चैतन्य प्रकाश
बदलाव लगातार है। थोड़ा गहरे से देखें तो यह बदलाव हर पल हो रहा है। सृष्टि का, संसार का अगर ठीक गुणवाचक नाम खोजा जाए तो शायद ‘गति’ होगा। गति सर्वत्र है, फिर स्थिति कहां है?
जिनको हम स्थिर मानते हैं, उन सब पदार्थों के भीतर अणुओं – परमाणुओं में होने वाली इलेक्ट्रानों की गति का खुलासा विज्ञान अरसे पहले कर चुका है। गति की सार्वत्रिकता, सर्वव्यापकता सिद्ध हो चुकी है। एक नजर से लगता है जैसे स्थिति मात्र भ्रम है। संसार में जो ज्ञात है, उसके बारे में विज्ञान की घोषणाएं प्रामाणिक मालूम पड़ती हैं, परंतु अज्ञात के अंधेरे में विज्ञान भी मुश्किल में पड़ जाता है।
अज्ञात के बारे में समर्थ एवं सर्वग्राही संकेत अध्यात्म देता है। अध्यात्म की दृष्टि में संसार परिवर्तनशील है, गतिशील है, चलायमान है, चंचल है, अस्थिर है मगर परमात्मा स्थिर है, अपरिवर्तनीय है, अचल है, अविनाशी है, शाश्वत है। गति एवं स्थिति के बारे में यह आत्यंतिक घोषणा है। सामान्य स्वरूप में दैनिक जीवन में संसार की स्थितिशीलता के कई नजारे मिलते हैं। एक संकलन की तरह इनको रेखांकित किया जाए तो जाहिर होता है कि मनुष्य का जीवन तीन प्रमुख विशेषताओं की डोर से बंधे रथ की तरह है, जो उसे संसार के गतिशीलता के गुण के विरूद्ध स्थितिशील सिद्ध करती हैं।
पहली विशेषता है – रुकने की आदत मनुष्य बुद्धि, ज्ञान, अनुभव, गुण, अवगुण, प्रवत्ति, परिचय, पद्धति, धारणा इत्यादि सभी आयामों पर बार-बार रुकता है, यदि घटनाओं-दुर्घटनाओं की नियति इस आदत पर प्रहार न करे तो शायद मनुष्य रुकने में सुविधा महसूस करता है। विविध स्थितियों पर बलपूर्वक रुके हुए अनेक लोग हैं, जो भाग्य और दुनिया को कोसते रहते हैं।
दूसरी विशेषता है- अड़ने की आदत; मनुष्य बात-बात पर अड़ता है। तेरा-मेरा, उसका-इसका, अड़ने के अनेक पहलू हैं। हजारों जिदें है, जिरहें हैं, बहसें हैं। चर्चाओं, परिचर्चाओं, सभाओं, गोष्ठियों में संवाद के बहाने, अभिव्यक्ति के बहाने अड़ने की आदत फल-फूल रही है। मत-विमतों, दलों, विचारों की दीवारें अड़ने की आदत का ही प्रतिफल हैं।
तीसरी विशेषता है- भिड़ने की आदत; मनुष्य लगातार अपने अदृश्य सींगों को उलझाने में व्यस्त है। सुबह-शाम, दोपहर हर समय दुनिया के कोने-कोने में तरह-तरह से भिडंत जारी रहती हैं। नोंक-झोंक से लेकर गाली-गलौच व मारपीट की अनंत कहानियां जगजाहिर हैं। मनुष्य की हिंसा एवं क्रूरता भिड़ने की आदत का ही विस्तार है। इन तीनों आदतों में मनुष्य की स्थितिगामिता निहित है। किसी एक स्थिति में विद्यमान रहने मात्र से ही रुकना, अड़ना, भिड़ना संभव हो पाता है। ये तीनों आदतें संसार के स्वभाव अर्थात गतिशीलता के विपरीत हैं।
शायद इसीलिए मनुष्य संसार में निरंतर संत्रस्त दिखाई देता है। इन तीनों आदतों के घेरे तोड़कर मनुष्य यदि जीवन की तीन कलाओं का भीतर से आह्वान करे तो वह त्रास के बजाय उल्लास के अनुभव से सराबोर हो सकता है।
पहली कला है; चलने की कला; वह निरंतर चले; विचार में, व्यवहार में, बुद्धि में, ज्ञान में, अनुभव में, गुण-अवगुण, पद्धति, प्रवृत्ति, परिचय, धारणा इत्यादि में बिना रुके चलता रहे। वह परिवर्तन-स्वीकारी रहे तो शायद भाग्य और नियति उसे पूरक और प्रेरक मालूम होंगे। जैसे दरिया सहज उल्लसित है, मनुष्य भी चलने की कला से सहज आनंदित हो सकता है।
दूसरी कला है- झुकने की कला; अड़ना और दबना दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं। मगर झुकना दोनों से परे हैं, स्वाभाविक और सहज-पेड़ पौधों की तरह, फूल, पत्तों की तरह। ऐसे ही जैसे दूसरों को रास्ता देना, सवेरे उठकर छोटे-बड़े सबको प्रणाम करना। हृदय की नम्यता शक्ति और सामर्थ्य बनती है।
तीसरी कला है- मिटने की कला; निरंतर अपने भीतर अहं को गिरने देना, संसार में अपने अलग व्यक्तित्व, मान-प्रसिद्धि, प्रभाव-दबाव की कवायदों में छिपी घोर निरर्थकता को पहचान कर सब के बीच नमक की डली तरह घुलनशील होते जाना परम तृप्ति के अनुभव का उपाय है। हमारा अकेलापन, हमारी एकांतिकता हमारी सोच की सीमा मात्र है। सृष्टि अनिवार्यत: सम्बद्ध है, समग्र है, समवेत् है। निरंतर अर्पण, संपूर्ण समर्पण ही मिटने की कला है। इन तीनों कलाओं में संसार का स्वाभाविक गुण गतिशीलता व्याप्त है। वस्तुत: ये तीनों कलाएं संसार रूपी यात्रा के तीन महापड़ाव हैं।
इन तीनों महापड़ावों की यात्रा से संसार पूरा होता है और फिर मनुष्य सहज ही अविचल, अनश्वर, अविनाशी परमतत्व के ऐक्य को अपने भीतर-बाहर अनुभव करता हुआ परमात्मस्वरूप हो पाता है।
गजब है यह लेख, खास शुरु के तीन पैराग्राफ. गुरु चैतन्य को इस तुच्छ ओम का प्रणाम !