व्हॉट्सैप की करामात

whatsappदूरियों को दूर कर के , दूर के सब पास आए ।
नित्य बातें हो रही हैं , मन सभी का हैं लुभाए ।।
क्या बड़े , युवजन और बच्चे , सभी तो डूबे हुए हैं ।
लिखते ,पढ़ते , मुस्कुराते , जैसे मूवी देखते हैं ।।
पास में जो सदा रहते, बात उनसे हो न पाए ।
व्यस्त सब इतने कि उनसे,बात का समय न पाएँ।।
व्हॉट्सैप ने कर दिया, सबको बेग़ाना किस क़दर ।
भरे से परिवार में भी, नहीं कोई हमसफ़र ।।

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शकुन्तला बहादुर
भारत में उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में जन्मी शकुन्तला बहादुर लखनऊ विश्वविद्यालय तथा उसके महिला परास्नातक महाविद्यालय में ३७वर्षों तक संस्कृतप्रवक्ता,विभागाध्यक्षा रहकर प्राचार्या पद से अवकाशप्राप्त । इसी बीच जर्मनी के ट्यूबिंगेन विश्वविद्यालय में जर्मन एकेडेमिक एक्सचेंज सर्विस की फ़ेलोशिप पर जर्मनी में दो वर्षों तक शोधकार्य एवं वहीं हिन्दी,संस्कृत का शिक्षण भी। यूरोप एवं अमेरिका की साहित्यिक गोष्ठियों में प्रतिभागिता । अभी तक दो काव्य कृतियाँ, तीन गद्य की( ललित निबन्ध, संस्मरण)पुस्तकें प्रकाशित। भारत एवं अमेरिका की विभिन्न पत्रिकाओं में कविताएँ एवं लेख प्रकाशित । दोनों देशों की प्रमुख हिन्दी एवं संस्कृत की संस्थाओं से सम्बद्ध । सम्प्रति विगत १८ वर्षों से कैलिफ़ोर्निया में निवास ।

3 COMMENTS

  1. दूर के ढोल लुभावने लगते हैं तो अपने पास के ढोल की थाप क्योंकर सुनाई देगी जो रोजाना सुनते हैं? तिस पर आधुनिकता पर लिखे अच्छे काव्य-भाव हैं|

  2. अनजाने मे, भूला जाता, यह अनछुआ दृष्टिकोण जो ठोस संबंधों को बिसार कर दूरियाँ बढाता है। क्या जिस जंगल से मनुष्य निकला था, वहीं पर वापस जा रहा है?
    किसी संत ने कहा है: आगे बढें, आगे बढें, हम इतने ऐसे आगे बढें?
    कि स ब के पी छे र ह ग ए।
    जी, हाँ!
    सब के पीछे रह गए।
    सुन्दर संपृक्त कविता-जैसे बीज में ऊगा हुआ वृक्ष।

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