26/11 एवं टीआरपी

1
221

taj-attackबीते साल 26 नवंबर को भारत की आर्थिक राजधानी कहे जाने वाली मुंबई पर हुए आतंकी हमले का एक साल पूरा हो गया है। इस एक साल पूरा होने के मौके को भुनाने के लिए मीडिया आतुर है। सभी चैनलों ने विशेष कार्यक्रम तैयार किए हैं। कई चैनल तो बाकायदा मोमबत्तियां जलवा रही हैं। चैनलों के रवैये को देखकर कहा जा सकता है वे इस मौके को कमाई के मौके में तब्दील करने में कोई कसर नहीं छोडऩा चाहते हैं। दरअसल, पिछले साल जब हमला हुआ था, उस वक्त भी चैनलों का रवैया भी कुछ ऐसा ही था।

मुंबई पर हुए हमले ने अब तक प्रचलित सवालों के अलावा भी कई सवाल खड़े किए। देश की सुरक्षा व्यवस्था, खुफिया विभाग की कार्यप्रणाली, आपदा प्रबंधन, राजनैतिक इच्छाशक्ति में कमी जैसे मसले तो हर ऐसी दुघर्टना के बाद उठते ही रहते हैं। इन पर जमकर चर्चा भी होती है और बयानबाजी भी लेकिन कुछ दिन गुजरते ही सब कुछ भुलाकर हर तबके के लोग अपने ढर्रे पर वापस लौट जाते हैं और फिर कोई ऐसी वारदात होती है तो वही नाटक दुहराया जाता है। पर इस बार के आतंकी हमले के मीडिया कवरेज को लेकर भी कई सवाल उठ रहे हैं।

भारत आतंकवाद की मार लंबे समय से झेलता रहा है। लेकिन ऐसी वारदातों के मीडिया कवरेज को लेकर पहली बार सवाल उठ रहे हैं। हालांकि, जब से भारत में इलैक्ट्रानिक मीडिया के मात्रात्मक विकास ने जोर पकड़ा है तब से ही जनसंचार के इस माध्यम पर सवाल खड़े किए जाते रहे हैं। बाजारीकरण की आंधी के प्रतिरोध की अपेक्षा लोकतंत्र के चौथे खंभे से किया जाना गलत भी नहीं है। पर व्यावसायिक मजबूरियों में ही सही खबरिया चैनल खबरिया सरोकारों से भटके और अब तो यह मान भी लिया गया कि अगर बाजार में बने रहना तो दशकों पुराने आदर्शों से मुक्त होना होगा।

उन्हीं आदर्शों पर चलकर ऊंचे ओहदों पर पहुंचे पत्रकारों ने इस क्षेत्र में आने वाली नई पौध को यह समझाना शुरू कर दिया कि अगर खबरों के इस माध्यम में काम करना है तो मिशन और सामाजिक सरोकार जैसे शब्दों को भूल जाइए। इसी भटकाव या उनके शब्दों में हुए बदलाव का असर है कि समाचार चैनलों और मनोरंजन चैनल का फर्क घटता गया। बहुत जल्दी खबर एक उत्पाद बन गया और दर्शक और श्रोता ग्राहक बन गए।

बहरहाल, इन सबके बावजूद कुछ खास मौकों पर मीडिया से आवश्यक जिम्मेदारी और संवेदनशीलता की अपेक्षा करना गलत नहीं है। क्योंकि बाजारवाद की बयार के बावजूद कम से कम राष्ट्रहित से ऊपर आज भी कुछ नहीं है। मुंबई में जब आतंकी हमला हुआ तो मीडिया से ऐसी ही जिम्मेवारी की अपेक्षा स्वाभाविक तौर पर थी। पर जिस तरह से इलैक्ट्रानिक मीडिया का बर्ताव रहा उसे देखते हुए यह अंदाजा लगाना ही काफी भयावह है कि यह गैरजिम्मेदराना रवैया आखिरकार हमें कहां ले जाएगा। खबरों की आपाधापी और ब्रेकिंग न्यूज की अतिउत्साही ललक ने इस मर्तबा परोक्षा रूप से आतंकवादियों को ही मदद पहुंचाया और उनसे हमारे जवानों का संघर्ष लंबा खिंचता रहा।

हमला होने के कुछ ही देर बाद ताज और ओबराय होटल के केबल कनेक्शन को काट दिया गया था। यह कदम तब उठाया गया जब लगा कि 24 घंटे चलने वाले खबरिया चैनलों के लाइव प्रसारण से आतंकियों को बाहर से हो रही जवाबी कार्रवाई की पल-पल की जानकारी मिल रही है। इसके बावजूद जिस तरह से आतंकी डटे रहे उसे देखते हुए इस बात को और बल मिला कि केबल कनेक्शन काटने के बावजूद आतंकियों को सुरक्षाकर्मियों के एक-एक मूव की जानकारी मिल रही है। खबर आई कि होटल के अंदर तांडव मचा रहे आतंकवादियों के पास ब्लैकबेरी मोबाइल है जिस पर उन्हें उनके आका पाकिस्तान से लाइव फीड मुहैया करा रहे हैं। ये फीड भी भारतीय खबरिया चैनलों के प्रसारण के ही थे।

लाइव प्रसारण की वजह से अंदर छुपे आतंकियों को इतना तक पता चल रहा था कि कहां से और कब कितने सुरक्षाकर्मी होटल के अंदर आ रहे है। इन जानकारियों के बूते वे ज्यादा देर तक प्रतिरोध करने में सक्षम रहे। जबकि भारतीय सुरक्षाकर्मियों को इस बात की भनक तक नहीं होती थी कि आतंकवादी कहां छुपे हुए हैं और कहां से हमला करने वाले हैं।

इसके बाद गृह मंत्रालय ने हस्तक्षेप किया और खबरिया चैनलों को यह निर्देश दिया कि लाइव प्रसारण बंद किया जाए ताकि आतंकियों को मिलने वाली परोक्ष मदद पर रोक लगे और उन्हें जल्दी काबू में किया जा सके। लेकिन खबरिया चैनल नहीं माने। फिर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने समाचार चैनलों के प्रमुख से इस बाबत बातचीत की और कहा कि लाइव प्रसारण के बजाए दो घंटे की देर से प्रसारण किया जाए। इसके बाद जाकर लाइव प्रसारण से खबरिया चैनल बाज आए।

इस दौरान समाचार चैनलों को यह भी निर्देश दिया गया कि जब तक ऑपरेशन पूरा नहीं होता है तब तक इस हमले में मारे गए लोगों के विजुअल नहीं दिखाए जाएं। इसके पीछे मंत्रालय ने जो तर्क दिया वह वाजिब था। मंत्रालय का कहना था कि इससे आतंकियों का मनोबल तो बढ़ेगा ही साथ ही साथ देश भर में भय और आतंक का माहौल कायम होगा। इस निर्देश की भी अनदेखी की गई। मीडिया के गैरजिम्मेदराना रवैये की हद तो तब हो गई जब एक चैनल ने एक अनजाने से आतंकवादी संगठन डक्कन मुजाहिदीन के एक आतंकी को अपने चैनल का मंच प्रदान कर दिया। इस आतंकी को फोन से दिए जा रहे साक्षात्कार के जरिए जहर उगलने की आजादी एक भारतीय समाचार चैनल ने दे डाला।

पहली बात तो यह कि जो व्यक्ति खुद के गुमनाम संगठन को इस हमले का जिम्मेवार बता रहा है उसकी विश्‍वसनीयता को कैसे इस समाचार चैनल ने सही मान लिया? वहीं दूसरा सवाल यह भी है कि अगर वाकई कोई आतंकवादी संगठन का कोई आतंकी ऐसी वारदातों को अंजाम दिए जाने के बावजूद किसी खबरिया माध्यम में आकर जहर उगलना चाहता है तो क्या उसे यह मंच दिया जाना चाहिए?

अहम मसला यह भी है कि अगर कोई भी व्यक्ति किसी मीडिया संस्थान में फोन करके किसी भी आतंकी वारदात को अंजाम देने का दावा करता है तो क्या उसे बगैर आवश्यक प्रमाण और पड़ताल के मान लेना चाहिए। ऐसे मामले में यह खतरा हमेशा बना रहता है कि कोई अनावाश्यक तत्व शक्तिशाली जनसंचार माध्यमों का दुरूपयोग न कर ले। खुद को किसी संगठन विषेश का प्रतिनिधि बताकर मीडिया को भ्रमित करने के काम को पहले भी बखूबी अंजाम दिया जा चुका है।

भोपाल में 1984 में जहरीली गैस लीक हो जाने की वजह से बड़ी संख्या में लोगों ने जान गंवाई थी। इस दुर्घटना के लिए डो केमिकल्स को जिम्मेवार माना जाता है। एक बार लंदन स्थित बीबीसी मुख्यालय में किसी ने फोन किया कि डो केमिकल्स के एक वरिष्ठ अधिकारी भोपाल त्रासदी की बाबत एक बड़ी घोषणा करने वाले हैं और हम चाहते हैं कि यह एक्सक्लूसिव जानकारी बीबीसी को ही मिले। इसके बाद बीबीसी की टीम पहुंच गई और उस कथित अधिकारी ने कहा कि डाउ केमिकल्स भोपाल में हुई त्रासदी की जिम्मेवारी स्वीकार करती है और मारे गए लोगों के प्रति गहरी संवेदना व्यक्त करती है साथ ही डाउ केमिकल्स इस दुर्घटना के शिकार लोगों के लिए बीस हजार करोड़ के पैकेज की घोशणा करती है।

यह खबर जंगल में आग की तरह फैली। देखते ही देखते डो केमिकल्स और उसके अन्य कंपनियों के शेयर धराशाई हो गए। जब तक डो केमिकल्स की तरफ से स्पष्टीकरण आता तब तक कंपनी का नुकसान हो चुका था। इसके बाद जिस व्यक्ति ने अधिकारी बनकर वह जानकारी दी थी उसने स्वीकार किया कि वह भोपाल त्रासदी के षिकार लोगों के अधिकारों के लिए संघर्श कर रहे एक जन संगठन का प्रतिनिधि है। उसने यह काम डाउ केमिकल्स को नुकसान पहुंचाने के मकसद से किया था और वह अपने मकसद में कामयाब भी रहा। उस व्यक्ति को गलत या सही ठहराने को लेकर हर व्यक्ति के पास अपने-अपने वजनी तर्क हो सकते हैं। पर बीबीसी की साख पर तो इस घटना से बट्टा लग चुका था। ऐसे और भी कई उदाहरण हैं लेकिन इसके बावजूद खबरिया संस्थानों में इन बातों का खयाल नहीं रखा जाना दुखद है।

गौर करने वाली बात यह भी है कि जयपुर और दिल्ली में पिछले साल हुए आतंकवादी हमले के बाद इंडियन मुजाहिदीन नामक आतंकी संगठन का नाम प्रमुखता से सुर्खियों में आया। इन दोनों जगहों पर आतंकी वारदातों को अंजाम देने के बाद इस संगठन ने दो लंबे-चैड़े पत्रों का प्रसार ईमेल के जरिए किया। पर यहां मीडिया ने अपनी जिम्मेवारी निभाई और पत्र के उसी हिस्से को खबरों के जरिए आम जन तक पहुंचाया गया जिससे हालात सामान्य बने रहे। किसी भी अखबार या समाचार चैनल ने इस जहरीले पत्र को अपने पाठकों या दर्शकों के सामने नहीं परोसा। यह एक जिम्मेदराना रवैया था। तो फिर ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर मुंबई मामले में चूक कैसे हुई?

अहम सवाल यह भी है कि आखिर क्यों मीडिया का सारा ध्यान ताज और ओबराय होटल समेत नरीमन प्वाइंट पर ही केंद्रित रहा? छत्रपति शिवाजी टर्मिनल और कामा अस्पताल में हुए हमले की खबरें आखिर क्यों खबरिया चैनलों पर दम तोड़ गईं? इन चैनलों के कर्ताधर्ता अखबारों में और इंटरनेट पर यह तर्क दे रहे हैं कि गोलीबारी चलते रहने की वजह से सारा ध्यान पंचसितारा होटलों पर था। पर मारे जा चुके लोगों को इस कदर भुला देना कहां तक वाजिब है?

24 घंटे के चैनलों में कुछ घंटे तो दम तोड़ चुके लोगों और अस्पतालों में जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे लोगों के बारे में बताने में तो लगाया ही जा सकता था। सैंकड़ों रिपोर्टरों और आधुनिक संसाधनों से लैस भारतीय समाचार चैनलों के लिए यह कार्य बेहद मुश्किल भी नहीं था। पर असल में छत्रपति शिवाजी टर्मिनल और कामा अस्पताल में जो लोग मारे गए थे वे आम जन थे। वहीं जो इन होटलों में फंसे हुए थे वे तथाकथित आधुनिक और संभ्रांत तबके के लोग थे। इसी वजह से वहां कैमरे को टिकाए रखना फायदे का सौदा था। क्योंकि वहां से जो लोग निकल रहे थे वे टीवी के लिए जरूरी समझे जाने वाले फोटोजेनिक चेहरे वाले लोग थे। खास माने जाने वाले लोगों को दिखाना मीडिया के लिए ज्यादा जरूरी बन गया जबकि आम जन की पीड़ा दम तोड़ गई।

आतंकी हमले के दूसरे दिन यह खबर आने लगी कि छत्रपति शिवाजी टर्मिनल पर फिर से गोलीबारी शुरू हो गई है। बजाहिर, इस खबर के बाद मुंबई में अफरा-तफरी का माहौल कायम होना तय था। हुआ भी ऐसा ही। लोग-बाग इधर-उधर लगे भागने। एनएसजी की जो टुकड़ी ताज, ओबराय और नरीमन हाउस पर आतंकियों से लोहा ले रही थी उसी में से कुछ को फटाफट छत्रपति शिवाजी टर्मिनल रवाना किया गया। बाद में पता चला कि यह तो महज एक अफवाह था और वहां कोई गोलीबारी नहीं हो रही थी। इस अफवाह को ब्रेकिंग न्यूज बना देना कई सवाल खड़ा करता है।

पत्रकारिता की बुनियादी बात जब इस क्षेत्र में कदम रखने वालों को बताई जाती है तो उसमें यह बात बेहद प्रमुखता से बताई जाती है कि किसी भी समाचार को प्रकाशित या प्रसारित करने से पहले उसकी पुष्टि कर लेनी चाहिए। आतंकवादी हमले जैसे हालात में तो यह जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। पर सबसे पहले और सबसे तेज के जमाने में किसी सूचना की पुष्टि की जहमत खबरिया माध्यम नहीं उठाना चाहते हैं।

ऐसा नहीं करने की वजह से दुनिया ने कई बड़ी दुर्घटनाओं को घटते देखा है। दुनिया की बेहद लोकप्रिय पत्रिकाओं में से एक है टाइम। इस पत्रिका में एक छोटा लेकिन चर्चित कॉलम है पेरिस्कोप। कुछ साल पहले इसी में यह खबर छपी कि ग्वांटनामो बे में अमेरिका नेे जिन मुस्लमानों को आतंकवादी होने या उन्हें मदद करने के आरोप में कैद कर रखा है उन्हें मानसिक तौर पर तोडऩे के लिए उनके सामने ही अमेरिकी सैनिक कुरान की प्रति को टॉयलेट में डाल रहे हैं। इस खबर को प्रकाशित होने के बाद कई इस्लामिक देशों में हिंसा भड़क गई और कई लोग काल के गाल में समा गए।

बाद में जब टाइम पत्रिका ने पड़ताल की तो यह खबर झूठी निकली। इसके बाद टाइम ने माफीनामा प्रकाशित किया और अपने यहां की संपादकीय नीति में इस बात को शामिल किया कि आगे से किसी भी खबर को प्रकाशित करने से पहले कम से कम दो स्रोतों से उसकी पुश्टि की जाएगी। हालांकि, अपनी गलती को स्वीकार करते हुए यह कदम उठाना टाइम की साहसिकता को दर्शाता है। इस घटना के बावजूद टाइम अपनी गति से चलता रहा। पर टाइम की इस गलती ने कई लोगों से उनकी जिंदगी छीन ली। मुंबई के मामले में हालांकि ऐसी नौबत तो नहीं आई लेकिन अगर अफवाहों को खबर बनाने की प्रवृत्ति पर लगाम नहीं लगी तो आने वाले दिनों में अगर यहां भी कोई बड़ा हादसा हो जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

मुंबई में हुए आतंकवादी हमले को देश पर अब तक का सबसे बड़ा आतंकवादी हमला बताकर आतंक कायम करने में भी खबरिया चैनल लगे रहे। जब एनएसजी का ऑपरेशन पूरा हुआ तो ये चैनल खुद सरकार और सेना की भूमिका में आ गए। लगातार बताया जाता रहा कि आतंक के खिलाफ इस लड़ाई में हम आपके साथ हैं। अगर आप भी इस लड़ाई को अपना समर्थन देना चाहते हैं तो हमें एसएमएस कीजिए। कुछ चैनलों के पास पहुंचने वाले एसएमएस की संख्या तो लाख को भी पार कर गई। यानि आतंक से लोगों में उपजे गुस्से को भुनाने के लिए एसएमएस का रास्ता अपना लिया गया। हर कोई जानता है कि ऐसे एसएमएस भेजने पर जो पैसा कटता है उसका एक बड़ा हिस्सा उस कंपनी के पास जाता है जिसके पास एसएमएस भेजा जाता है।

खबरिया चैनलों के लिए भी ज्यादा से ज्यादा एसएमएस पाना अपनी लोकप्रियता को दिखाने के साथ-साथ आमदनी का एक जरिया है। सही मायने में अगर समाचार चैनल एसएमएस भेजे जाने को राश्ट्रहित में मान रहे थे तो एसएमएस की एवज में मिलने वाला उन्हें अपना हिस्सा छोड़ देना चाहिए था। बिल्कुल उसी तरह जिस तरह सरकार किसी देशभक्ति फिल्म को टैक्स फ्री कर देती है। इससे कहीं ज्यादा बड़ी संख्या में लोग एसएमएस करते।

जब मुंबई के गेटवे ऑफ इंडिया पर बड़ी संख्या में लोग आतंकवाद के खिलाफ प्रदर्शन करने को एकत्रित हुए तो वहां भी खबरिया चैनलों ने इस विरोध को आतंक के खिलाफ कम और नेताओं के खिलाफ ज्यादा करने में अहम भूमिका निभाई। इस बात को स्वीकार करने में किसी को कोई एतराज नहीं होना चाहिए कि नेता अपनी भूमिका का निर्वहन करने में असफल रहे हैं। पर इसके बावजूद नेताओं और आतंकवादियों को एक ही पलड़े पर रखकर दिखाया जाना कब से सही हो गया। हद तो तब हो गई जब लोकतंत्र को ही खारिज किया जाने लगा। मुंबई के आतंकी हमले के कवरेज ने एक बार फिर से कंटेंट कोड की बहस को छेड़ दिया है।

यही वजह है कि ऑपरेशन पूरा होते ही सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की तरफ से ऐसी स्थितियों में रिपोर्टिंग के लिए दिशानिर्देश जारी करने की बात सामने आई। सच तो यह है कि समय के साथ मीडिया की ताकत में बढ़ोतरी हुई है और व्यवस्था को परेषान करने वाली यह ताकत बहुत खटक रही है। इसलिए हर राजनीतिक दल में कंटेंट कोड को लेकर एक तरह की सहमति है। सरकार तो लंबे समय से इस ताक में है कि कब मौका मिले और वह भारतीय प्रसारण नियामक प्राधीकरण यानि ब्राई ले आए। अगर मीडिया की दशा और दिशा तय करने वाले लोग सही मायने में यह चाहते हैं कि कोई कंटेंट कोड नहीं आए और मीडिया की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ग्रहण नहीं लगे तो जल्द ही टीआरपी की मारामारी से ऊपर उठकर अपनी आचार संहिता तैयार करनी होगी और उसे अमली रूप देना होगा। सिर्फ एनबीए यानि न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोशिएशन बना देने भर से काम नहीं चलने वाला है।

दरअसल, इलैक्ट्रानिक मीडिया विजुअल का मीडिया है। गेटवे ऑफ इंडिया पर जो विजुअल उस दिन मिल रहे थे वैसे विजुअल कभी-कभार ही मिलते हैं। इसे भुनाने का मौका कोई भी नहीं छोडऩा चाह रहा था। इसी वजह से कुछ हजार लोगों को वहां जमा हो जाने को ही बार-बार यह कहकर प्रसारित किया गया कि देश की जनता नेताओं और इस व्यवस्था के खिलाफ खड़ी हो गई है। यह बताने वाले अपने व्यावसायिक हित के फेर में यह भूल गए कि अभी भी देश के सत्तर फीसद से ज्यादा लोग गांवों में रहते हैं।

सवाल यह भी है कि अगर वाकई पूरा देश नेताओं के खिलाफ उठ खड़ा हुआ तो मुंबई के गेटवे ऑफ इंडिया पर दिखा वह देश के दूसरे हिस्से में क्यों नहीं दिखा। देष के दूसरे हिस्सों की बात छोड़ भी दी जाए तो महाराश्ट्र के दूसरे इलाकों और यहां तक की मुंबई के ही अन्य क्षेत्रों में क्यों नहीं दिखा? जो गुस्सा एक खास दिन दिखा वह क्या इतना कमजोर था कि कुछ दिन भी नहीं चल सके।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मौजूदा व्यवस्था के प्रति लोगों में गुस्सा है और वे असंतुष्ट हैं। लोग चाहते भी हैं कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र ही नहीं रहे बल्कि एक जिम्मेदार लोकतंत्र भी बने और सत्ता व्यवस्था अपनी जिम्मेवारियों का निर्वहन सही ढंग से करे। पर इस असंतोष की आड़ में अपने व्यावसायिक हित साधने के मकसद से उकसाऊ प्रसारण करने को तो सही नहीं ठहराया जा सकता है। एक जिम्मेदार लोकतंत्र का निर्माण बगैर एक जिम्मेदार मीडिया के संभव नहीं है। क्योंकि यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि लोकतंत्र का चैथा पाया मीडिया को कहा जाता है और अगर कोई खंभा कमजोर रह जाए तो इमारत के भरकने का खतरा हर पल मंडराता रहेगा।

बढ़ गई थी टीआरपी

खबरिया चैनलों के बीच तेजी से बढ़ी गलाकाट प्रतिस्पर्धा की वजह से कई गलतियां बार-बार दुहराई जा रही हैं। यह गलाकाट प्रतिस्पर्धा है ज्यादा से ज्यादा टीआरपी यानि टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट हासिल करने की। मुंबई आतंकी हमले के दौरान साठ घंटे तक चले ऑपरेशन कवर करने को भले ही समाचार चैनलों में ऊंचे ओहदों पर बैठे लोग अपनी जिम्मेदारी बता रहे हैं और इस कवरेज पर अपनी पीठ थपथपा रहे हों लेकिन सच यही है कि इस दौरान खबरिया चैनलों की टीआरपी बढ़ गई।

टीआरपी नापने वाली एजंसी के आंकड़े बता रहे हैं कि छब्बीस नवंबर से तीस नवंबर 2008 के बीच समाचार चैनलों के संयुक्त दर्शक संख्या में तकरीबन एक सौ तीस फीसद का इजाफा हुआ। जबकि मनोरंजन चैनलों के दर्शकों के संख्या में जबर्दस्त कमी आई। टैम के मुताबिक कुल दर्शकों में से 22.4 फीसद दर्शक इन चार दिनों के दौरान हिंदी खबरिया चैनल देखते रहे। जब से टीआरपी नापने की व्यवस्था भारत में हुई तब से अब तक इतनी बड़ी संख्या में लोगों ने हिंदी समाचार चैनलों को कभी नहीं देखा। इन चार दिनों के दौरान मनोरंजन चैनलों का कुल दर्शकों में 19.5 फीसद हिस्सा रहा जबकि हिंदी फिल्म दिखाने वाले चैनलों को 15.1 फीसद दर्शक मिले।

29 नवंबर को समाप्त हुए सप्ताह में हिंदी खबरिया चैनलों के पास कुल दर्शकों में से 16.1 फीसद थे। जबकि इसके पहले के चार सप्ताहों के आंकड़े देखें तो यह पता चलता है कि इस दौरान हिंदी समाचार चैनलों को औसतन हर हफ्ते 6.7 फीसद लोग देखते थे। इस दरम्यान सबसे फायदा आज तक को हुआ। इस घटना से पहले समाचार देखने वाले दर्शकों में से सत्रह फीसद लोग इस चैनल को देखते थे। वहीं इस घटना के दौरान आज तक को 23 फीसद लोगों ने देखा। इसके अलावा जी न्यूज के दर्शकों की संख्या भी आठ फीसद से बढ़कर ग्यारह फीसद हो गई। स्टार न्यूज के दर्शकों की संख्या में एक फीसद का इजाफा हुआ और इसकी हिस्सेदारी उस सप्ताह में सोलह फीसद रही। जबकि सोलह फीसद के साथ इंडिया टीवी, ग्यारह फीसद के साथ आईबीएन सेवन और आठ फीसद के साथ चल रहे एनडीटीवी के दर्शक संख्या में इस आतंकी घटना के लाइव प्रसारण के दौरान भी कोई बढ़ोतरी नहीं हुई।

मलाई काटने में अंग्रेजी खबरिया चैनल भी पीछे नहीं रहे। सबसे ज्यादा फायदा एनडीटीवी टवंटी फोर सेवन को हुआ। इस चैनल के पास अंग्रेजी समाचार चैनल देखने वाले पचीस फीसद दर्शक थे जो इस दौरान बढ़कर तीस फीसद हो गए। दर्शकों में हिस्सेदारी के मामले में टाइम्स नाऊ का शेयर भी 23 फीसद से बढ़कर 28 फीसद हो गया। इस दौरान न्यूज एक्स के दर्शकों की संख्या में भी मामूली बढ़ोतरी दर्ज की गई। जबकि सीएनएन-आईबीएन और हेडलाइंस टुडे के दर्शकों की संख्या में इस दौरान कमी दर्ज की गई। हिंदी के बिजनेस समाचारों वाले चैनलों की टीआरपी में पचीस फीसद का और अंग्रेजी के बिजनेस खबरों वाले चैनलों की टीआरपी तकरीबन दस फीसद की बढ़ोतरी दर्ज की गई।

-हिमांशु शेखर

1 COMMENT

  1. Dear Editor, I appreciate ur valuable research on the subject towards no other media men have looked, oh ! sorry, rather I should say that no other media person dare to think about. I have come 2 know about this site 4 the first time and I shall once laud ur role and activities – Sahdev Jain

Leave a Reply to Sahdev Jain Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here