पश्चिम बंगाल में सत्ता के लिए रक्तपात कितना जायज ?

प्रभुनाथ शुक्ल

पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा लोकतंत्र का सबसे घिनौना रुप है। आम चुनावों के दौरान बंगाल कश्मीर से भी बदतर है। लोकतंत्र में हिंसा का रास्ता अख्तियार कर राजनैतिक दल क्या संदेश देना चाहते हैं। 60 साल तक केंद्र की सत्ता में रहने वाली कांग्रेस इस तरह की राजनैतिक हिंसा पर कदम क्यों नहीं उठाए। 34 साल तक वामपंथ का शासन रहा, लेकिन सभी ने आंखें बंद रखा और लोकतंत्र खून से लथपथ होता रहा। अब वहीं नीति तृणमूल और भाजपा अपना रही है। राजनैतिक हिंसा अब पश्चिम बंगाल की संस्कृति बन गयी है। पंचायत से आम चुनाव तक हिंसा का दौर जारी है। सत्ता बचाने का एक मात्र रास्ता क्या रक्तपात है। विकास क्या लोकप्रिय सरकारों का एजेंड़ा नहीं बन सकता। हिंसा क्या सरकार प्रयोजित रहती है या कार्यकर्ता खुद ऐसा करते हैं। भारतीय लोकतंत्र में पश्चिम बंगाल सबसे बदनुमा दाग है। क्या हिंसा राज सत्ता का एक मात्र विकल्प है। अगर ऐसा होता तो पश्चिम बंगाल में आज ममता की सरकार नहीं होती। वामदल के 34 साल के शासन के बाद टीएमसी की सरकार बनी। लेकिन दुःख इस बात है कि जनता ने जिस उम्मीद से उन्हें सत्ता की बागडोर सौंपी थी उस पर वह खरी नहीं उतरी। बंगाल की इस स्थिति के लिए जितनी जिम्मेदार ममता हैं उतनी भाजपा भी। क्योंकि भाजपा पश्चिम बंगाल के लोगों को यह दिखाना चाहती है कि ममता का कोई मुकाबला कर सकती है तो वह भाजपा है। क्योंकि यहां सीधी लड़ाई भाजपा और तृणमूल के बीच में हैं। 2014 में भाजपा को यहां सिर्फ दो सीटों पर विजय हासिल हुई थी, लेकिन पांच साल बाद भाजपा वहां मुख्य लड़ाई में है और दीदी के लिए सबसे बड़ी मुशीबत बनी है। भाजपा यहां चैथी पायदान से दूसरे पर आ पहुंची है। दूसरी तरह इस हिंसा की जड़ में वामदल और कांग्रेस भी होम करती दिखती है। क्योंकि दोनों दल हासिए पर हैं, जिसकी वजह से उनकी दिली तमन्ना है कि पश्चिम बंगाल की ममता सराकार की छबि को जितना नुकसान पहुंचाया जाए उतना हमारे लिए फायदा होगा। आतंरिक रुप से वहां के स्थानीय राजनेता भाजपा की जीत में अपनी जीत देखते होंगे। बंगाल की स्थिति पर दिल्ली में भाजपा जंतर-मंतर पर तो वामपंथ कोलकाता में प्रदर्शन किया है। लेकिन इस स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन हैं।

लोकतंत्र में हिंसा का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। हम अभिव्यक्ति का गलाघोंट अच्छे समाज का निर्माण नहीं कर सकते हैं। ममता सरकार ने अपनी राजनैतिक भड़ास निकालने के लिए भाजपा के कई नेताओं की रैली पर प्रतिबंध लगा दिया है। योगी आदित्यनाथ की सभा पर भी प्रतिबंध लग गया। यह बिल्कुल घिनौनी नीति है। हमें विचारधाराओं की लड़ाई लड़नी चाहिए हिंसा की नहीं। अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रतिबंध लगा कर जनता की विचारधारा को नहीं मोड़ा जा सकता है। क्योंकि लोकतंत्र में जनता और उसका जनाधार सबसे शक्तिशाली होता हैं। देश की सबसे शक्तिशाली इंदिरा सरकार ने 1975 में आपातकाल की घोषणा कर लोकतंत्र का गला घोंटने का काम किया। लेकिन उसकी सजा 1977 के आम चुनाव में इंदिरा सत्ता गवां कर चुकानी पड़ी। सत्ता में कभी स्थाईत्व नहीं होता है। लोकतंत्र में स्थिरता होनी चाहिए अस्थिरता नहीं। यह बात पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता को अच्छी तरह मालूम हैं। भाजपा नेता प्रियंका शर्मा को सोशलमीडिया पर दीदी से जुड़ी एक तस्वीर पोस्ट करने की वजह से जेल में डाल दिया गया। क्या यह अभिव्यक्ति और लोकतांत्रित अधिकारों के खिलाफ नहीं है। क्या यह सच नहीं है कि देश में चुनी गयी सरकारें आम लोगों की आवाज को सत्ता में रहते हुए कुचलना चाहती हैं। हालांकि प्रियंका की यह हरकत गलत थी। लेकिन उन्हें अपनी रिहाई के लिए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ा। अदालत ने प्रियंका को सशर्त छोडने का आदेश दिया लेकिन सुप्रीमकोर्ट के आदेश के 24 घंटे बाद भी उन्हें जेल से नहीं छोड़ा गया। जिस पर अदालत बेहद तल्ख रवैया अपनाया है। कोर्ट ने इसे अदालत की अवमानना माना है। यह विल्कुल सच है कि जब अदालत ने प्रियंका शर्मा के रिहाई का आदेश दिया तो फिर सरकार ने उन्हें छोड़ा क्यों नहीं। जिससे यह साबित होता है कि सरकारें खुद को सर्वोपरि समझती हैं। जबकि बंगाल पुलिस ने आरोपी भाजपा नेता को साइबर अपराध नहीं माना था।

पश्चिम बंगाल में संस्कृति के साथ संस्कार भी चुनावी हिंसा की भेंट चढ़ गया है। विद्यासागर कालेज में स्थापित 200 साल पुरानी उन्हीं की मूर्ति उपद्रवियों ने तोड़ दिया। विद्यासागर बंगाल के साथ पूरी भारतीय संस्कृति और सभ्यता के आदर्श है, ऐसे व्यक्तित्व की मूर्ति तोड़ना कितनी बेशर्मी है। वह सबसे बड़े समाजशास्त्री और समाज सुधारक थे। लेकिन राजनीति कितनी गिर सकती है इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है। अब इस पर भी सियासत होने लगी है। ममता ने अपने ट्वीटर पर विद्यासागर की तस्वीर लगा इस मसले को लपक लिया है। भाजपा-तृणमूल एक दूसरे पर मूर्ति तोड़ने का आरोप लगा रहे हैं, लेकिन मूर्ति किसने तोड़ी यह पता नहीं। क्योंकि अभी यहां 19 मई को चुनाव है। लेकिन जब दीवाली आएगी तो दीदी एक बार फिर मोदी को रसगुल्ला और कुर्ता भेंट करेंगी फिर यह बात मोदी की तरफ से कभी सार्वजनिक नहीं की जाएगी। लेकिन जब चुनाव आएंगे तो रसगुल्ला और कुर्ता सियासी मिजाज बन जाएगा। पश्चिम बंगाल या देश के किसी भी राज्य में अब तक जो भी राजनीतिक हत्याएं हुई हैं उसमें किसी दल का कोई बड़ा नेता क्यों नहीं शिकार बना। लोकतंत्र को खून से सींचने वाले राजनेाओं को सत्ता मिल जाती है, लेकिन हिंसा की भेंट चढ़ने वाले उस आम आदमी को क्या मिलता है। जिन घरों के युवा हिंसा का शिकार हुए उनका क्या हुआ। उन परिवारों की स्थिति क्या है, इस बात की खबर कभी राज्य और केंद्र की सरकारों ने लिया। मीडिया ने कभी यह सवाल उठाया। कितने निर्दोष यतीम हुए , किस परिवार को नौकरी मिली कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। पश्चिम बंगाल में 1977 से 2007 के दरम्यान 28,000 से अधिक राजनैतिक हत्याएं हो चुकी हैं। इस तरह की हत्याओं के शिकार परिवारों को राजनीति ने क्या दिया यह आज भी सवाल है।

पश्चिम बंगाल की राजनीति में अवैध बंग्लादेशी और एनआरसी जैसे मसलों ने आग में घी का काम किया है। भाजपा ममता सकरार पर यह आरोप लगाती रही है कि यहां बंग्लादेश से लोगों को बुला कर राजनीति की जाती है। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि इतनी हिंसा के बाद भी बंगाल में पार्टी कैडर राजनैतिक दलों के साथ खड़ा है और बंपर वोटिंग कर रहा है। जबकि यूपी जैसे राज्य में सबसे कम मतदान हुआ है जहां चुनावी हिंसा का कोई नामोनिशान नहीं है। 2009 में बंगाल में 81.40 और 2014 में 82.17 वोटिंग हुई थी। अब तक पंाच चरणों में बपंर वोटिंग हुई है। आतंक प्रभावित जम्मू-कश्मीर में राज्य में दो फीसद वोट हासिल करने वाले लोग सासंद चुने गए हैं। चैथे चरण में यहां सिर्फ 10 फीसदी वोटिंग हुई है जबकि चुनावों के दौरान कश्मीर में हिंसा की स्थिति पश्चिम बंगाल जैसी नहीं रही है। यहां पहले चरण में 83.80 दूसरे में 81.72 तीसरे में 81.97 और चैथे 82.84 फीसदी वोटिंग हुई है। मुर्शिदाबाद में एक कांग्रेस कार्यकर्ता की इस दौरान हत्या भी हुई है। भाजपा नेता बाबूल सुप्रियों की कार को तोड़ा गया और हमले किए गए। भाजपा के राष्टीय अध्यक्ष अमितशाह ने खुद कहा है कि जिस तरह टीएमसी के गुंड़ो में मुझ पर पथराव किया अगर सीआरपीएफ न होती तो उनकी जान नहीं बच पाती। फिर आम आदमी की स्थिति वहां क्या होगी जरा सोचिए। सवाल उठता है कि पूरे देश में छह चरणों का मतदान शांतिपूर्वक बीत गया, लेकिन बंगाल में इस तरह की हिंसा क्यों होती है। चुनावी हिंसा पर आयोग को सख्त रास्ता अपनाना चाहिए। यह लोकतंत्र के लिए किसी कंलक से कम नहीं है। हिंसा पर हमारी चुप्पी भविष्य के लिए बड़ी चुनौती है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

12,677 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress