एक बात तो कहना पड़ेगा कि बॉलीवुड के स्क्रिप्ट राइटर्स को केजरीवाल के पैर को धो कर पीना चाहिए.. राजनीतिक ड्रामेबाजी में केजरीवाल अद्वितीय है.. बैंगलोर में केजरीवाल ने कहा कि पार्टी ने फैसला किया है कि वो मोदी के खिलाफ बनारस में चुनाव लड़ेंगे. लेकिन साथ में ये भी कहा कि अगर बनारस की जनता कहेगी तभी मैं चुनाव लड़ूंगा. बनारस की जनता ने तो फैसला कर लिया होगा अबतक कि किसे वोट देना है.. लेकिन इसे ड्रामे को समझते हैं.. एक तरफ इसने बनारस की जनता की दुहाई दी और दूसरी तरफ पार्टी ने एसएमएस के जरिए अपने सारे समर्थकों और कार्यकर्ताओं को बनारस बुलाया है.. अब सवाल है कि बाहर से लोगों को बुलाने का क्या मतलब हैं.. मतलब साफ है कि पार्टी के पास बनारस में इज्जत बचाने लायक भी समर्थक नहीं है.. ये लोग बनारस की रैली को बाहरी लोगों से भर देंगे और उसे कहेंगे कि ये बनारस की जनता का समर्थन है.. फिर वही जैसे दिल्ली में हुआ.. फर्जी वोटिंग होगी. सब लोग हाथ उठाकर केजरीवाल को लड़ने का आमंत्रण दें देंगे.. केजरीवाल बाहरी लोगों को बनारसी बता कर यह कहेगा कि “ये बनारस की जनता का फैसला है.. ये मैं नहीं लड़ रहा हूं बनारस की जनता लड़ रही है.. चुनाब अगर हार गया तो मैं चुनाव नहीं हारूंगा.. बनारस की जनता हार जाएगी.. मैं तो जी.. छोटा सा आदमी हूं.. मेरी कोई औकात नहीं है जी.. ये तो बनारस की जनता ने खड़ा करवाया और बनारस की जनता हार गई.. इसमें मेरा कुछ नहीं गया..”
आम आदमी पार्टी के कई दोस्तों से मेरी बातचीत हुई. उनकी बात सुनकर हैरानी भी हुई. अरविंद केजरीवाल बनारस से लड़ना नहीं चाहते हैं. लेकिन पार्टी के कुछ नेताओं ने केजरीवाल का हिसाब लगाने और उसकी हैसियत कम करने के लिए यह साजिश रची है. कानपुर की रैली का वीडियो गौर से देखिए.. वहां अचानक से आम आदमी पार्टी के नेताओं ने मोदी के खिलाफ बनारस से लड़ने की बात शुरु कर दी. केजरीवाल हैरान थे.. लेकिन पब्लिक के सामने वो कुछ नहीं कह सके. बाद में उन्होंने इसका विरोध भी किया. लेकिन तब तक मीडिया ने इस मामले को तूल दे दिया. सच्चाई ये है कि बनारस की जनता दिल्ली वालों की तरह नहीं है जो झांसे में आ जाए. बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश का आम वोटर आम आदमी पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं से भी परिपक्व है. केजरीवाल जानते हैं कि दिल्ली के आसपास के अलावा उनकी पार्टी यूपी में एक भी सीट जीतने वाली नहीं है. इन बातों की पुष्टि आशुतोष ने किया जब उन्होंने कहा कि पार्टी केजरीवाल को इस बात के लिए मनाएगी कि वो मोदी के खिलाफ लड़े. वहीं, जब केजरीवाल से रोडशो के दौरान ये सवाल पूछा गया तो वो इस सवाल से बच निकले, बस इतना कहा कि वो किसी दमदार उम्मीदवार को मैदान में उतारेंगे. कहने का मतलब यह है कि केजरीवाल ये चुनाव पार्टी के कुछ नेताओं की जिद्द व दबाव की वजह से लड़ रहे हैं और जो लोग केजरीवाल को इस चुनाव में धकेल रहे हैं वो ये काम केजरीवाल को औकाद दिखाने के लिए कर रहे हैं …
पार्टी के लोग बताते हैं कि अगर केजरीवाल हार जाते हैं तो उनकी हैसियत पार्टी में कम होगी. जो सांसद चुने जाएंगे उनकी हैसियत पार्टी में ज्यादा होगी. दूसरी बात समझने की यह है कि आज कल दिल्ली में एफएम पर जो प्रचार आ रहा है उसमें मनीष सिसोदिया की आवाज सुनाई देने लगी है. योजना यह है कि अगर वो जीत जाते हैं तो मनीष सिसोदिया को दिल्ली का मुख्यमंत्री उम्मीदवार बना दिया जाएगा.
वैसे भी, आम आदमी पार्टी अब आम राजनीतिक दल में तब्दील हो गई.. टिकट वितरण में ठीक वैसा ही हो रहा है जो दूसरी पार्टियों में होता है. कार्यकर्ता नाराज हैं इसलिए अब आगे आगे देखिए क्या होता है….
डाक्टर मनीष कुमार की एक बात से तो मैं सहमत हूँ कि एसएमएस भेजकर बाहरी कार्य कर्ताओं को नहीं बुलाना चाहिए था,पर अन्य किसी भी भी बात पर मेरी सहमति नहीं है.पहली बात नाटक या ड्रामेबाजी की.इसमें मैं नमो को अरविन्द से बहुत आगे रखता हूँ.अरविन्द लाख प्रयत्न करे नमो के सामने ड्रामेबाजी में नौसीखिुये नजर आयेंगे. आज से छह महीने पहले नमो ने कहा था कि उन्हें गुजरात की जनता ने २०१७ तक के लिए चुना है,अतः इससे पहले गुजरात छोड़ने का प्रश्न नहीं उठता.उसी समय मैंने फेशबूक पर लिखा था,कि इससे बहुत से नमो भक्तों के दिल टूट गए होंगे,पर साथ ही साथ मैं यह टिपण्णी दी थी कि उनको निराश होने की कोई आवश्कता नहीं,क्योंकि नमो गिरगिट की तरह रंग बदलने और नौटंकी करने में माहिर हैं,अतः जल्द ही वे अपने इस वक्तव्य को भूल जायेंगे और वहीं हुआ. अरविन्द को तो दिल्ली की जनता ने बहुमत नहीं दिया ,अतः उनके सामने ऐसी कोई समस्या नहीं है.अब आते हैं, हिंदुत्व और विकास के मामले पर तो पहले मोदी ने हिंदुत्व बेचा,जब उसका बाजार भाव कम हो गया तो विकास बेचने लगे. आज मैं पूछता हूँ कि गुजरात और दिल्ली के विकास में क्या अंतर है?शीला दीक्षित भी कहती थी कि विकास दीखता है,वहीं नमो और उनके समर्थक भी कह रहे हैं,जबकि बिजलीगुजरात में ज्यादा महँगी है.सड़क के मामले में भी दिल्ली का कोई हिस्सा गुजरात के किसी हिस्से से खराब नहीं है.गुजरात नमो के पहले भी पिछड़ा राज्य नहीं था.नमो के आने के बाद भी वहाँ सरकारी स्कूलों और सरकारी अस्प्तालों की दशा में कोई सुधार नहीं हुआ है.मैं नहीं समझता कि भ्रष्टाचार में भी कोई कमी आयी होगी,क्योंकि भ्रष्ट मंत्रियों का मंडल भ्रष्टाचार कैसे कम कर सकता है?
अब प्रश्न उठता है नमो और अरविन्द के वाराणसी में मुकाबले की,तो डाक्टर साहिब,याद रखिये,नमो वाराणसी को स्टेपनी की तरह यूज कर रहे हैं.अगर मै बनारसी अकड़ से थोडा भी वाकिफ हूँ,तो यह खेल नमो के लिए महंगा पड़ सकता है.अगर नमो को अपनी जीत का इतना ही भरोषा से है,तो सुरक्षित सीट चुनने के बावजूद वे केवल एक ही जगह से चुनाव क्यों नहीं लड़ रहे हैं? सच पूछिएतो २०१४ का पूरा चुनाव अम्बानी और आम आदमी पार्टी के बीच है.एक और तो वे लोग हैं,जो अम्बानियों और बड़े बड़े पूजीपतियों के हाथ बीके हुए हैं और दूसरी तरफ एक नई पार्टी है,जो देश को इनके चंगुल से निकालने के लिए लड़ रही है,जो छोटे छोटे व्यापारियों को,छोटे और मझोले कद के उद्योगों और उस आम आदमी का प्रतिनिधित्व करती है,जिसे आज भी ठीक से दो जून की रोटी नहीं नसीब है.