1989 : राजनीतिक इतिहास में एक निर्णायक मोड़

लालकृष्‍ण आडवाणी

फ्रांसिस फुकुयामा एक देदीय्यमान राजनीतिक विचारक हैं लेकिन अनेक लोग उनसे तब सहमत नहीं हुए थे जब सन् 1992 में उन्होंने अपनी पुस्तक ‘दि ऍन्ड् ऑफ हिस्ट्री ऐण्ड दि लास्ट मैन‘ लिखी थी, जिसमें उन्होंने लिखा:

”आज हम जो भी देख रहे हैं वह शीत युध्द की समाप्ति मात्र नहीं है या युध्दोत्तर इतिहास के एक विशेष काल का गुजर जाना नहीं है, अपितु इतिहास का अंत कुछ ऐसा है: यह मनुष्य के वैचारिक क्रमिक विकास और पश्चिम के उदारवादी लोकतंत्र का अंतिम बिंदु है जो कि मानव सरकार के अंतिम स्वरुप में हमारे सामने है।”

हमारे देश में विधानसभाई चुनावों के संदर्भ में, जिसके परिणाम गत् सप्ताह घोषित किए गए का सर्वाधिक महत्वपूर्ण निष्कर्ष है पश्चिम बंगाल से सीपीआई(एम) शासन की समाप्ति।

सीपीएम के नेतृत्व वाले वाम मोर्चे ने पश्चिम बंगाल में 1977 से सरकार का कामकाज संभाला था। किसी अन्य दल को यह सौभाग्य नहीं मिला कि वह किसी राज्य में लगातार 34 वर्षों तक शासन करता रहे जैसाकि सीपीएम को मिला। और इसके बावजूद राज्य की विकासात्मक वृध्दि और शिक्षा तथा स्वास्थ्य के क्षेत्र में लोक कल्याण के अर्थों में इसकी उपलब्धियां स्पष्ट रूप से निराशाजनक रहीं।

ममता ने पश्चिम बंगाल में वह हासिल कर इतिहास में अपना स्थान बनाया है, जो और कोई हासिल नहीं कर पाया यानी राज्य से माक्र्सवादी प्रभुत्व को समाप्त कर देना।

आज भाजपा केंद्र में शासन में नहीं है लेकिन हम सात प्रदेशों में सरकारों में हैं; इसके अलावा एनडीए दो राज्यों में सत्तारूढ़ है।

नई दिल्ली में श्री वाजपेयीजी (1998 से 2004) के नेतृत्व में 6 वर्ष और उन नौ राज्यों में जहां हम सत्तारूढ़ हैं, के आधार पर मैं कह सकता हूं कि यदि केन्द्र या फिर किसी भी राज्य में हमें यह असाधारण अवसर मिला होता जैसाकि वामपंथियों को मिला, या यहां तक कि डेढ़ अथवा दो दशक भी लगातार सरकार चलाने का अवसर मिला होता तो यह विश्वासपूर्वक दावा किया जा सकता है कि उस राज्य की जनता की पूर्ण क्षमताओं का उपयोग किया गया होता और देश को दुनिया के अन्य विकसित देशों के स्तर पर पहुंचाया गया होता।

गरीबी, निरक्षरता, स्वास्थ्य देखभाल सम्बन्धी अभाव, उर्जा की अपर्याप्ता, सड़कों, आधारभूत ढांचे के अन्य पहलुओं तथा सिंचाई इत्यादि की समस्याएं – यह सभी निश्चित रूप से इतिहास बन जातीं।

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इस संदर्भ में मुझे स्वतंत्रता प्राप्ति के शुरूआती वर्षों का स्मरण हो आता है और हमसे मिलने वाले उन वामपंथी नेताओं का घमण्डी व्यवहार भी नहीं भूला जा सकता जब। जनसंघ उस समय अपनी शैशवास्था में था। मुझे केरल के एक माक्र्सवादी नेता का ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की तर्ज पर घमण्डी व्यवहार स्मरण हो आता है। उन्होंने कहा: ”ब्रिटिश कहा करते थे: ”ब्रिटिश साम्राज्य में सूरज कभी अस्त नहीं होता। यह कुछ समय की बात है जब हम भी ऐसा ही दावा करने लगेंगे। पहले से ही आधे से ज्यादा यूरोप हमारे नियंत्रण में है। केवल भारत में ही नहीं एशिया के सभी विकासशील देशों में कम्युनिस्ट विचारधारा को भविष्य की आशा के रूप में देखा जाता है।”

स्वतंत्रता प्राप्ति से ही भारतीय राजनीति को निकट से देखने वाले प्रेक्षक के रूप में मैं मानता हूं कि सन् 1989 जिसे फुकुयामा ने बर्लिन दीवार के गिरने और सोवियत संघ को ध्वस्त होने के चलते इतिहास के अंत के रूप में वर्णित किया, अंत नहीं है लेकिन वैश्विक इतिहास और भारतीय राजनीतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ अवश्य है।

सन् 1989 कम्युनिस्ट विचारधारा के अंत की शुरूआत के रूप में निश्चित ही पहचाना जाएगा। भारत में यह अंत भले ही दो दशक बाद आया हो लेकिन यह आया है।

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भाजपा की स्थापना 5 एवं 6 अप्रैल, 1980 में नई दिल्ली में सम्पन्न हुए एक राष्ट्रीय सम्मेलन में हुई। सम्मेलन से पूर्व 4 अप्रैल, 1980 को जनता पार्टी की सेंट्रल पार्लियामेंटरी बोर्ड की मीटिंग हुई थी।

बोर्ड की इसी मीटिंग में पूर्ववर्ती जनसंघ के सभी सदस्यों को जनता पार्टी से बाहर निकालने का फैसला इस आधार पर लिया गया कि ये सभी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सदस्य हैं और इससे दोहरी सदस्यता का मामला बनता है तथा इसलिए जनसंघ के सदस्यों को जनता पार्टी में बने रहने नहीं दिया जा सकता।

संयोगवश 1980 में 4 अप्रैल गुडफ्राइडे था और 6 अप्रैल जिस दिन भाजपा की औपचारिक स्थापना हुई ईस्टर सण्डे था।

ईसाई मान्यताओं के संदर्भ की इन दोनों तिथियों का उल्लेख अक्सर मैं एक संदेश देने के उद्देश्य से करता हूं।

गुडफ्राइडे के दिन माना जाता है कि ईसा मसीह को सलीब पर चढ़ाया गया और ईस्टर सण्डे उनके पुर्नजीवित होने का दिन माना जाता है।

भाजपा बनने के तुरंत पश्चात् पार्टी को पहला लोकसभाई चुनाव 1984 में श्रीमती गांधी की उनके सुरक्षाकर्मियों द्वारा की गई नृशंस हत्या के कुछ सप्ताह के बाद ही लड़ना पड़ा।

दिसम्बर, 1984 में हुए इन चुनावों में भाजपा ने 229 प्रत्याशी खड़े किए थे। लेकिन हम केवल 2 सीटें जीत पाए! यहां तक कि 32 वर्ष पूर्व 1952 में हुए पहले आम चुनाव में भारतीय जनसंघ ने 3 सीटें जीती थीं। अत:, यह वर्ष हमारे ग्राफ का सर्वाधिक निम्नतम बिंदु था। वास्तव में, अनेक स्थानों पर मैं अक्सर टिप्पणी करता था: हमारे लिए यह लोकसभा का चुनाव नहीं अपितु शोकसभा का चुनाव था!

लेकिन 1989 का चुनाव हमारे लिए कम महत्वपूर्ण नहीं था, जो हमारे तब के ग्राफ के उच्चतम बिंदु पर पहुंचा। 1984 में 2 सीटों से हम 1989 में 86 सीटों पर पहुंचे! और उसके पश्चात् से 1988 तक हमने पीछे मुड़कर नहीं देखा जब हमें लोकसभा में 182 सीटें मिलीं तथा हमने सफलतापूर्वक राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बनाया जिसने देश में सन् 2004 तक के 6 वर्षों तक शासन किया।

वस्तुत: यह भाजपा की ही उपलब्धि है कि पिछले दो दशकों में उसने भारतीय राजनीति को कांग्रेस और भाजपा के बीच के दो मुख्य राष्ट्रीय ध्रुवों में परिवर्तित कर दिया है।

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पिछले 6 महीनों से ज्यादा समय से देश के प्रत्येक कोने में केवल एकमात्र भ्रष्टाचार का मुद्दा ही सार्वजनिक चर्चा का विषय बना हुआ है। अधिक से अधिक लोग टिप्पणियां कर रहे हैं: घोटालों का सामने आया आकार इतना बड़ा है कि आम आदमी कहने लगा है: यह साधारण सरकारी भ्रष्टाचार नहीं है जिसे हम जानते हैं; अपितु यह तो लूट और डकैती से किसी भी रुप में कम नहीं है!

जब मैंने जयललिताजी को उनकी विजय पर बधाई दी तो मैंने कहा कि उनकी सफलता निस्संदेह उनके राज्य के लिए काफी अच्छी रहेगी लेकिन इस समय स्पेक्ट्रम घोटाले के चलते तमिलनाडू के नतीजों का राष्ट्रीय महत्व है। यदि इस सबके बावजूद उनके विरोधी जीत गए होते तो यह संदेश देश के लिए चौंकाने वाला होता कि: मतदाता भ्रष्टाचार के बारे में पूर्णतया चिंतित नहीं हैं! शुक्र है उनकी उपलब्धि के चलते यह नहीं हुआ!

टेलपीस (पश्च्य लेख)

स्वतंत्रता के शुरुआती वर्षों में हम, जिनका वैचारिक आधार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में था, स्वाभाविक रुप से हम साम्यवाद को अपना मुख्य वैचारिक प्रतिद्वन्द्वी मानते थे। पुस्तक प्रेमियों को मैं तीन पुस्तकें पढ़ने के लिए कहता था जो मैंने उन दिनों पढ़ी थीं और जिन्हें आज भी पढ़कर आनन्द आता है। इनमें से दो पुस्तकें उपन्यास हैं और जार्ज ऑरविल ने लिखें हैं, ये हैं (1) एनीमल फार्म: ए फेयरी टेल (2) नाइनटीन एटी-फोर: ए पॉलिटिकल नॉवल। इसमें से पहली पुस्तक 1945 में और दूसरी 1949 में प्रकाशित हुई।

तीसरी पुस्तक जिसकी मैं प्रशंसा करना चाहता हूं जो केवल उपन्यास नहीं है। यह एक आत्म चरित्र है ‘विटनेस‘, लेखक हैं व्हिट्टकर चेम्बर्स जिन्होंने 1930 के दशक में वाशिंगटन में कम्युनिस्ट भूमिगत आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और 1938 में कम्युनिज्म तथा कम्युनिस्ट पार्टी से अलग हो गए थे। वह एक प्रतिष्ठित लेखक और टाइम पत्रिका के सम्पादक के रुप में सामने आए। पुस्तक पहली बार 1952 में प्रकाशित हुई।

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने इस पुस्तक के बारे कहा था: ”जब तक मानवता नैतिकता और आजादी के सपनों के लिए बोलेगी तब तक व्हिट्टकर चेम्बर्स का जीवन और लेखन उद्दान्त और प्रेरक बना रहेगा।”

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