्वालाये धधक रही हो वे भी इन दीपों की रोशनी से नहाकर शान का अनुभव कर आशा के प्रभात को पा जाते है ओर उनके मन में निराशा की काली रात विदा हो जाती है। वहाँ कोमल कान्त भावनाएँ, मृदु-सुन्नीव कल्पनाएँ, उदात्त विचार और मधुर स्मृतियाँ शेष रह जाती है अर्थात सही मायने में इस प्रवृति के बदलाव के बाद उनके चेतन अनुभव के भी मूल में अनन्त, अचेतन शक्तियाँ क्रियाशील हो जाती है ओर उनके जीवन में आया यह दीपोत्सव उन्हे प्रकाशित कर देता हैं। सच कहा जाये तो मिट्टी के ये दीये जीवन में गंभीरतम, क्रान्तिकारी अनुभव, प्रदान करने के साथ नवीन युगों में प्रवेश करता है जहा नवीन सौन्दर्य की सृष्टि और सत्य का उद्घाटन होता है।

 मिट्टी के ये दीप अपनी मूल  प्रकृति में इतने  समृद्घ है कि किसी राष्ट्र से, किसी राज्य से या किसी उच्च राजनयिक अथवा राजपथ से याचना नही करते ओर न ही उनमें भेद करते है, मिट्टी का दीप कोई उच्च पदासीन के हाथ हो या निर्धन से निर्धन के हाथ मे हो, प्रज्ल्वित दीप राजपथ पर भी उसी प्रकार जगमग रोशनी फैलाएगे जिस तरह किसी झोपड़ी या पगडंडी पर उन्हे रखा जाये। ये मिट्टी के दीप न किसी से भेदभाव करते है ओर न किसी से मोह पालते है बस इनकी अपराजित  मुस्कान कभी हार नही मानती संभवामि युगे-युगे का नाद इनकी हर किरण से  झरता है। ये मिट्टी कि दीप अपनी सारी गरिमा, शक्ति लिए प्रज्जवल के इतिहास में समाहित है सच कहा जाये तो ये दीप जीवन है, जीवन का सार है, क्योकि ये मिट्टी के दीये है। मिट्टी के होकर भी ये दीये अपनी उच्चतम ओर शील को समुद्र की भांति गांभीर्य रहते है, इनमें करुणा के स्त्रोत फूटते है, इनमें शांति ओर क्रांति दोनों पलते है, ये चिरकाल से आज तक सृष्टि में परिवर्तन के बीजारोपण उपरांत अपनी रोशनी बिखेरकर घर घर आनंद ओर समृद्धि लूटा रहे है। इन मिट्टी के दीये ने एक संस्कृति के पश्चात दूसरी नवीन संस्कृति के जन्म के साक्षी रहकर भी अंधकार मिटाने के अपने स्वभाव को नहीं त्यागा है ओर आज भी दीपोत्सव का इंतजार करते ये दीप जगत को आलोकित करने की प्रतीक्षा में होते है।

आत्माराम यादव पीव

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