प्रमोद भार्गव
देवभूमि उत्तराखंड में चल रहा राजनीति संकट एक ऐसे विचित्र नटकीय मोड़ पर आ खड़ा हुआ है,जहां जोड़तोड़ और अवसरवादिता के द्वार खुले हुए हैं। राज्य विधानसभा में विनियोग विधेयक प्रस्तुत करने के साथ ही कांग्रेस के 9 विधायक विद्रोह की भूमिका में आ गए थे। तत्काल बाद ये भाजपा के पाले में भी आ खड़े हुए। मुख्यमंत्री हरीष रावत ने इन्हें मनाने के उपाय भी किए,लेकिन एक स्टिंग आॅपरेशन के जरिए ये उपाय हरीष रावत द्वारा विधायकों की खरीद-फरोक्त के रूप में टीवी समाचार चैनल पर सार्वजनिक हो गए। नतीजतन अनैतिक जतन से बहुमत साबित करने की कोशिशें नाकाम हो गईं। सदन में रावत सरकार का 28 मार्च को बहुमत सिद्ध हो जाए,इस जुगत में विधानसभा अध्यक्ष ने बागी विधायकों की सदस्यता को अयोग्य करार भी दिया,किंतु रावत को सदन में बहुमत साबित करने का अवसर मिल पाता, इससे पहले राज्यपाल ने राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी। केंद्रीय मंत्रीमंडल ने आनन-फानन में इस सिफारिश को तस्दीक कर, राष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए भेज दिया। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने बहुमत सिद्ध करने की तय तारीख के ठीक एक दिन पहले इस अनुशंषा पर स्वीकृति की मोहर लगा दी। उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लागू हो जाने के बावजूद सियासी दांव-पेंच चलते रहेंगे,क्योंकि विधानसभा को भंग नहीं,निलंबित किया गया है और विधानसभा चुनाव में अभी एक साल का समय बांकी है।
बड़े राज्यों को विभाजित कर छोटे राज्य इस पवित्र उद्देष्य से अस्तित्व में लाए गए थे,जिससे एक तो चौमुखी विकास की उम्मीद की जा सके,दूसरे अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति की आवाज को भी मुकम्मल तरजीह दी जा सके ? किंतु इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि करीब 15 साल पहले वजूद में आए उत्तराखंड,झारखंड और छत्तीसगढ़ राज्यों में से छत्तीसगढ़ को छोड़ दें तो अन्य दोनों राज्य उद्देष्य की परिकल्पना पर खरे नहीं उतरे हैं। देवभूमि उत्तराखंड जिस राजनीतिक संकट का सामना करते हुए शर्मसार है,वहां 15 साल में सात सरकारें रहीं। नारायण दत्त तिवारी को छोड़ कोई दूसरा मुख्यमंत्री तीन साल से ज्यादा सरकार नहीं चला पाया। साफ है,राज्य में आंतरिक कलह और आशंकाएं इतनी ज्यादा रही है कि मुख्यमंत्रियों का ध्यान विकासोन्मुखी कार्यों में लगाने से कहीं ज्यादा सरकार बचाए रखने की चिंता में लगा रहा है।
खुद हरीष रावत कांग्रेस के ही मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को धकिया कर उत्तराखंड की सत्ता पर काबिज हुए थे। अब वे बागियों के नेतृत्व की मुखर भूमिका में हैं। दरअसल उत्तराखंड में जिन दुविधा के हालातों का निर्माण हुआ है,उनका जनक कांगेस का केंद्रीय नेतृत्व है। यदि सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने दूरदर्शिता से काम लिया होता तो शायद वर्तमान हालातों का सामना नहीं करना पड़ता। कांग्रेस ने हरीष रावत की अगुवाई में विधानसभा का चुनाव लड़ा और उसे बहुमत भी मिला। किंतु रीता बहुगुणा के व्यावहारिक दबाव में मुख्यमंत्री रीता के भाई विजय बहुगुणा को बना दिया गया। जबकि विजय लोकसभा के सांसद थे,उन्हें इस्तीफा दिलाकर मुख्यमंत्री बना देने का कोई औचित्य भी नहीं था। बहुगुणा केदरनाथ में जो प्राकृतिक आपदा आई थी,उसको संभालने में शासन-प्रशासन के स्तर पर असरकारी कुशलता दिखाने में पूरी तरह असफल रहे थे। इस असफलता को आधार बनाकर हरीष रावत ने उत्तराखंड का दायित्व संभाला था,जिसकी कसक आहत विजय ने अब पूरी कर ली है। इसीलिए बहुगुणा के इस दांव को निर्णायक मोड़ पर पहुंचाने में सबसे अहम् भूमिका भाजपा की मानी जा रही है।
उत्तराखंड विधानसभा में अनिश्चय व अस्थिरता की स्थिति विनियोग विधेयक पेष करने के संदर्भ में बनी। इस विधेयक को लेकर कांगेस विधायकों ने ही हरीष रावत के विरुद्ध बगावत का झंडा बुलंद किया। बजट सत्र के दौरान ही ये शंकाए उत्पन्न हो गईं थीं कि सत्तारूढ़ कांग्रेस के 11 से लेकर 13 विधायक विनियोग विधेयक के विरुद्ध मतदान करके सदन में ही रावत सरकार को गिराने पर आमादा हैं। बजट पारित कराते समय यदि एक विधायक भी मत-विभाजन की मांग करता है तो विधानसभा अध्यक्ष के लिए मतदान की मांग मानना संविधान सम्मत बाध्यता है। इस अवसर पर स्थिति तो यह हो गई थी कि 11 या 13 नहीं सदन की कार्यवाही शुरू होने से पहले ही 35 विधायकों ने लिखित में अध्यक्ष और राज्यपाल से मत-विभाजन की मांग कर दी थी। इस मांग-पत्र पर कांग्रेस के बागी विधायकों का नेतृत्व कर रहे हरक सिंह रावत और विजय बहुगुणा के अलावा भाजपा विधायकों के भी हस्ताक्षर थे। लेकिन इस दस्तावेजी साक्ष्य और विधायकों की विधानसभा में मतदान की प्रत्यक्ष मांग को नजरअंदाज करते हुए विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल ने ध्वनिमत से बजट पारित होने की घोषणा कर दी। चूंकि मांग संबंधी पूरी कार्यवाही वीडियो फुटेज में दर्ज है और दस्तावेजी अभिलेख भी मौजूद हैं,इसलिए इसे झुठलाया नहीं जा सकता है ? बावजूद अध्यक्ष ने कायदे-कानून और परंपराओं को दरकिनार करके जो किया उसे संसदीय आचरण कहना मुश्किल ही है ? इससे भी ज्यादा हैरानी इस बात पर हुई कि कुंजवाल ने लिखित में यह माना कि सदन में मत-विभाजन की मांग हुई थी,लेकिन उन्होंने विधेयक को पारित मान लिया। सदन के अध्यक्ष का यही विशंगतिपूर्ण आचरण उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लागू करने का मुख्य आधार बना है।
उपरोक्त गतिविधियों से साफ है,हरीष रावत सरकार मत-विभाजन की मांग के दौरान अल्पमत में आ गई थी। लिहाजा बागी विधायक और भाजपा की मांग पर राज्यपाल ने मुख्यमंत्री को 28 मार्च को नए सिरे से अपना बहुमत सिद्ध करने का निर्देश दिया था। सदन ने हरीष बहुमत साबित कर दें,इस मकसद के लिए कुटिल चतुरई बरतते हुए विधानसभा अध्यक्ष ने सभी 9 बागियों को सदन की सदस्यता से आयोग्य घोषित कर दिया था। ऐसा इसलिए किया गया,जिससे बहुमत साबित करने के मौके पर ये विधायक सदन में शिरकत न कर सकें। कुंजवाल की इस पहल से विधानसभा का समीकरण बदल गया। 70 सदस्यीय विधानसभा में सदस्यों की संख्या घटकर 61 रह गई। इनमें भाजपा के 28,कांग्रेस के 27,बाजपा के 2,यूकेडी का 1 और 3 निर्दलीय विधायक रह गए। यदि हरीष रावत को 28 मार्च को बहुमत सिद्ध करने का अवसर मिल जाता तो कांग्रेस के 27, बसपा के 2, यूकेडी के 3 और तीनों निर्दलीय विधायक कांग्रेस के समर्थन में थे। मसलन 33 विधायक हरीष रावत के पक्ष में थे। यानी हरीष रावत सदन में शक्ति परीक्षण में सफल हो सकते थे ? यदि ऐसा सदन में हो जाता तो फिर हरीष को चुनाव तक सत्ता से बेदखल करना मुश्किल था ? इसीलिए नाटकीय ढंग से राष्ट्रपति शासन लगाने की भाजपा व केंद्र की मंशा को अंजाम दिया गया।
दरअसल एकाएक उत्तराखंड में जिन हालातों का निर्माण हुआ,उनके तहत केंद्र सरकार को राष्ट्रपति शासन लगाने के मजबूत आधार मिलते चले गए। पहले तो कांग्रेस के 9 विधायक बागी हुए,फिर सदन में बजट पारित कराने के समय मत-विभाजन की मांग हुई,जिसे अध्यक्ष ने माना नहीं और ध्वनिमत से बजट पारित हो जाने का ऐलान कर दिया। इसी दौरान स्टिंग आॅपरेशन के जरिए बनाई गई वह सीडी भी जारी हो गई, जिसमें हरीष रावत बागी विधायकों के नेता हरक सिंह रावत और मध्यस्थ पत्रकार से करोड़ों के अनैतिक लेनदेन की बात करते हुए स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। यानी बागी विधायकों को अपने पक्ष में लाने के लिए वह हर काम करने की पहल की गई,जो संविधान विरुद्ध है। सार्वजनिक होने पर इस सीडी को फर्जी ठहराने की कोशिशें हरीष रावत और कांग्रेस ने कीं,किंतु राष्ट्रपति शासन लागू होने के ठीक पहले इस सीडी के सत्य होने की रिपोर्ट चंडीगढ़ की फोरेंसिक प्रयोगशाला ने दे दी। यानी हरीष रावत की प्रशासनिक नाकामी का पलड़ा भारी होता चला गया। नतीजतन राज्यपाल को राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश करने के एक के बाद एक पुख्ता आधार मिलते चले गए। राज्यपाल की सिफारिश को आनन-फानन में केंद्रिय परिषद ने स्वीकृति भी दे दी। जिसे राष्ट्रपति ने संविधान-सम्मत माना और उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगा दिया।
अब कांग्रेस भले ही इस कवायद को संविधान विरोधी कहे या लोकतंत्र की हत्या,हकीकत तो यह है कि वह भी विपक्षी दलों की राज्य सरकारें गिराने में कमोबेश यही नुस्खे अपनाती और दलबदल कराती रही है ? व्यवस्था या कानून में जो छेद हैं,उन्हें भरने की कोशिश कांग्रेस ने कभी नहीं की ? अब अपनी सरकार के विरुद्ध यही हथकंडे उसे बंदरग तस्वीर के रूप में दिखाई दे रहे हैं,तो उन्हें लोकतंत्र की हत्या करार दिया जा रहा है ? दरअसल कांग्रेस को अपनी गिरेवान में झांकते हुए अपने अतीत का आत्ममंथन करने की जरूरत है। सोनिया-राहुल की अदूरदर्शिता भी असंतुष्ट विधायकों को इस मुकाम तक पहुंचाने में एक बढ़ा कारण रही है ? आखिर क्या वजह रही कि राहुल के पास ढाई महीने से मिलने का समय मांग रहे विधायकों से मिलने की फुरसत नहीं मिली ? टालाटूली के इस रवैये ने असंतुष्टों को स्वछंद बनाने का ही काम किया। खैर नाटकीय राजनीति के जिस मोड़ पर उत्तराखंड आ खड़ा हुआ है,वहां एक अवसर भाजपा को बागियों के साथ मिलकर सरकार बनाने का जरूर है,लेकिन वह सरकार बन भी गई तो टिक कितनी पाएगी,यह कोई नहीं कह सकता है ?