मैं अपने शरीर में रहने वाला एक चेतन तत्व हूं। आध्यात्मिक जगत् में इसे जीवात्मा कह कर पुकारा जाता है। मैं अजन्मा, अविनाशी, नित्य, जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसा हुआ तथा इससे मुक्ति हेतु प्रयत्नशील, चेतन, स्वल्प परिमाण वाला, अल्पज्ञानी एवं ससीम, आनन्दरहित, सुख-आनन्द का अभिलाषी तत्व हूं। मेरा जन्म माता-पिता से हुआ है। मेरे माता-पिता व इस संसार को, जिसमें मुझे भेजा गया है, पहले से ही रचा व बनाया गया है। पहले सृष्टि की रचना किसी सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ और चेतन सत्ता ने की, उसके पश्चात वनस्पति और पशु व पक्षी आदि प्राणियों की रचना करके मनुष्योत्पत्ति की। विगत 1,96,08,53,121 वर्षो से यह क्रम अनवरत जारी है। मुझे, मेरे माता-पिता को व इस सृष्टि को बनाने वाला कौन है? इसका उत्तर शास्त्रों के अध्ययन, चिन्तन-मनन व विवेक से मिलता है कि कोई सत्य, चेतन, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, निराकार, कारण प्रकृति का स्वामी व नियंत्रक, नित्य, अनुत्पन्न, अविनाशी, सर्व-अन्तर्यामी, सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्व है जिसे हम ईश्वर, परमात्मा, भगवान, सृष्टिकर्ता, गाड, खुदा, अल्लाह, रब, मालिक आदि नामों से जानते हैं। यह ईश्वर सत्ता एक ही हो सकती है, एक से अधिक नहीं, ऐसा सृष्टि को देखकर व विचार करने पर ज्ञात होता है। सृष्टि के आरम्भ से अब तक इस जगत में अनेक श्रेष्ठ पुरूषों ने जन्म लिया है जिनका यश व कीर्ति आज तक विद्यमान है। यह सभी सत्याचारी, अन्याय से पीड़ित लोगों की रक्षा करने वाले, त्यागी, तपस्वी, ईश्वरभक्त, वेदभक्त एवं वेदानुयायी, माता-पिता व आचार्यो के प्रति सेवा व भक्ति-भावना रखने वाले थे। इनमें से कुछ ज्ञात महापुरूष मनु, राम, कृष्ण, चाणक्य, दयानन्द, सरदार पटेल, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, राम प्रसाद बिस्मिल, चन्द्र शेखर आजाद, बन्दा बैरागी, भगत सिंह आदि हुए हैं। हमें इन महापुरूषों के जीवन से प्रेरणा लेकर उनके गुणों को धारण करना है, यही उन महापुरूषों की पूजा है एवं स्तुति-प्रार्थना-उपासना-ध्यान आदि केवल ईश्वर का ही करना है और यही ईश्वर की पूजा है।
वेदादि साहित्य का अध्ययन करने पर हमने पाया कि हमारा जन्म भोग व अपवर्ग के लिए हुआ है। भोग का अर्थ है कि हमने अपने पूर्वजन्मों में जो अच्छे–बुरे कर्म किये थे उन कर्मों में से जिन कर्मों का भोग अभी तक हमें प्राप्त नहीं हुआ है, वह हमारा प्रारब्ध है। उसे हमें इस जन्म व अगले जन्मों में भोगना है। इन कर्मो के फलों को भोगने के साथ ईश्वर ने हमें एक सुविधा यह भी दी है कि यदि हम स्वाध्याय से अपने ज्ञान को बढ़ा कर एवं यथार्थ वेदोक्त स्तुति–प्रार्थना–उपासना से ध्यान व समाधि को सिद्ध कर ईश्वर का साक्षात्कार कर लेते हैं तो हमारी मुक्ति व हमें मोक्ष की प्राप्ति हो जायेगी। मुक्ति की अवधि एक परान्तकाल अर्थात् 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्ष होती है। उसके बाद हमारा पुनः जन्म होगा। इस मुक्ति की अवधि में हमें किंचित भी दुःख की अवस्था से नहीं गुजरना पड़ेगा। यह उपलब्धि हमारे शास्त्राध्ययन एवं उसके अनुसार जीवन-यापन व योग साधना से प्राप्त होती है। यहां यह भी लिखना उचित होगा कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक और यहां से मध्य काल में बौद्ध मत के आरम्भ तक सारे विश्व में केवल वैदिक धर्म व संस्कृति का ही प्रचार-प्रसार-पालन व धारण सर्वत्र रहा है। महाभारत काल के पश्चात अज्ञानतावश बौ़द्ध, जैन, पौराणिक व अन्य दूरस्थ देशों में ऐसे ही भिन्न भिन्न मतों का प्रादुर्भाव हुआ। यदि सभी मतों के व्यक्ति मिल कर परस्पर मित्रता व निष्पक्षता से विचार-विमर्श कर मनुष्य धर्म का निर्धारण करें तो निश्चित रूप से वैदिक धर्म व मत को ही सर्वसम्मति से स्वीकार करना होगा और तब वेदेतर मतों के लोगों को जीवन में ईश्वरीय आनन्द की उपलब्धि एवं उसके पश्चात मुक्ति प्राप्त हो सकेगी।
मेरा जन्म आज से लगभग 69 वर्ष पूर्व भारत में हुआ। तब से मैं यहां रह रहा हूं। शैशव अवस्था ने माता पिता ने धर्म व रीति रिवाज सम्बन्धी जो बातें बताई व समझाईं, उन्हें उसी रूप में बिना सोचे विचारे मैंने स्वीकार कर लिया और मानता रहा। विद्यालय की शिक्षा के समय एक पड़ोसी आर्य समाजी मित्र मिल गये, 18 वर्ष की आयु में उनके साथ सायंकाल भ्रमण की आदत पड़ गई। यदा–कदा वह यत्र–तत्र हो रहे प्रवचनों में ले जाया करते थे और आर्य समाजी दृष्टिकोण से उनकी समालोचना करते थे। आरम्भ में पौराणिक संस्कारों के कारण मुझे वह प्रायः उचित नहीं लगती थी। यदा-कदा आर्य समाज भी जाना होता था और वहां यज्ञ, भजन व विद्वानों के विचारों को सुना और पुस्तकें क्रय करके स्वाध्याय किया। धीरे-धीरे पता नहीं कब आर्य समाज के वेद संबंधी विचारों ने मेरे मन व मस्तिष्क पर अधिकार कर लिया और पौराणिक अज्ञान-अन्धविश्वास व कुरीतियों से युक्त बातें मन से दूर चली गईं। मेरा अब दृण विश्वास है कि ईश्वर की सगुण व निर्गुण भक्ति के स्थान पर पौराणिक रीति से मैं जो मूर्ति पूजा व कर्मकाण्ड आदि करता था, वह अधिकांश असत्य, अनावश्यक और अनुचित था। आज मैं आत्मिक सन्तोष का अनुभव करता हूं। यह सब मुझे सत्यार्थ प्रकाश आदि अनेक ग्रन्थों के स्वाध्याय व विद्वानों के प्रवचनों सहित चिन्तन व मनन से प्राप्त हुआ है। आत्मा व मन इस बात से सन्तुष्ट हैं कि हमें इस संसार व ईश्वर के बारे में यथार्थ ज्ञान है।
जो ज्ञान व संस्कार अब हमारे हैं वह भारत के सभी लोगों व विश्व के लोगों के नहीं है। वहां इस प्रकार के सत्य व परम उपयोगी विचारों को जानने व उसके प्रचार प्रसार की किसी प्रकार की व्यवस्था नहीं है। यदि समुचित व्यवस्था होती तो मुझे लगता है कि विद्यार्थी काल में जिस प्रकार से मेरा बौद्धिक मतान्तरण हुआ, उसी प्रकार शायद संसार के सभी लोगों का हो सकता था। मुझे इन विचारों को मानने या अपनाने के लिए किसी ने प्रेरणा व प्रभाव का प्रयोग नहीं किया अपितु यह स्वतः हुआ और तब हुआ जब मेरी आत्मा ने उसे स्वीकार किया। मुझे लगता है और यह वास्तविकता है कि संसार में वैदिक विचारों, सिद्धान्तों व मान्यताओं का प्रचार नगण्य है एवं दूसरे मतानुयायी योजनाबद्ध रूप से वेद एवं पौराणिक लोगों को मतान्तरित कर उन्हें स्वमत में दीक्षित कर इस देश की राजनैतिक सत्ता को हथिया कर अपना छद्म उद्देश्य पूरा करना चाहते हैं। इसके लिए वह अन्दर ही अन्दर सब प्रकार के कुत्सित कार्य भी करते हैं परन्तु बाहर से स्वयं को बहुत ही अच्छा व मानवता का सेवक दिखाते हैं जिसमें राजनीतिक स्वार्थ के वशीभूत हमारे ही बन्धु आंखे बन्द कर सहयोग व समर्थन करते व मौन रहते हैं।
हमें लगता है कि हमारा कर्तव्य है कि ईश्वर से प्राप्त वेद एवं वैदिक ज्ञान की रक्षा होनी चाहिये। ऐसा न हो की भविष्य में यह कहीं विलुप्त न हो जाये। इसके लिए हमें हर सम्भव प्रयास करना है। अपनों को मनाना है व उन्हें इस विश्व–वरेण्य संस्कृति के महत्व को हृदयगंम कराना है। हमें विश्व के अन्य मतावलम्बी बन्धुओं को भी आमन्त्रित करना है कि वह भी ईश्वर, जीवात्मा के स्वरूप पर हमसे प्रेमपूर्वक संवाद व चर्चा करें। यदि उन्हें हमारे विचारों में कहीं कोई कमी दृष्टिगोचर होती है तो वह हमें बतायें, हम सदिच्छा से उसे समझ कर उसका समाधान व निराकरण करेंगे। यह तभी सम्भव होगा जब हम स्वामी दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानन्द, स्वामी अमर स्वामी, पं. शान्तिप्रकाश, पं. गणपति शर्मा जैसा स्वयं को बनायें। इसके लिए हमें अपने गृहस्थ जीवन में भी और उसके पश्चात 50 या 60 वर्ष की आयु में गृहस्थ व व्यवसाय से सेवानिवृत्त होकर घर में रहते हुए या वानप्रस्थी की भांति इस कार्य में जुटना पड़ेगा। गृहस्थ व सेवाकाल व व्यवसाय के काल में भी इस कार्य को यथाशक्ति करना होगा तभी सेवा निवृत्ति के पश्चात यह काम कर सकेंगे। यदि इसकी उपेक्षा करेंगे तो वह दिन दोबारा आ सकता है जब बौद्धों के प्रचार की भांति हमारे सभी बन्धु भिन्न-2 मतों के अनुयायी बन जायेंगे और उन मतों के लोग हमारी वैदिक धर्म व संस्कृति को नष्ट व समाप्त कर देंगे। ऐसा पहले भी करने के प्रयास हुए हैं। वह प्रयास आंशिक रूप से सफल भी हुए व अब भी हो रहे हैं, जिससे हमें अपूर्व हानि हुई है अन्यथा आज का इतिहास कुछ और ही होता। इस बात की कोई गारण्टी नहीं है और न हो सकती है कि ऐसा कभी नहीं होगा। अतः सावधान होकर अपने कर्तव्य का पालन जैसा ऋषि दयानन्द बता गये हैं, हमें भी करना है।
हमने इस लेख के शीर्षक में ‘मैं और मेरा देश’ शब्दों का प्रयोग किया है। इन शब्दों से हमारा तात्पर्य वैदिक संस्कारों से युक्त मैं व मेरे देशवासी व विश्व–वासियों से है जो सत्य, यथार्थ, सृष्टि क्रम के अनुरूप सिद्धान्तों व मान्यताओं को जाने और अपने कल्याणार्थ उसे माने। जब हमारे देश के सभी या अधिकांश लोग वैदिक मतानुयायी हो जायेगें तब यह देश विश्व शान्ति का धाम बन जायेगा। इसके लिए हमें सत्य, प्रेम, सहयोग, परोपकार, सेवा, शिक्षा, वेद प्रचार का प्रयोग करना है। ईश्वर की शक्ति व प्रेरणा हमारे साथ है, अतः हमें चिन्ता नहीं करनी है। हमारी आत्मा अमर है, यह हमारा दृण विश्वास है, अतः भय का काई स्थान नहीं। सत्य व धर्म की रक्षा व प्रचार के मार्ग में चलकर यदि कुछ अप्रिय भी होता है तो ईश्वर से हमें उसकी क्षतिपूर्ति ही नहीं होगी अपितु असीम सुख व आनन्द की उपलब्धि होगी। हमें ऋषि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, महाशय राजपाल जी आदि के बलिदान को अपने दृष्टि में रखना चाहिये। अतः आर्य समाज के सभी लेागों को अपने मतभेद भुलाकर विचार मन्थन कर वह योजना बनानी होगी जिससे हम देश के सभी मतों के विद्वानों को अपना सत्य-सन्देश देकर उन्हें आलोचना व समीक्षा का अवसर दें और निवेदन करें कि यदि वह आलोचना नहीं कर रहे हैं और उन्हें हमारी मान्यतायें सत्य लगती हैं तो वह उन्हें स्वीकार कर हमारे साथ मिलकर कार्य करें। ऐसा होने पर ही देश से भ्रष्टाचार, लूट, स्वार्थ का कारोबार, सामाजिक बुराईयां, आतंकवाद, अनाचार व दुराचार आदि समाप्त होगा। सामाजिक अन्याय दूर होगा, जातिवाद, ऊंच-नीच की भावना समाप्त होगी, शोषण व अन्याय समाप्त होगा और हमारा देश ऐसा होगा जिससे न केवल हम ही प्रसन्न व सन्तुष्ट होगें अपितु समस्त देशवासी सुःख से अपना जीवन व्यतीत कर सकेंगे। ऐसा करने से ही वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा हो सकती है जिसके लिए हमारे ऋषि मुनियों सहित ऋषि दयानन्द और वीर बलिदानियों ने अपने जीवन खपाये हैं। आईये, इस विषय पर चिन्तन करते हैं और जिससे जो बन सकता है उसके लिए अपने जीवन से समय निकाल कर व अपनी सामथ्र्य के अनुसार धन व श्रम के दान सहित वेद प्रचार का अपना कर्तव्य निभायें। हम सत्य पर हैं अतः ईश्वर हमारे साथ है, वह साथ रहेगा, साथ देगा भी, इसकी आशंका नहीं होनी चाहिये।