सांप्रदायिकता, असहिष्णुता और मोदी

 

भाजपा और जनसंघ पर इनके जन्म के साथ ही सांप्रदायिकता का आरोप लगाने का जो सिलसिला आरंभ हुआ था, वह नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद अचानक ठप्प हो गया। लेकिन प्रधानमंत्री बनने के पहले इस व्यक्ति को सांप्रदायिक सिद्ध करने के देश और विदेश में जितने प्रयास किए गए, उतने आजतक नहीं किए गए थे। किसी ने उन्हें सांप्रदायिक कहा तो किसी ने तानाशाह। एक बड़ी नेता ने तो उन्हें मौत का सौदागर तक कहा। तात्कालीन केन्द्र सरकार ने उनका राजनैतिक भविष्य समाप्त करने के लिए सिट बैठाया, आयोग बैठाया और सेशन कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक मुकदमों की झड़ी लगा दी। सेकुलरिस्टों ने अमेरिकी राष्ट्रपति को पत्र भी लिखा कि ऐसे व्यक्ति को वीज़ा न दिया जाय, नहीं तो वह वहाँ पहुँचकर अमेरिका की पवित्र धरती को भी अपवित्र कर देगा। विगत लोकसभा के चुनाव में देसी-विदेशी, तरह-तरह के हथकंडे अपनाकर सेकुलरिस्टों ने मोदी की आँधी रोकने की कोशिश की। लेकिन उनके तमाम आरोपों को भारत की जनता ने खारिज़ कर दिया और पूर्ण बहुमत देकर  उनके गाल पर करारा तमाचा जड़ दिया। विभिन्न न्यायालयों ने भी उन्हें बेदाग घोषित किया।

पिछले डेढ़ सालों से केन्द्र सरकार के लोकहित और लोकप्रिय कार्यक्रमों ने सेकुलरिस्टों की आँखों की नींद उड़ा दी है। देश और विदेश, दोनों में मोदी के नाम का डंका बज रहा है। न कोई २-जी हो रहा है, न ४-जी; न कोयला जी हो रहा है, न कामनवेल्थ जी। मोदी जी के सफाई-कार्यक्रम से खानदानी रईस और उनके दरबारी बौखला-से गए हैं। उन्हें अपनी सफाई का डर इस कदर सताने लगा है कि आका के इशारे पर बड़ी मिहनत और कुशल चाटुकारिता से अर्जित पुरस्कार तक लौटाने का निर्णय  ले डाला। बात तब भी नहीं बनी। न ओबामा ने वीज़ा रोकने का निर्णय लिया, न पुतिन ने निमंत्रण वापस लिया। और तो और जापान और फ्रांस के राष्ट्रपति बनारस और दिल्ली आकर पीठ भी ठोक गए। चारों तरफ से निराश इन कथित सेकुलरिस्टों ने एक पुराने हथियार को नया रूप दिया, सान चढ़ाया और मैदान में पुनः डट गए। बहुत सोच समझकर इसे “असहिष्णुता” का नाम दिया गया। यह सांप्रदायिकता का ही दूसरा नाम है। ये लोग यह भूल गए की इमरजेन्सी को प्रत्यक्ष झेलने वाली पीढ़ी अभी जिन्दा है। कोई कैसे भूल सकता है कि आपात्काल में जय प्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, चन्द्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवानी जैसे सैकड़ों नेता, लाखों कार्यकर्ताओं के साथ बेवज़ह जेल में डाल दिए गए थे। इनपर मीसा (Maintenance of Interanal Security Act) और डीआईआर (Defence of India Rule) की खतरानाक धारायें लगाई गईं ताकि उन्हें ज़मानत न मिल सके। मीसा में तो आरोप-पत्र भी दाखिल करना आवश्यक नहीं था। बंदी को उसके परिवार को बिना सूचना दिए अज्ञात स्थान पर बिना किसी समय सीमा के बंदी बनाकर रखा जा सकता था। जय प्रकाश नारायण जैसे नेता को जेल में इतनी यातना दी गई कि रिहाई के कुछ ही समय के बाद वे स्वर्ग सिधार गए। मेरे कई मित्रों का कैरियर तबाह हो गया। मुसलमानों की ज़बर्दस्ती नसबंदी की गई। सारे समाचार पत्रों पर बेरहमी से सेंशरशीप लागू की गई। जिन पत्रकारों या संपादकों ने बेअदबी करने की गुस्ताखी की, जेल की सलाखों के पीछे पहुँचा दिए गए। मुझे घोर आश्चर्य होता है कि जिस जय प्रकाश नारायण से देश की सुरक्षा को इतना खतरा था, उन्हें भारतरत्न से सम्मानित किया गया और राष्ट्र की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बने और मीसा में जेल में बंद मोररजी भाई, चरण सिंह, चन्द्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी और नरेन्द्र मोदी को देश का प्रधान मंत्री बना दिया गया। देश फिर भी नहीं टूटा। इन्दिरा गाँधी की आत्मा कितनी दुखी हो रही होगी! आज वही लोग  असहिष्णुता का पाठ पढ़ा रहे हैं।

असहिष्णुता का हथियार लेकर मैदान में उतरने वाले जड़ से कटे इन नेताओं को फिर मुँह की खानी होगी, क्योंकि असहिष्णुता (Intolerance) का अर्थ न भारत की जनता को मालूम है, और न मालूम करना चाहती है। जहां तक मेरी बात है, मैं तो आपात्काल की सहिष्णुता का मुरीद हूँ।

 

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