कुछ बातें ‘भारत माता की जय’ न बोलने वालों से !

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-संजय द्विवेदी

देश की आजादी के सात दशक बाद वंदेमातरम् गाएं या न गाएं, ‘भारत माता की जय’ बोलें या न बोलें इस पर छिड़ी बहस ने हमारे राजनीतिक विमर्श की नैतिकता और समझदारी दोनों पर सवाल खड़े कर दिए हैं। आजादी के दीवानों ने जिन नारों को लगाते हुए अपना सर्वस्व निछावर किया, आज वही नारे हमारे सामने सवाल की तरह खड़े हैं। देश की आजादी के इतने वर्षों बाद छिड़ी यह निरर्थक बहस कई तरह के प्रश्न खड़े करती है। यह बात बताती है राजनीति का स्तर इन सालों में कितना गिरा है और उसे अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान से समझौता करने में भी गुरेज नहीं है। लोकतंत्र इस मामले में हमें इतना दयनीय बना देगा, यह सोचकर दुख होता है।

जिन नारों ने हमारी आजादी के समूचे आंदोलन को एक दिशा दी, ओज और तेज दिया, वे आज हमें चुभने लगे हैं। वोट की राजनीति के लिए समझौतों और समर्पण की यह कथा विचलित करने वाली है। यह बताती है कि एक राष्ट्र के रूप में हमारी पहचानें, अभी भी विवाद का विषय हैं। इन सालों में हमने भारतीयता के उदात्त भावों का तिरस्कार किया और उस भाव को जगाने में विफल रहे, जिनसे कोई देश बनता है। विदेशी विचारों और देश विरोधी सोच ने हमारे पाठ्यक्रमों से लेकर हमारे सार्वजनिक जीवन में भी जगह बना ली है। इसके चलते हमारा राष्ट्रीय मन आहत और पददलित होता रहा और राष्ट्रीय स्वाभिमान हाशिए लगा दिया गया। भारत और उसकी हर चीज से नफरत का पाठ कुछ विचारधाराएं पढ़ाती रहीं। भारत के विश्वविद्यालयों से लेकर भारत के बौद्धिक तबकों में उनकी धुसपैठ ने भारत की ज्ञान परंपरा को पोगापंथ और दकियानूसी कहकर खारिज किया। विदेशी विचारों की जूठन उठाते- उठाते हमारी पूरी उच्चशिक्षा भारत विरोधी बन गयी। अपने आत्मदैन्य के बोझ से लदी पीढी तैयार होती रही और देश इसे देखता रहा।

सत्ता में रहे जनों को सिर्फ सत्ता से मतलब था, शिक्षा परिसरों में क्या हो रहा है- इसे देखने की फुरसत किसे थी। राजनीति यहां सत्ता प्राप्ति का उपक्रम बनकर रह गयी और किसी सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक परिवर्तन से उसने हाथ जोड़ लिए। कुछ अर्धशिक्षित और वामविचारी चिंतकों ने ‘भारत’ को छोड़कर सब कुछ जानने-जनाने की कसम खा रखी थी। वे ही शिक्षा मंदिरों में बैठकर सारा कुछ लाल-पीला कर रहे थे। एक स्वाभिमानी भारत को आत्मदैन्य से युक्त करने में इन वाम विचारकों ने एक बड़ी भूमिका निभाई। युवा शक्ति अपनी जड़ों से कटे और भारत का भारत से परिचय न हो सके, इनकी पूरी कोशिश यही थी और इसमें वे सफल भी रहे।दरअसल यही वह समय था, जिसके चलते हमारी भारतीयता, राष्ट्रीयता और देशप्रेम की भावनाएं सूखती गयीं। जो वर्ग जितना पढ़ा लिखा था वह भारत से, उसकी माटी की महक से उतना ही दूर होता गया। देश की समस्याओं की पहचान कर उनका निदान ढूंढने के बजाय, सामाजिक टकराव के बहाने खोजे और स्थापित किए जाने लगे। समाज में विखंडन की राजनीति को स्थापित करना और भारत को खंड-खंड करके देखना, इस बुद्धिजीवी परिवार का सपना था। भारत के लोग और उनके स्वप्नों के बजाए विखंडन ही इनका स्वप्न था।

दुनिया में कौन सा देश है जो कुछेक समस्याओं से घिरा नहीं है। किंतु क्या वो अपनी माटी और भूमि के विरूद्ध ही विचार करने लगता है। नहीं, वह अपनी जमीन पर आस्था रखते हुए अपने समय के सवालों का हल तलाशते हैं। किंतु यह विचारधारा, समस्याओं का हल तलाशने के लिए नहीं, सवाल खड़े करने और विवाद प्रायोजित करने में लगी रही। राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी रही कांग्रेस जैसी पार्टी ने भी अपने सारे पुण्यकर्मों पर पानी फेरते हुए इसी विचार को संरक्षण दिया। जबकि इन्होंने चीन युद्ध में पं.नेहरू के साथ खड़े होने के बजाए माओ के साथ खड़े होना स्वीकार किया। जिनकी नजर में महात्मा गांधी से लेकर सुभाष चंद्र बोस सब लांछित किए जाने योग्य थे- ये लोग ही भारत के वैचारिक अधिष्ठान के नियंता बन गए। ऐसे में देश का वही होना था जो हो रहा है। यह तो भला हो देश की जनता का जो ज्यादा संख्या में आज भी बौद्धिक क्षेत्र में चलने वाले विमर्शों से दूर अपने श्रम फल से इस देश को गौरवान्वित कर रही है। भला हो इस विशाल देश का कि आज भी बड़ी संख्या में दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक समाज तक वामपंथियों का वैचारिक जहर नहीं फैल सका और वे कुछ बौद्धिक संस्थाओं तक सीमित रह गए हैं। वरना देश को टुकड़े करने का, इनका स्वप्न और जोर से हिलोरें मारता।

आजादी के शहीदों, हमारे वर्तमान सैनिकों के साहस, पुरूषार्थ और साहस को चुनौती देते ये देशतोड़क आज भी अपने मंसूबों को कामयाब होने का स्वप्न देखते हैं। जंगलों में माओवादियों, कश्मीर में आजादी के तलबगारों, पंजाब में खालिस्तान का स्वप्न देखने वालों और पूर्वोत्तर के तमाम अतिवादी आंदोलनों की आपसी संगति समझना कठिन नहीं है। भारत में पांथिक, जातिवादी, क्षेत्रीय आकांक्षाओं के उभार के हर अभियान के पीछे छिपी ताकतों को आज पहचानना जरूरी है। क्योंकि इन सबके तार देश विरोधी शक्तियों से जुड़े हुए हैं। देश को कमजोर करने, लोकतंत्र से नागरिकों की आस्था उठाने और उन्हें हिंसक अभियानों की तरफ झोंकने की कोशिशें लगातार जारी है। हालात यह हैं कि हम अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के सवालों पर भी एक सुर से बात नहीं कर पा रहे हैं। क्या इस देश के और तमाम राजनीतिक दलों के हित अलग-अलग हैं? क्या राज्यों के हित और देश के हित अलग-अलग हैं? क्या इस देश के बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक, वनवासी-गिरिवासी-आदिवासियों के हित अलग-अलग हैं? जाहिर तौर पर नहीं। सबकी समस्याएं, इस देश की चिताएं हैं। सबका पिछड़ापन, इस देश का पिछड़ापन है। जाहिर तौर पर अपनी समस्याओं का हल हमें मिलकर ही तलाशना है। जैसे हमने साथ मिलकर अंग्रेजों के विरूद्ध लड़ाई लड़ी, वैसी ही लड़ाई गरीबी, बेरोजगारी और अशिक्षा के खिलाफ करनी होगी। किंतु हर लड़ाई का अलग-अलग मोर्चा खोलकर, हम समाज की सामूहिक शक्ति को कमजोर कर रहे हैं। इस देश और उसकी माटी को लांछित कर रहे हैं। राष्ट्रीयता का यह बोध आज इस स्तर तक जा पहुंचा है कि हमें आज यह बहस करनी पड़ रही है कि भारत मां की जय बोलें या ना बोलें। संविधान की शपथ लेकर संसद में बैठे एक सांसद कह रहे हैं कि “भारत की मां की जय नहीं बोलूंगा, क्या कर लेगें।”निश्चित ही आप भारत मां की जय न बोलें, पर ऐसा कहने की जरूरत क्या है। यह कहकर आप किसे खुश कर रहे हैं?

जाहिर तौर पर स्थितियां बहुत त्रासद हैं। देश की अस्मिता और उसके सवालों को इस तरह सड़क पर लांछित होते देखना भी दुखद है। लोकतंत्र में होने का यह मतलब नहीं कि आप मनमानी करें, किंतु ऐसा हो रहा है और हम सब भारत के लोग इसे देखने के लिए विवश हैं। ऐसी गलीज और निरर्थक बहसों से दूर हमें अपने समय के सवालों, समस्याओं के समाधान खोजने में अपनी ताकत लगानी चाहिए। इसी से इस देश और उसके लोगों का सुखद भविष्य तय होगा।

3 COMMENTS

  1. प्रवक्ता.कॉम पर अन्यत्र प्रकाशित तनवीर जाफरी जी के लेख, (‘भारत माता की जय’ पर फ़तवों की बौछार) और संजय द्विवेदी जी के यहाँ प्रस्तुत लेख, (कुछ बातें ‘भारत माता की जय’ न बोलने वालों से!) मीडिया में एक ही दुर्भावनापूर्ण उठाए सामाजिक और राजनैतिक मुद्दे पर दो प्रतिकूल दृष्टिकोण हैं जिन में संतुलन ढूँढते मैं व्याकुल हो उठा हूँ| विभाजन के बहुत पहले मुस्लिम धर्मावलम्बियों को लेकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और अखिल भारतीय मुस्लिम लीग में तब के तथाकथित नेताओं में घिनौने षड्यंत्र के अधीन नियोजित राजनैतिक मतभेद अंग्रेजों को लाभान्वित करता था तो आज उसी प्रकार की स्थिति की ओर संकेत करता पहला निबंध राष्ट्रीय शासन के लिए चेतावनी है कि भूतकालीन स्थिति की भांति भारत आज फिर से राष्ट्र विरोधी तत्वों का अखाड़ा बनता जा रहा है| दूसरे निबंध में लेखक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति का अवलोकन अथवा आलोचना करते स्वयं दुखी है| तिस पर निबंध पढ़ते मुझे असीम प्रसन्नता हुई है कि संजय द्विवेदी जी ने “भारत माता की जय न बोलने वालों को कुछ बातें” कहते अपने लेख में “हिन्दू” “मुसलमान” “हिंदुत्व” इत्यादि शब्दों का प्रयोग न कर उस अलौकिक हिंदुत्व के आचरण का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया है जिस के कारण मोहम्मद अली जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद सिद्धान्त के अंतर्गत विभाजन के पश्चात से आज तक भारत माता विभिन्न धर्मों के अनुयायियों को अपनी गोद में बैठाए हुई है| मैं आशा करता हूँ कि अधिक से अधिक लोग इस निबंध को पढ़ स्थिति को और बिगड़ने से बचाएं गे|

    भले ही मीडिया और पूर्व-शासकीय व्यवस्था में सांप्रदायिक दंगों को गंभीरता से नहीं लिया गया था लेकिन आज राष्ट्रीय शासन में सांप्रदायिक सौहार्द और समन्वय देश के विकास के लिए अत्यंत आवश्यक हैं| ऐसी स्थिति में सांप्रदायिक उपद्रवों से समाज को सुरक्षित रखना अत्यावश्यक है| क्योंकि सभी कार्यकारी-विरोधी प्रत्यक्ष रूप में भारतीय मूल के ही हैं, उन्हें विधि व्यवस्था एवं धर्मनिरपेक्षतावादी शासकीय नीतियों द्वारा नियंत्रण में लाना होगा|

  2. संजय जी ,
    आपके प्रश्न सार्थक हैं.
    आजादी के समय यही सब नारे लोग पूरे जोश में लगाते थे. वहाँ
    किसी का कोई दबाव नहीं था. आज कट्टर हिंदूपंथी हर बात पर डर का माहौल पैदा करने में लगे हैं, जबरदस्ती करते हैं. तब विरोध तो होगा ही. आप अपने बच्चे से कहो, बेटा दूध के गिलास को हाथ मत लगाना. रोज दूध नहीं पीने वाला बच्चा भी ललकार के कारण दूध गटागट पी जाएगा. यह तो मानव का स्वभाव है. जब ऐसा माहौल बने – तो ऐसा ही होगा. बनती बात भी बिगड़ती जाएगी. जहाँ तक राजनीतिक पार्टियों का सवाल है, कोई किसी से बेहतर नहीं हैं. सब स्वार्थी हैं चाहे काँग्रेस हो या भाजपा या कोई अन्य पार्टी.

    • आयंगर जी, कृपया बताएं हर बात पर डर का माहौल पैदा करने वाले कट्टर हिंदूपंथी से आपकी कब और कहाँ मुलाकात हुई है और आपको उनसे कैसा डर है? मैं सोचता हूँ कि संजय द्विवेदी जी द्वारा कही बातें पढ़ कोई भी भारतीय नागरिक निर्मल मन आश्वासित हो समाज में सांप्रदायिक-सौहार्द की कामना करेगा| लेकिन आप हैं कि चिरकाल से अतीत के अँधेरे में बैठे आशा खोए हुए हैं| क्यों?

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